तिरहुत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से बिहार विधान परिषद के उप चुनाव में बंशीधर ब्रजवासी की जीत ने सबको चौंकाया है। उत्तर बिहार के जिन चार जिलों वैशाली-मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी-शिवहर को लेकर तिरहुत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र का गठन हुआ है,उसे अपर कास्ट यानी सवर्ण जातियों के दबदबे वाला क्षेत्र कहा जाता है।
इन चारों जिलों के नाम से गठित चार संसदीय क्षेत्र भी हैं जिनमें से तीन पर सवर्ण बिरादरी का कब्जा है। वैशाली से वीणा देवी और शिवहर से लवली आनंद सांसद हैं। दोनों राजपूत बिरादरी से हैं। जबकि सीतामढ़ी के सांसद देवेशचंद्र ठाकुर ब्राह्मण हैं। केवल मुजफ्फरपुर के सांसद अतिपिछड़ा समुदाय की मल्लाह जाति से आते हैं।
लेकिन ये चारों सांसद सत्ताधारी पार्टियों की नुमाइंदगी करते हैं। वीणा देवी लोजपा-आर, लवली आनंद जेडीयू, देवेशचंद्र ठाकुर जेडीयू और डा राजभूषण चौधरी निषाद भाजपा के सांसद हैं। इस लिहाज से निर्दलीय प्रत्याशी ब्रजभूषण ब्रजवासी की जीत सत्ताधारी गठबंधन एनडीए और सत्ता समर्थक जाति समूह यानी अपर कास्ट के दबदबे की भी हार कही जा रही है।
ब्रजवासी तिरहुत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र पर जीत का झंडा लहराने वाले पहले गैर सवर्ण उम्मीदवार हैं। उनसे पहले इस क्षेत्र से ब्राह्मण और भूमिहार जाति के उम्मीदवार जीतते रहे हैं। यह सीट देवेशचंद्र ठाकुर के सीतामढ़ी का सांसद चुने जाने के कारण खाली हुई थी। ठाकुर से पहले भूमिहार जाति से आनेवाले रामकुमार सिंह इस क्षेत्र की नुमाइंदगी करते थे।
धनबल की हार, जनता की जीत
यह सीट धन-बल से मजबूत दो जातियों के कब्जे में थी। ऐसे में ब्रजवासी की जीत धन-बल पर जन-बल की जीत के रूप में भी देखी जा रही है। ब्रजवासी की जीत से धन-बल,सत्ता-बल और सवर्ण वर्चस्वादी मन को गहरा सदमा लगा है। सदमे की वजह भी है।
वह यह कि ब्रजवासी ने सत्ता और पैसे की ताकत ही नही बल्कि अपर कास्ट की चालकी-चालबाजी को भी मात दी है। यह सदमे का ही असर है कि शिवहर की सांसद के पति और शिवहर के विधायक के पिता आनंद मोहन इस चुनावी हार को 'अहंकार की हार' बता रहे हैं। यही बात साहेबगंज के विधायक राजू सिंह भी कह रहे हैं। आनंद मोहन ने तो यह भी कहा कि राजपूत किसी का गुलाम नहीं है।
इस क्षेत्र से राजपूत जाति के दो सांसद और पांच विधायक हैं। लेकिन जेडीयू प्रत्याशी ने अभिषेक झा ने उन लोगों से बातचीत नहीं की। सहयोग समर्थन नहीं मांगा। राजू सिंह ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए कहा, एनडीए के प्रत्याशी ने तो उनके फोन का जवाब तक नहीं दिया। आनंदमोहन और राजू सिंह की इस तीखी प्रतिक्रिया को अपने बचाव और बौखलाहट में की गयी प्रतिक्रिया के रूट में देखा जा रहा है। क्योंकि सवाल उनसे भी पूछा जा रहा है कि इस चुनाव में आप क्या कर रहे थे।
इस क्षेत्र के दो संसदीय और पांच विधानसभा क्षेत्रों पर काबिज राजपूत बिरादरी के नेता क्या कर रहे थे। क्या उनके 'गेम' ने जेडीयू के ब्राह्मण उम्मीदवार का खेल खराब कर दिया। जेडीयू उम्मीदवार अभिषेक झा ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एनडीए गठबंधन के दिग्गज नेताओं की दगाबाजी पर खुलकर लिखा है। तभी तो सोशल मीडिया न्यूज वेबसाइटों और यूट्यूब न्यूज चैनलों में यह खबर चली कि राजपूत, ब्राह्मण और भूमिहार अपनी-अपनी जाति के उम्मीदवार को जिताने में लग गये। उनकी आपसी लड़ाई में ब्रजवासी ने बाजी मारी ली।
यही वजह है कि ब्रजवासी की जीत को बाघ के मुंह से छीन कर लाया गया निवाला के तौर पर भी देखा जा रहा है। लिहाजा इस सीट पर कब्जा बनाये रखना। जीत का सिलसिला कायम रखना ब्रजवासी के लिए बड़ी चुनौती होगी। उन्हें याद रखना होगा कि वे महज डेढ़ - दो साल के बचे हुए कार्यकाल के लिए इस क्षेत्र से चुने गये हैं। बहुत जल्द उनको नये चुनाव का सामना करना होगा।
अगले चुनाव तक अपने मतदाताओं के जोश और जुनून को जगाये रखना आसान नहीं होगा। क्योंकि उनका मुकाबला उन मायावी ताकतों से हर रोज होगा जो हार कर भी हार मानने को तैयार नहीं होती है। ये ताकतें सदमे से उबरकर पलटवार करेंगी। ब्रजवासी को तय करना होगा कि वह अपना बचाव जन-बल से करेंगे या किसी चक्रव्यूह में फंसेंगे।
ब्रजवासी का संघर्ष
ब्रजवासी खुद शिक्षक और शिक्षक नेता रहे हैं। शिक्षकों की लड़ाई लड़ते हुए उन्होंने अपनी नौकरी गंवाई है। लेकिन शिक्षकों ने उन्हें 'रिटर्न गिफ्ट' दिया है। उनको विधान परिषद पहुंचा दिया है। ऊपरी सदन का सदस्य बना दिया है। कहा जा रहा है कि सरकार ने उनकी आवाज बंद कराने के लिए उनको नौकरी से निकाल बाहर किया। लेकिन वोटरों ने उनको सरकार की आंख में आंख डालकर बात करने के लिए विधान पार्षद बना दिया।
ब्रजवासी अपने वोटरों की भावनाओं से गहरे जुड़े हुए दिखते हैं। तभी तो अपने अभिनंदन समारोहों में वे इन बातों को प्रमुखता से रेखांकित करते सुने जा रहे हैं। एक अभिनंदन समारोह के दौरान ब्रजवासी ने कहा, 'यह जीत नहीं जिम्मेदारी है। वह शिक्षकों के लिए लड़ते रहे हैं। अब उनकी लड़ाई सड़क से सदन तक लड़ेंगे। उनकी गाड़ी में हमेशा दरी-चादर रखा होगा। जहां जरूरत होगी,वही बिछाकर धरना-प्रदर्शन शुरू कर देंगे। ब्रजवासी अच्छा गाते भी हैं और अच्छी शायरी भी करते हैं।
उन्होंने कहा, 'सीढियां उनको मुबारक जिन्हें महलों पे जाना हो। हमें आसमां तक जाना है और रास्ता खुद बनाना है।' जाहिर है , ब्रजवासी को अपना रास्ता खुद बनाना होगा। वह जनता की ताकत से चुनकर आये हैं। इसका अहसास उन्हें है। तभी तो वह कहते हैं। नौकरी से निकाले जाने के बाद तो परिवार चलाने का संकट खड़ा हो गया था। चुनाव लड़ने लिए पैसा कहां से आयेगा,यह सोचना भी मुश्किल था।
लेकिन शिक्षक साथियों ने हौसला बढ़ाया। शिक्षकों ने 11 रुपया से लेकर 11 हजार तक चंदा दिया। चंदा से 7 लाख रुपया आया। उसमें से डेढ़ लाख बच भी गया। शिक्षकों ने वोट भी दिया और खर्च भी उठाया। उनका मुकाबला करोड़पति उम्मीदवारों से था। लिहाजा उनका जोर पैसे पर नहीं बल्कि वोटर तैयार करने और वोट गिरवाने पर था। पैसा बस जरूरत भर चाहिए था जिसका प्रबंध शिक्षक साथियों ने कर दिया।
शिक्षकों में जातिभेद
तब सवाल उठता है कि क्या ब्रजवासी को जीत आसानी से मिल गयी। क्या संपूर्ण शिक्षक समाज ने उनको एकतरफा वोट किया। समर्थन और सहयोग किया। ऐसा बिल्कुल नहीं है। शिक्षक नेता सुनील भगत कहते हैं, ब्रजवासी की जीत में शिक्षक वोटरों ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संपूर्ण शिक्षक समाज ने उनको एकतरफा वोट किया है। शिक्षक का एक हिस्सा इस चुनाव को जातिवादी चश्मे से देखा रहा था। उस हिस्से ने अपनी जाति और पार्टी के उम्मीदवारों को वोट किया।
लेकिन बहुजन समाज के शिक्षकों ने एकजुटता दिखाई और ब्रजवासी को एकतरफा वोट किया। अगर ऐसा नहीं होता तो राजद उम्मीदवार को चौथे नंबर पर नहीं रह जाते। इस चुनाव में अपर कास्ट का वोट राजपूत, भूमिहार और ब्राह्मण में बंट गया। लेकिन पिछड़ा,अतिपिछड़ा दलित और मुस्लिम वोटर बंटे नहीं बल्कि एकजुट होकर ब्रजवासी को वोट किया।
अपर कास्ट के वोटरों में डिवीजन कितना तीखा था। उसकी बानगी एक स्थानीय नेता की जुबानी सुनिए। ब्रजवासी जिस शिक्षक संगठन का नेतृत्व करते हैं,उस संगठन और उसके अलग अलग समूहों से जुड़े अपर कास्ट के शिक्षक नेता नामांकन के बाद किनारे हो गये। उनके सबसे विश्वस्त समझे जाने वाले एक शिक्षक बीमारी का बहाना बनाकर घर बैठ गये।
लेकिन वे घर बैठे-बैठे जेडीयू प्रत्याशी अभिषेक झा के पक्ष में काम कर रहे थे। उनके दूसरे शिक्षक साथी निर्दलीय प्रत्याशी राकेश रौशन के प्रचारक और सोशल मीडिया प्रभारी बन गये। हां, उनमें से एक सज्जन ब्रजवासी को बधाई देने में सबसे आगे रहे।
अब चुनाव से थोड़ा पीछे लौटते हैं। ब्रजवासी प्रखंड शिक्षक के रूप में अपने गृह प्रखंड मड़वन के रकसा पंचायत के एक स्कूल में पदस्थापित थे। परिवर्तनकारी शिक्षक संघ के नेता थे। यह संघ नियोजित शिक्षकों का सबसे मजबूत और प्रभावशाली संगठन माना जाता है। शिक्षा विभाग के तत्कालीन अपर मुख्य सचिव केके पाठक के तुगलकी फरमानों के खिलाफ लड़ाई लड़ी रहे ब्रजवासी के खिलाफ पिछले साल दो एफआईआर हुआ। उनकी गिरफ्तारी हुई। बाद में उनको सेवा से बरखास्त कर दिया गया। उनकी बरखास्तगी में सत्ताधारी नेताओं के संरक्षण में कुछ अफसरों ने तत्परता दिखाई। बरखास्त होने के बाद वे प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज से जुड़ गये।
दो अक्टूबर को जब जनसुराज का पटना में बड़ा जलसा हुआ तो पीके ने उनको माला पहनाकर जनसुराज का नेता घोषित कर दिया। लेकिन टिकट देने की बारी आयी तो ब्रजवासी की जाति आड़े आ गयी। उनके संघर्ष और शिक्षकों पर उनकी पकड़ को किनारे लगाकर पीके ने डा विनायक गौतम को जनसुराज का उम्मीदवार घोषित कर दिया। गौतम तिरहुत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से विधान पार्षद रहे रामकुमार सिंह के पुत्र और मुजफ्फरपुर से विधायक तथा मंत्री रहे दिवंगत रघुनाथ पांडे के नाती हैं।
लेकिन जनसुराज से मोहभंग होने पर भी ब्रजवासी के कदम रूके नहीं। उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ना तय किया। लेकिन दुश्वारियां कम नहीं थी। वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने के लिए जो अभियान चला , उसमें भी इनको पछाड़ने की कोशिश की गयी। बड़ी संख्या में फार्म रिजेक्ट किये गये या गायब किये गये। तब शिक्षकों ने आनलाइन फार्म भरना शुरू किया। यह तरीका ज्यादा कारगर रहा।
दूसरी ओर कुछेक उम्मीदवारों ने कमिश्नरी में 'सेटिंग' के जरिय न सिर्फ वोटरों के नाम जुड़वाये बल्कि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों के समर्थक समझे जाने वाले वोटरों के फार्म रिजेक्ट भी कराये। इतना कुछ करने के बाद भी वे ब्रजवासी को रोक नहीं पाये तो इसके पीछे बहुजन शिक्षकों की एकजुटता काम कर रही थी। ब्रजवासी कहते हैं, तिरहुत स्नातक क्षेत्र के 197 बूथों में से एक भी ऐसा बूथ नहीं था,जिसपर उनको बढ़त नहीं मिली। वे सभी बूथों पर जीते हैं।
अपनी जीत पर ब्रजवासी ने कहा, लड़ाई बोली की है। बोलने के कारण हमारी नौकरी गयी। लेकिन बोलने के कारण ही वोटरों ने मुझे एम एल सी बना दिया। मैं बोलना और लड़ना बंद नहीं करूंगा। राजनीतिक प्रतिबद्धता को लेकर पूछे जा रहे सवालों पर भी ब्रजवासी खुलकर बोलते हैं। कहते हैं, आप ही कोई ऐसी पार्टी बता दीजिए जो मुझे झेल ले। इसके साथ ही वह सरकार विरोधी अपने तेवर का भी इजहार करते हैं। कहते हैं, वोटरों ने नीतीश की लंका में आग लगाने के लिए मुझे चुना है। उनकी जीत पर दिल्ली में हाल में हुई सत्ताधारी पार्टी के सांसद के घर भोज में चली चर्चा का भी जिक्र करते हुए कहते हैं। मेरी जीत पर बहुतों को अचरज हो रहा है।
करीब चालीस साल का राजनीतिक अनुभव रखने वाले एक बड़े नेता ने उनसे फोन पर बात की और कहा, मुझे आपमें दूसरा कर्पूरी ठाकुर दिखाई दे रहे हैं। लेकिन ब्रजवासी को समझना होगा कि कर्पूरी ठाकुर ने हर वक्त जनता की ताकत पर भरोसा किया। इसीलिए सबसे कमजोर जाति समझी जाने वाली हज्जाम जाति के घर से निकले कर्पूरी ठाकुर भी जननयाक कहलाये।
ब्रजवासी की जीत 'सामाजिक न्याय' की पैरोकार पार्टी और उसके नेताओं के लिए भी बड़ी सीख है। उन्हें जनता की नब्ज पहचानने और नेताओं को परखने की नयी तरकीब विकसित करनी होगी। वरना लकीर पीटने से कुछ हासिल नहीं होगा। ब्रजवासी की जीत पर सांसद देवेशचंद्र ठाकुर,विधायक राजू सिंह और पराजित प्रत्याशी अभिषेक झा तक को बधाई देते सुना गया। लेकिन 'सामाजिक न्याय' खेमे के किसी बड़े नेता ने ब्रजवासी को बधाई दी,ऐसा कहीं दिखा नहीं.
सामाजिक न्याय की जीत
ब्रजवासी ने इस चुनाव में कई मिथकों को ध्वस्त किया है। इस क्षेत्र से पहली बार किसी गैर सवर्ण बिरादरी के उम्मीदवार को जीत मिली है। पहले भूमिहार और बाद में ब्राह्मण इस क्षेत्र से जीतते रहे थे। ब्रजवासी अतिपिछड़ा समुदाय की मल्लाह जाति से आते हैं। उन्होंने स्थापित पार्टियों के उम्मीदवारों को हराया है।
संयोग देखिए, जेडीयू,राजद और जनसुराज के उम्मीदवारों की पीठ पर न सिर्फ पार्टी बल्कि परिवार का भी बल था। दूसरे नंबर पर रहे जनसुराज के डा विनायक गौतम के पिता रामकुमार सिंह बिहार विधान परिषद में इसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे। विनायक के नाना रघुनाथ पांडे मुजफ्फरपुर के विधायक और बिहार सरकार में मंत्री हुआ करते थे। चर्चित बिजनेस मैन अमर पांडे उनके मामा हैं।
तीसरे नंबर पर रहे राजद के प्रो गोपी किशन के पिता केदार गुप्ता विधायक थे। जबकि चौथे नंबर रह गये अभिषेक झा को सीतामढ़ी के सांसद देवेशचंद्र ठाकुर का वरदहस्त प्राप्त था। यह सीट ठाकुर के सांसद चुने जाने की वजह से खाली हुई थी। कहा जाता है कि अभिषेक को ठाकुर ने ही जेडीयू का उम्मीदवार बनवाया था। वे उनके लिए प्रचार करने भी निकले थे। ले उनका प्रचार काम नहीं आया। अभिषेक चौथे नंबर पर रहे गये।
ब्रजवासी ने एक और बड़ा मिथक तोड़ा है। वह यह कि चुनाव और खासकर एम एल सी का चुनाव सिर्फ पैसे से जीता जाता है,इसे ब्रजवासी ने गलत साबित किया है। यह इसलिए संभव हुआ है क्योंकि उन्होंने शिक्षकों की लड़ाई लड़ी। हर वक्त शिक्षक हित में डटे रहे। इसके लिए अपनी नौकरी भी गंवाई। लेकिन पीछे नहीं हटे।
शिक्षक समाज चार जिलों - शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर और वैशाली को लेकर बने तिरहुत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में सबसे बड़ा मतदाता समूह है,उसके बड़े हिस्से ने ब्रजवासी को वोट दिया। इसमें बहुजन समाज के शिक्षकों ने बड़ी भूमिका निभाई है। ब्रजवासी की जीत इस बात को भी रेखांकित करती है कि जब बहुजन समाज के लोगों की तादाद उच्च उच्च शिक्षा में बढ़ी तो उसने 'संभ्रांत घरानों' (इलिट क्लास) के लिए आरक्षित समझी जाने वाली विधान परिषद के स्नातक निर्वाचन क्षेत्र पर भी कब्जा जमा लिया.
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