Dalit History Month: जातिवाद को आईना दिखाती बॉलीवुड की वो दमदार फिल्में जो आपको देखनी चाहिए!

01:30 PM Apr 13, 2025 | Geetha Sunil Pillai

बहुजन समुदाय द्वारा अप्रैल का महीना दलित इतिहास माह के रूप में मनाया जाता है, हम उस समुदाय के बलिदान, संघर्ष और अटूट साहस को सलाम करते हैं, जिसने सदियों से जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ जंग लड़ी है। यह समय है उनके बलिदान, योगदान और प्रेरक कहानियों को याद करने का।

सिनेमा समाज का आईना है, और समाज में होने वाली हलचल फिल्मकारों को प्रभावित करती है। दोनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। इस दलित इतिहास माह में, आइए जानते हैं उन हिंदी फिल्मों के बारे में, जो जातिवाद और इसके खिलाफ संघर्ष को उजागर करती हैं। ये फिल्में न केवल विचारोत्तेजक हैं, बल्कि हमें समानता और न्याय की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करती हैं।

अछूत कन्या (1936)


हिमांशु राय द्वारा निर्देशित और बॉम्बे टॉकीज द्वारा निर्मित 'अछूत कन्या' भारतीय सिनेमा की पहली उन फिल्मों में से है, जिन्होंने जातिवाद पर खुलकर बात की। देविका रानी और अशोक कुमार अभिनीत यह फिल्म एक ब्राह्मण लड़के, प्रताप, और एक दलित लड़की, कस्तूरी, की प्रेम कहानी है। दोनों पड़ोसी हैं और बचपन से एक-दूसरे को पसंद करते हैं, लेकिन जैसे ही उनका रिश्ता प्रेम में बदलता है, सामाजिक भेदभाव और परिवारों का विरोध सामने आता है।

फिल्म का अंत दुखद है, जो उस समय की कठोर वास्तविकता को दर्शाता है। 'अछूत कन्या' ने 1930 के दशक में जातिगत रूढ़ियों पर सवाल उठाया और प्रेम को सामाजिक बंधनों से ऊपर रखने की कोशिश की। यह फिल्म अपनी सादगी और संदेश के लिए आज भी याद की जाती है। दलित इतिहास माह में इसे देखना हमें उस दौर की सामाजिक सोच को समझने में मदद करता है।

यह फिल्म भारत में अस्पृश्यता की प्रथा की आलोचना करती है।

सुजाता (1959)


बिमल रॉय की 'सुजाता' एक संवेदनशील और भावनात्मक कहानी है, जो जातिवाद के मानवीय पहलुओं को छूती है। नूतन और सुनील दत्त अभिनीत इस फिल्म में सुजाता एक दलित लड़की है, जिसे एक ब्राह्मण परिवार गोद लेता है। उसे प्यार और सम्मान तो मिलता है, लेकिन परिवार और समाज उसे पूरी तरह स्वीकार नहीं करता। जब सुजाता को एक शिक्षित ब्राह्मण युवक, अधीर से प्यार हो जाता है, तो उसकी जाति रिश्ते में बाधा बनती है।

यह एक ऐसी मां की भावनात्मक संघर्ष की कहानी भी है जो अपनी गोद ली हुई बेटी को पूरी तरह से स्वीकार करने में संघर्ष करती है। फिल्म में महात्मा गांधी की अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई और हिंदू धर्म में चंडालिका के मिथक को इसके उप-पाठ के रूप में दिखाया गया है, जिसके आधार पर यह भारत में अस्पृश्यता की प्रथा की आलोचना करने की कोशिश करती है ।

फिल्म जातिगत भेदभाव के साथ-साथ परिवार, प्रेम और स्वीकार्यता जैसे विषयों को खूबसूरती से पेश करती है। नूतन का अभिनय और बिमल रॉय का निर्देशन इस फिल्म को कालजयी बनाता है। यह फिल्म हमें यह सवाल करने पर मजबूर करती है कि क्या प्यार और मानवता जाति की दीवारों को तोड़ सकते हैं।

फिल्म सामंती व्यवस्था, जातिगत भेदभाव और लैंगिक शोषण को बिना किसी लाग-लपेट के दिखाती है।

अंकुर (1974)


श्याम बेनेगल की 'अंकुर' भारतीय समानांतर सिनेमा की एक मील का पत्थर है। कथानक एक सच्ची घटना पर आधारित है जो हैदराबाद में जाहिर तौर पर 1950 के दशक में घटित हुई थी। शबाना आजमी और अनंत नाग अभिनीत यह फिल्म ग्रामीण भारत में जाति और वर्ग के शोषण को उजागर करती है। कहानी एक जमींदार के बेटे, सूर्या, के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने पिता की जागीर संभालने गांव आता है। वहां वह एक दलित महिला, लक्ष्मी, और उसके पति, किशन, से मिलता है। सूर्या का लक्ष्मी के प्रति आकर्षण और उसका शोषण कहानी को गहराई देता है। किशन, जो मूक और शराबी है, सामाजिक और आर्थिक दबाव का शिकार है। फिल्म सामंती व्यवस्था, जातिगत भेदभाव और लैंगिक शोषण को बिना किसी लाग-लपेट के दिखाती है। 'अंकुर' ने शबाना आजमी को राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया और यह फिल्म आज भी सामाजिक सिनेमा की एक मिसाल है।

फिल्म न केवल जातिवाद, बल्कि ग्रामीण भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और सामाजिक अन्याय को भी उजागर करती है। इसका कच्चा और यथार्थवादी चित्रण दर्शकों को झकझोर देता है।

बैंडिट क्वीन (1994)


शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' फूलन देवी के जीवन पर आधारित एक सशक्त और विवादास्पद फिल्म है। सीमा बिस्वास ने फूलन का किरदार इतनी गहराई से निभाया कि यह किरदार अमर हो गया। फूलन एक निम्न जाति की महिला है, जो बचपन से ही जातिगत और लैंगिक शोषण का शिकार बनती है। एक सामूहिक बलात्कार के बाद वह डकैत बन जाती है और अपने उत्पीड़कों से बदला लेती है।

फिल्म न केवल जातिवाद, बल्कि ग्रामीण भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और सामाजिक अन्याय को भी उजागर करती है। इसका कच्चा और यथार्थवादी चित्रण दर्शकों को झकझोर देता है। 'बैंडिट क्वीन' को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली। इस फिल्म ने उस वर्ष हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार , सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन जीता। फिल्म का प्रीमियर 1994 के कान फिल्म महोत्सव के निर्देशकों के पखवाड़े खंड में हुआ था, और एडिनबर्ग फिल्म महोत्सव में इसकी स्क्रीनिंग की गई थी। फिल्म को 67 वें अकादमी पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए भारतीय प्रविष्टि के रूप में चुना गया था, यह फिल्म दलित इतिहास माह में प्रतिरोध और साहस की भावना को दर्शाती है।

फिल्म आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों दोनों के दृष्टिकोण को पेश करती है, जिससे यह एक जटिल और संतुलित कहानी बनती है।

आरक्षण (2011)


प्रकाश झा की 'आरक्षण' जाति आधारित आरक्षण नीति पर एक विचारोत्तेजक फिल्म है। अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण और प्रतीक बब्बर अभिनीत यह फिल्म शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के मुद्दे को उठाती है। कहानी एक आदर्शवादी प्रोफेसर प्रभाकर आनंद (अमिताभ), के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक कॉलेज का नेतृत्व करता है और आरक्षण के पक्ष में खड़ा है। लेकिन इस नीति के कारण समाज में तनाव और विरोध बढ़ता है।

फिल्म आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों दोनों के दृष्टिकोण को पेश करती है, जिससे यह एक जटिल और संतुलित कहानी बनती है। यह जातिगत भेदभाव के ऐतिहासिक संदर्भ और इसके आधुनिक प्रभावों को समझने में मदद करती है। 'आरक्षण' दर्शकों को इस नीति के सामाजिक और नैतिक आयामों पर सोचने के लिए प्रेरित करती है।

फिल्म जातिगत भेदभाव के सूक्ष्म लेकिन गहरे प्रभावों को दिखाती है और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को सामाजिक दबावों के साथ जोड़ती है।

मसान (2015)


नीरज घायवान की 'मसान' एक ऐसी फिल्म है, जो बनारस की पृष्ठभूमि में जाति, प्रेम और सामाजिक बंधनों की कहानी कहती है। रिचा चड्ढा और विक्की कौशल अभिनीत यह फिल्म दो समानांतर कहानियों को जोड़ती है। एक कहानी दीपक (विक्की कौशल) की है, जो एक दलित समुदाय से है जो श्मशान घाट पर काम करता है और एक ऊंची जाति की लड़की, शालू, से प्रेम करता है। अपनी जाति के कारण उसे समाज में कई चुनौतियों का सामना करता है और उसे प्रेम और सम्मान के लिए संघर्ष करना पड़ता है. उनकी प्रेम कहानी सामाजिक रूढ़ियों और परिवार के विरोध का शिकार बनती है। दूसरी कहानी एक महिला, देवी (रिचा चड्ढा), की है, जो सामाजिक नियमों को तोड़ने के लिए संघर्ष करती है। फिल्म जातिगत भेदभाव के सूक्ष्म लेकिन गहरे प्रभावों को दिखाती है और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को सामाजिक दबावों के साथ जोड़ती है। 'मसान' को कान्स फिल्म फेस्टिवल में सराहना मिली और यह दलित इतिहास माह में एक जरूरी फिल्म है।

फिल्म का नाम भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 के नाम पर रखा गया है , जो धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है।

आर्टिकल 15 (2019)


अनुभव सिन्हा की 'आर्टिकल 15' एक पुलिस ड्रामा है, जो उत्तर प्रदेश के बदायूं मामले से प्रेरित है। फिल्म का नाम भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 के नाम पर रखा गया है , जो धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है। आयुष्मान खुराना एक ब्राह्मण आईपीएस अधिकारी, अयान रंजन, की भूमिका में हैं, जो एक छोटे से गांव में तैनात होता है। वहां उसे दो दलित लड़कियों के बलात्कार और हत्या का मामला सुलझाना होता है। जांच के दौरान वह ग्रामीण भारत में गहरे बैठे जातिगत भेदभाव, पुलिस भ्रष्टाचार और सामाजिक असमानता का सामना करता है।

फिल्म संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लेख करती है, जो भेदभाव के खिलाफ समानता की गारंटी देता है। इसका कठोर यथार्थवाद और शक्तिशाली संवाद इसे एक प्रभावशाली फिल्म बनाते हैं। 'आर्टिकल 15' दलित इतिहास माह में इसलिए जरूरी है, क्योंकि यह हमें आज के भारत में जातिगत हिंसा की सच्चाई से रूबरू कराती है।

शरवरी ने वेदा का किरदार निभाया है, जो एक दलित लड़की है और अपने समुदाय के खिलाफ हो रहे अन्याय और हिंसा का सामना करती है।

वेदा (2024)


 निखिल आडवाणी द्वारा निर्देशित और असीम अरोड़ा द्वारा लिखित 'वेदा' एक हालिया एक्शन-ड्रामा फिल्म है, जिसमें जॉन अब्राहम और शरवरी वाघ मुख्य भूमिकाओं में हैं। शरवरी ने वेदा का किरदार निभाया है, जो एक दलित लड़की है और अपने समुदाय के खिलाफ हो रहे अन्याय और हिंसा का सामना करती है। वह एक सशक्त योद्धा बनकर उभरती है और अपने लोगों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ती है। जॉन अब्राहम उसके मेंटर की भूमिका में हैं, जो उसे इस संघर्ष में मार्गदर्शन देता है। फिल्म में एक्शन और भावनाओं का बेहतरीन मिश्रण है, जो जातिवाद के साथ-साथ सामाजिक सशक्तिकरण और प्रतिरोध को दर्शाता है। 'वेदा' की कहानी और शरवरी का दमदार अभिनय इसे दलित इतिहास माह के लिए एक प्रेरक फिल्म बनाता है।

सिनेमा न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि सामाजिक जागरूकता और बदलाव का एक शक्तिशाली हथियार भी है। 'अछूत कन्या' से लेकर 'वेदा' तक, ये फिल्में हमें जातिवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई और उसमें शामिल साहस की कहानियां सुनाती हैं। ये हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम वाकई एक समावेशी समाज की ओर बढ़ रहे हैं। इस महीने इन फिल्मों को देखें, इनके संदेश को समझें और दूसरों को भी प्रेरित करें।