'अ पार्ट अपार्ट द लाइफ़ एंड थॉट ऑफ बी.आर.आंबेडकर' से जानकारी मिलती है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर का धर्मान्तरण की ओर प्रत्यक्ष झुकाव कब से शुरू हुआ था। इसमें उनके धर्मान्तरण की भूमिका के बारे में कई दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं। ऐसे कई रचनाओं के तथ्यों को जोड़कर राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, डॉ. रतन लाल द्वारा संकलित पुस्तक 'धर्मान्तरण: आंबेडकर की धम्म यात्रा' कई अनकही कहानियों को पाठक के सामने लाती है.
सन 1935 के मध्य यह अफवाह फैल गई की बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत हो रहे हैं। सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेने के बारे में अंबेडकर के जो भी विचार थे, उन्हें जल्द ही एक महत्वपूर्ण निर्णय से नकार दिया गया। अगस्त 1935 में, उन्होंने बॉम्बे प्रांत के गृह सचिव हेनरी नाइट को लिखा कि वह हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा करके कालाराम मंदिर सत्याग्रह को औपचारिक रूप से समाप्त कर देंगे।
2 महीने बाद नाइट ने अंबेडकर को पत्र की याद दिलाई। फिर 11 अक्टूबर 1935 में लिखे पत्र में अंबेडकर ने नाइट से कहा कि वह इसे भूले नहीं हैं। इस बीच, येवला में अनुयायियों की ऐतिहासिक सामूहिक बैठक की तैयारी हो चुकी थी।
आंबेडकर द्वारा भाऊराव गायकवाड़ को लिखे गए पत्रों से पता चलता है कि येवला सम्मेलन आयोजित करने की योजना 1932 से ही चल रही थी। आखिरकार 13 अक्टूबर 1935 को वह ऐतिहासिक दिन आ ही गया जब अंबेडकर ने येवला में अपनी ऐतिहासिक घोषणा की।
अस्पृश्य समाज की असहनीय पीड़ा का विस्तृत वर्णन करते हुए आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा इन शब्दों में की: "दुर्भाग्य से मैं अस्पृश्य हिंदू का दाग लेकर ही पैदा हुआ। हालांकि यह बात मेरे बस में नहीं थी। लेकिन यह हीन दर्जा झटककर स्थिति को सुधारना मेरे वश में है, और मैं वह करूंगा ही, इस बारे में किसी को किसी तरह की आशंका नहीं होनी चाहिए। आज साफ तौर पर मैं आपसे कह रहा हूं कि मैं अपने आप को हिंदू कहलाते हुए नहीं मरूंगा। हिंदू धर्म के त्याग के बाद अस्पृश्य कौन-सा धर्म अपनाएंगे, यह पूरी तरह उनकी अपनी मर्जी पर निर्भर करेगा। उन्हें सिर्फ इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे उसी धर्म को स्वीकार करें, जिसमें उन्हें समानता का अधिकार प्राप्त हो।"
आंबेडकर के धर्मान्तरण की घोषणा पर विभिन्न मंचों, संगठनों और व्यक्तियों के बीच विस्फोटक प्रक्रिया हुई। मीडिया में भी विस्तृत चर्चा हुई। द पीपल, इंडियन विटनेस, जन्मभूमि, प्रजामित्र, जाम-ए-जमशेद, नवाकाल, द कांग्रेस सोशलिस्ट, संघशक्ति, सत्यशोधक रत्नागिरी, लोकसत्ता, केसरी, सुबोध पत्रिका जैसे अखबारों ने अपने-अपने तरीके से धर्मान्तरण की आलोचना की।
वहीं दूसरी तरफ लोकमान्य, ज्ञानप्रकाश, विहार, सेवक, राष्ट्रवीर, दीन मित्र, विविध वृत्त जैसे पत्रों में धर्मान्तरण के समर्थन में लेख लिखे गए। सुधारवादी विचारों वाले ब्राह्मण नाटककार अनंत हरि गद्रे द्वारा संपादित पत्रिका 'निर्भीड' ने भी आंबेडकर का समर्थन किया।
जब सारे विश्व में धर्मांतरण की घोषणा का प्रचार-प्रसार हुआ तब ईसाई, इस्लाम एवं सिख धर्म के बड़े-बड़े प्रतिनिधि आंबेडकर से मिलने आने लगे और उन्हें अपने-अपने धर्मों में शामिल करने का प्रयास करने लगे।
आर्य समाज के नेता पंडित श्रुतबंधु शास्त्री अपनी सुपुत्री को आंबेडकर के पुत्र के लिए देने को तैयार थे, लेकिन वह कभी अपनी पुत्री को दिखाने के लिए राजगृह नहीं लाए।
अमृतसर के स्वर्णमंदिर के उपाध्यक्ष सरदार दिलीप सिंह ठोबिया ने बाबा साहब को अमृतसर से तार भेज कर निवेदन किया कि सिक्ख धर्म समता पर आधारित एकेश्वरवाद को मानता है, अतः आप इस धर्म को स्वीकार करें।
धर्मानंद कोसंबी ने उनके निवास राजगृह में जाकर उनसे भेंट की। दोनों के बीच बौद्ध धर्म पर गहन विचार-विमर्श हुआ। धर्मानंद कोसंबी को लगा कि अभी अंबेडकर किसी भी धर्म से बंधे हुए नहीं हैं, परंतु उनका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर है।
आगा खां ने भी अपनी एक सभा में अपने अनुयायियों से कहा कि अस्पृश्य हिंदू धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म स्वीकार करना चाहते हैं। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम उन्हें अपने धर्म में लाकर उनका सर्वांगीण विकास करें। इस कार्य के लिए हमारे पंथ के युवाओं को कार्य करना चाहिए। ऐसा कर वे इस्लाम के सेवक कहलाएंगे। परंतु आगा खां के अनुयायियों ने ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया।
ख़ैरमोडे द्वारा 2017 में सम्यक प्रकाशन से प्रकाशित, 'बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर: जीवन और चिन्तन', के 6 के अनुसार, महाबोधि सोसाइटी, बनारस के महासचिव ने आंबेडकर को तार भेज कर निवेदन किया था कि, "यदि आपने धर्मान्तरण का निश्चय कर ही लिया है तो कृपया आप बौद्ध धर्म स्वीकार करें। पूरे एशिया महाद्वीप में बौद्ध हैं, इनमें जातिभेद नहीं है और यदि इस धर्म को अपना लिया तो हमारे धम्म प्रचारक आपके सहयोग के लिए भेजे जाएंगे।"
खालिद गौबा, जो पहले हिंदू आर्य समाजी थे, ने आंबेडकर को तार भेजकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने की विनती की। उन्होंने लिखा कि, "इस धर्म में आपको तथा आपके समाज को संपूर्ण अधिकार दिए जाएंगे।"
दूसरी तरफ आंबेडकर की घोषणा से नासिक के सनातनी हिंदू इसलिए प्रसन्न हो रहे थे कि अब अस्पृश्य उनकी रथ यात्रा में बाधा उत्पन्न नहीं करेंगे, जिससे रथ यात्रा समारोह बिना किसी बाधा के संपन्न होगा। उधर कुछ हिंदू नेताओं ने अस्पृश्यों को मनाने के लिए पांव पूजन, जनेऊ पहनाओ कार्यक्रम और अंतरजातीय विवाह और सहभोज का भी प्रस्ताव पास किया। लेकिन आंबेडकर ने इन कार्यक्रमों में कोई रूचि नहीं दिखलाई।
यहां यह उल्लेखनीय है कि उस समय सहभोज और अंतरजातीय विवाह कार्यक्रम का मदन मोहन मालवीय ने घोर विरोध किया था।
भारत में जाति व्यवस्था सभी धर्म में है। आंबेडकर का स्पष्ट विचारधारा की मुसलमान बनते ही हम एक-दो दिन में नवाब बनने वाले नहीं हैं, सिक्ख धर्म स्वीकार करने पर भी हम तुरंत सरदार बनने वाले नहीं हैं, और ईसाई बनने पर हम पाप नहीं बन जाएंगे। अर्थात हम किसी भी धर्म को अपनाए, हमें अपने स्वाभिमान और उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष करना ही होगा। आंबेडकर दृढ़निश्चयी थे, उन्होंने कहा:
"अब यदि हिन्दू अपने परमेश्वर को भी मेरे साथ खड़ा कर दें तो भी मैं हिंदू धर्म में नहीं रहूंगा। स्पृश्य हिंदू, अस्पृश्यों के लिए कुछ करें या ना करें परंतु यह तो यह तो निश्चित है कि अब मैं हिंदू धर्म का त्याग करूंगा।"