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MP: खंडवा में जंगल कटाई और अतिक्रमण के खिलाफ आदिवासियों का आंदोलन, कलेक्ट्रेट का किया घेराव!

भोपाल। मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के गुड़ीखेड़ा वन परिक्षेत्र में हो रही अंधाधुंध जंगल कटाई और बाहरी लोगों द्वारा की जा रही जमीन पर अवैध कब्जे के खिलाफ गुरुवार को आदिवासियों का आक्रोश एक बार फिर खुलकर सामने आया। ताल्याधड़, बोरखेड़ा, बोरखेड़ा रैय्यत, बामंदा, भिलाईखेड़ा, आड़ाखेड़ा, सरमेश्वर, ढाकना, झारीखेड़ा, सोमपुरा, गधड़िया, सुंदरदेव, सुहागी और सोहागीपुर जैसे लगभग 14 वनग्रामों से आए करीब 200 आदिवासियों ने कलेक्ट्रेट पहुंचकर जोरदार प्रदर्शन किया और कलेक्टर को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपा।

आदिवासी समाज के लोगों ने आरोप लगाया कि जंगलों की सुरक्षा के नाम पर सरकार की ओर से बनाई गई जांच कमेटी पूरी तरह अतिक्रमणकारियों के पक्ष में काम कर रही है, जो मूल निवासियों के अधिकारों का खुला उल्लंघन है। प्रदर्शनकारियों ने चेतावनी दी कि अगर जंगल और जमीन की लूट इसी तरह जारी रही, तो आने वाली पीढ़ियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।

प्रदर्शन कर रहे आदिवासी नेताओं ने बताया कि गुड़ीखेड़ा वन परिक्षेत्र में चार साल पहले बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई की गई थी। इसके बाद जंगल की खाली हुई जमीन पर बाहरी लोगों ने कब्जा कर लिया। अब वही लोग वनाधिकार कानून (Forest Rights Act) के तहत जमीन के पट्टे की मांग कर रहे हैं।

मूल आदिवासियों का कहना है कि वे पीढ़ियों से इन जंगलों में रह रहे हैं, जंगल ही उनका जीवन और पहचान है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की जांच समिति बाहरी अतिक्रमणकारियों की बात को सुन रही है, जबकि मूल निवासियों की आपत्ति को नजरअंदाज कर रही है।

वन विभाग के दावों पर उठाए सवाल

वन विभाग का कहना है कि गुड़ीखेड़ा क्षेत्र से अतिक्रमण पहले ही हटा दिया गया है। लेकिन आदिवासियों ने इन दावों को झूठा करार देते हुए कहा कि अतिक्रमणकारी फिर से जंगल में खेती-बाड़ी कर रहे हैं। आदिवासियों का आरोप है कि अब उन्हें ही जंगल में प्रवेश करने से रोका जा रहा है।

उनका कहना है कि उनके मवेशी जंगल में चरने जाते हैं तो उन्हें मारा-पीटा जाता है या मारकर फेंक दिया जाता है। लकड़ी लेने पर महिलाओं और युवाओं के साथ मारपीट की जाती है, जबकि परंपरागत रूप से यही जंगल उनका जीवन-निर्वाह का स्रोत रहा है।

बाहरी संगठन पर नाराजगी

आदिवासियों ने यह भी सवाल उठाया कि जब जिले में पहले से ही 17 वन समितियां वर्षों से काम कर रही हैं, तब दिल्ली से आए एक बाहरी संगठन को जंगलों की देखरेख की जिम्मेदारी क्यों दी गई? आदिवासी समाज का कहना है कि न तो उनसे सलाह ली गई और न ही कोई पूर्व सूचना दी गई।

उन्होंने कहा कि यह फैसला न केवल गैर लोकतांत्रिक है, बल्कि आदिवासियों के अधिकारों का सीधा हनन है। इस निर्णय से स्थानीय वन समितियों का मनोबल भी टूटा है, जो वर्षों से स्वैच्छिक रूप से जंगलों की रक्षा कर रही हैं।

प्रदर्शन के दौरान आदिवासी महिलाएं, युवा और बुजुर्ग पारंपरिक वेशभूषा में कलेक्ट्रेट पहुंचे और नारे लगाए। उन्होंने जंगलों को बचाने की सामूहिक शपथ ली और साफ कहा कि वे किसी भी कीमत पर जंगलों की बर्बादी नहीं होने देंगे। प्रदर्शनकारियों ने प्रशासन को आगाह किया कि यदि अतिक्रमण नहीं रोका गया और बाहरी लोगों को पट्टे दिए गए, तो वे उग्र आंदोलन करेंगे।

क्या है मांगें?

  • अतिक्रमणकारियों के पट्टे संबंधी दावों की जांच निष्पक्ष समिति से कराई जाए।

  • बाहरी संगठनों की बजाय स्थानीय वन समितियों को ही जंगलों की देखरेख की जिम्मेदारी मिले।

  • वन ग्रामों के निवासियों को जंगल में प्रवेश, पशु चराने और लकड़ी लाने की स्वतंत्रता दी जाए।

  • जंगलों की कटाई और बोवनी रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं।

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