जनकवि नागार्जुन की कही एक बात फिट पीके पर फिट बैठती है!
जेपी की संपूर्ण क्रांति से मोहभंग होने के बाद जनकवि नागार्जुन ने एक साक्षात्कार में कहा था..
"जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण नहीं समझ पाया। 'संपूर्ण क्रांति' की असलियत मैंने जेल में समझी। सीवान, छपरा और बक्सर की जेलों में 'संपूर्ण क्रांति' के जो कार्यकर्ता थे, उनमें अस्सी प्रतिशत जनसंघी और विद्यार्थी परिषद वाले थे। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दाल में नमक के बराबर थे और भालोद के कार्यकर्ता दाल में तैरते हुए जीरे के बराबर! औद्योगिक और खेत-मजदूर न के बराबर थे। हरिजन भी इक्के-दुक्के ही थे। यह सब देखकर मैं समझ गया कि यह आंदोलन किन लोगों का था।"
पीके उर्फ प्रशांत किशोर जेल के मुहाने से लौट गये. कोर्ट ने जिसे जेल भेजा, बेऊर जेल प्रशासन ने उसे रखने से मना कर दिया। ऐसा पहले कभी हुआ है, मुझे नहीं पता. पीके धरना, प्रदर्शन और किसी किस्म के आंदोलन के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र गांधी मैदान में गांधी मूर्ति के नीचे आमरण अनशन पर बैठे थे।
वहां भी उन्हें बैठने से किसी ने नहीं रोका था। इस किस्म का सौभाग्य किसी दूसरे आंदोलनकारी को मिलते किसे ने देखा-सुना हो तो बताये। प्रशासन ने ऐसी दरियादिली किसी और के साथ दिखाई हो! कोई यह भी बताये। जेल के मुहाने से लौटने के बाद पीके ने मीडिया के सामने ऐलान किया। मैंने अपना अनशन खत्म नहीं किया है। अभी भी अनशन पर हूं। सिर्फ पानी पी रहा हूं। मेरा अनशन जारी था! जारी है! जारी रहेगा! अब फैसला गांधी मैदान में ही होगा।
पीके का अंदाज और मिजाज बता रहा था कि उनमें नयी ऊर्जा भर गयी है। वह फिर से लड़ने को तैयार हैं। बस इंतजार इस बात का है कि युवा संघर्ष समिति की संचालन समिति अनशन की नयी तारीख और स्थान के बारे क्या फैसला लेती है।
एक नयी बात पीके के मुंह से सुनी। उन्होंने बीपीएससी के मुद्दे पर भाकपा-माले की तारीफ की। कहा कि, माले से मेरी असहमतियों के बावजूद मैं उसकी तारीफ करता हूं। माले सड़क पर उतरा। मजबूती से लड़ाई लड़ी। लेकिन निर्लज्ज भाजपाई सत्ता की मलाई खा रहे हैं। जुबान नहीं खोल रहे हैं।
पीके माले की प्रशंसा और भाजपा की निंदा शायद इस वजह से कर रहे हैं कि उनपर भाजपा की बी टीम होने का आरोप चस्पा है। पीके ने तेजस्वी और राहुल को चुनौती दी कि वे आंदोलन की अगुवाई करें। जनसुराज और पीके उनके पीछे-पीछे चलेगा। महज दस दिन पहले तक 'आंदोलनों से दुनिया में कुछ नहीं बदला है' कहने वाले पीके अब आंदोलन के लिए समर्थन मांग रहे हैं। तो समझा जा सकता है कि उन्हें आंदोलन की ताकत का एहसास हो गया है।
अब तक बिहार की सैर करने और जनता को उपदेश देने वाले पीके को मजा आ रहा है! बेरोजगारी,शिक्षा की बदहाली, परीक्षा आयोगों में भ्रष्टाचार पर कारगर आंदोलन खड़ा न कर पाने वाले राजद और कांग्रेस को समझ लेना चाहिए कि इन सवालों पर केवल बात करने से कुछ नहीं होगा। बड़ा जनांदोलन खड़ा करना होगा!
पीके जेल जाने से बच कैसे गये, इस पर भी मंथन हो रहा है। चर्चा है कि कहीं सरकार और प्रशासन के भीतर से पीके को मदद तो नहीं मिल रही है। पूरे घटनाक्रम से इस चर्चा को बल भी मिल रहा है। इस चर्चा से संभावित लाभ-हानि का अंदाजा पीके के खेमे को भी होगा ही। तभी तो पीके ने अपनी गिरफ्तारी से लेकर जेल के मुहाने से वापसी का विस्तार से बखान किया। कोर्ट, अस्पताल, जेल प्रशासन और कुछ पुलिस अफसरों की तारीफ की। उनका धन्यवाद किया।
नाम का उल्लेख किये बिना कुछ पुलिस अफसरों को सरकार बदलने पर 'सबक सिखाने' की धमकी भी दी। पीके के साथ उनके एक जनसुराजी वकील भी बैठे थे जो पीके के जेल न जाने के पीछे की कानूनी बारिकियां/ खामियां समझा रहे थे। बताया गया कि पुलिस के पास पीके को जेल में डालने के लिए पर्याप्त कागजात ही नहीं थे। इसीलिए जेल प्रशासन ने उन्हें जेल में रखने से मना कर दिया। यह तो हद हो गयी! अगर कागजात कहीं छूट गये थे, तो पुलिस मंगवा लेती! यह कौन-सी बड़ी बात थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ! तो हुआ क्या?
हुआ यह कि पीके इधर जेल के मुहाने पर खड़े थे। उधर पटना सिविल कोर्ट में उनकी गिरफ्तारी का आदेश देने वाली जज साहिबा आरती उपाध्याय की कोर्ट में गिरफ्तारी आदेश पर पुनर्विचार हो रहा था। इसका बखान पीके के वकील कुमार अमित मीडिया के सामने कर रहे थे। कह रहे थे, जैसे ही मुझे पीके की गिरफ्तारी की जानकारी हुई। मैं हाइकोर्ट से सिविल कोर्ट पहुंचा। मुझे लगा कि जज साहिबा से मामले को समझने भूल हुई है।
उन्हें बताया गया कि पुलिस ने जिस जुर्म में पीके को गिरफ्तार किया है,उसमें तो थाने से ही बेल का प्रावधान है। गांधी मैदान में शांतिपूर्ण अनशन करना कोई जुर्म नहीं है। जज साहिबा ने हमारी बात मान ली। अपना आदेश पलट दिया। पीके पीआर बांड भरकर जेल के मुहाने से लौट गये। पहले जज साहिबा ने सशर्त जमानत दी। जिसमें कहा गया था कि वह भविष्य में ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे कानून-व्यवस्था भंग हो। लेकिन पीके ने सशर्त जमानत से इंकार किया था।
कहा था कि वह जेल जायेंगे, लेकिन सशर्त जमानत नहीं लेंगे! उसके बाद की कथा पीके के जुबान से सुनिए, ' मुझे चार -पांच घंटे तक एंबुलेंस में पटना की सड़कों पर घुमाया गया। पहले एम्स फिर फतुहा पीएचसी ले जाया गया। लेकिन दोनों जगहों पर डाक्टरों ने मेरा मेडिकल जांच करने से मना कर दिया। क्योंकि ऐसा करवाने के लिए पुलिस के पास पेपर नहीं थे। एम्स और पीएचस डाक्टरों पर प्रशासन का दबाव था। लेकिन वह नहीं झुके।
एम्स के डाक्टर ने तो कहा,सर! मैं भी जनसुराजी हूं। पीएचसी के डाक्टर ने भी उनके आंदोलन का समर्थन किया। साथ चल रहे एक पुलिस वाले ने उन्हें अपना जैकेट पहना दिया। कहा,सर! आप बच्चों के भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम आपके साथ हैं।
पीके जब मीडिया से मुखातिब थे,तब उनकी पार्टी के अध्यक्ष मनोज भारती कोने में दुबके थे। उन्हें कुर्सी भी मुश्किल से मिली। पहले तो भीड़ के बीच से रास्ता बनाने में दिक्कत हुई। ठेलते - ठेलाते पीके की पीठ तक पहुंचे। किसी ने कहां अध्यक्ष जी को जगह दीजिए। लेकिन कोई कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं था। पीके ने पीछे मुड़कर देखा फिर कुर्सी देने का इशारा किया। पीछे से किसी ने कुर्सी बढ़ाई। लेकिन कुर्सी लगाने के लिए जगह थी नहीं।
कोई नेता पीके से दूर हटना नहीं चाह रहा था। सब सटा रहना चाह रहा था। लिहाजा पीके के शब्दों में 'दलित और विद्वान' अध्यक्ष मनोज भारती को किनारे में जगह मिली। इतनी दूर की कैमरे के फ्रेम से भी बाहर चले गये। अपनी बात खत्म कर चलते-चलते पीके ने जब अपने नेताओं के नाम का उल्लेख किया तो मनोज भारती पर कैमरे ने नजर डाली! पता नहीं बहुत सारे सवालों से घिरे पीके का 'दलित प्रेम' भी मौके से मौके सवालों में घिर जा रहा है।
पीके जहां से ताकत हासिल कर रहे हैं या जो सामाजिक समूह पीके की पीठ पर खड़ा है। वह साफ तौर पर प्रो-भाजपा और एंटी-राजद है। पीके आर एस एस और भाजपा के 'हिंदू राष्ट्र' के संविधान विरोधी एजेंडे, नफरत, घृणा, विभाजन की सांप्रदायिक राजनीति पर मौन हैं। लेकिन सामाजिक न्याय के मुद्दे का माखौल उड़ाते हैं। जाति जनगणना, आरक्षण पर कोई बात नहीं करते हैं। जनकवि नागार्जुन की कही एक बात फिट पीके पर फिट बैठती है!
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