नई दिल्ली — दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि भले ही कानून मानसिक विक्षिप्त व्यक्तियों को अनावश्यक आपराधिक दायित्व से बचाता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें बिना उचित न्यायिक मूल्यांकन के सीधे समाज में छोड़ दिया जाए।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा कि मानसिक मंदता (mental retardation) से पीड़ित व्यक्ति भले ही अपने कृत्य की अवैधता या परिणामों को न समझ पाएं, लेकिन दूसरों के प्रति उनके दोहराए जाने वाले संभावित खतरनाक व्यवहार का जोखिम बना रहता है।
अदालत ने कहा, “यह अदालत मानसिक मंदता या मस्तिष्क की अस्वस्थता से पीड़ित व्यक्तियों को प्रदान किए गए कानूनी संरक्षण के प्रति पूरी तरह सजग है। ऐसे संरक्षण करुणा पर आधारित होते हैं और इस समझ से प्रेरित होते हैं कि जो व्यक्ति अपने कार्यों के स्वभाव या परिणामों को समझने में असमर्थ है, उसे सामान्य प्रक्रिया में आपराधिक अभियोजन का सामना नहीं करना चाहिए।”
हालाँकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि समाज की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी न्याय व्यवस्था का महत्वपूर्ण कर्तव्य है। अदालत ने कहा, “जबकि कानून मानसिक विक्षिप्त व्यक्तियों को अनावश्यक आपराधिक दायित्व से बचाता है, यह उन्हें बिना उचित और सूचित न्यायिक मूल्यांकन के अंधाधुंध रूप से समाज में छोड़ने की अनुमति नहीं देता और न ही दे सकता है।”
यह मामला हाईकोर्ट के समक्ष तब आया जब दिल्ली पुलिस ने निचली अदालत के उस आदेश को चुनौती दी जिसमें एक व्यक्ति को नाबालिग लड़की के यौन शोषण के मामले में आरोपमुक्त कर दिया गया था। एक मेडिकल बोर्ड ने निष्कर्ष निकाला था कि आरोपी की मानसिक आयु केवल चार साल के बच्चे के बराबर है और वह गंभीर मानसिक मंदता से ग्रस्त है। हालांकि, राज्य सरकार ने तर्क दिया कि आरोपी को केवल आईक्यू सर्टिफिकेट के आधार पर आरोपमुक्त कर दिया गया, बिना कानून के तहत आवश्यक अनिवार्य जांच किए।
अभियोजन पक्ष ने यह भी कहा कि निचली अदालत ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 330(2) के तहत अनिवार्य प्रक्रिया का पालन नहीं किया, जिसमें ऐसे आरोपी को सुरक्षित हिरासत में रखने और इस कार्रवाई की सूचना सरकार को देने का प्रावधान है।
हाईकोर्ट ने पाया कि सत्र न्यायालय ने वास्तव में इन कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन किया। हाईकोर्ट ने कहा, “सत्र अदालत ने न तो आरोपी द्वारा कथित अपराध की प्रकृति का कोई विश्लेषण किया और न ही उसकी मानसिक मंदता की सीमा और गंभीरता का आकलन किया ताकि यह तार्किक निष्कर्ष निकाला जा सके कि क्या उसे सुरक्षित रूप से छोड़ा जा सकता है। निचली अदालत के आदेश में यह भी कहीं संकेत नहीं मिलता कि अदालत ने किसी चिकित्सकीय या विशेषज्ञ राय पर विचार किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आरोपी को रिहा करने पर वह स्वयं या दूसरों के लिए खतरा पैदा नहीं करेगा।”
हाईकोर्ट ने सत्र अदालत के आदेश को रद्द करते हुए मामला वापस भेज दिया ताकि CrPC की धारा 330 के अनुसार उचित आदेश पारित किया जा सके।