राजनीति का स्तर हाल में बद से बदतर हुआ है। राजनेता धार्मिक गुरु बन बैठे हैं और धार्मिक गुरु राजनेता बन बैठे हैं। इस बीच जनता के मौलिक सवाल—रोज़ी, रोटी, मकान और रसोई के सामान—गायब हो चुके हैं।
जनमुद्दों का गायब होना
एक रिपोर्ट कहती है कि मौजूदा दौर में देश गुलाम भारत से भी गर्त में है। अमीर और गरीब के बीच इतनी खाई कभी न थी। जो लोग देश या राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें ‘कटेंगे तो बटेंगे’ जैसे नारों से या फिलिस्तीन के बैग टांगने से बचना चाहिए।
बीजेपी का स्तर जनमुद्दों से दूर जाते हुए कई गुना गिरा है। इसलिए बैसाख नंदनों से भरी पार्टी ने खुद को बैसाखी पर ला खड़ा किया है। पर बीजेपी की मजबूरी समझ में आती है। धर्म के फोम पर क्रोनी कैपिटलिज्म को somersault करवा रहा है।
कांग्रेस और संविधान
कांग्रेस ने संविधान को पकड़ा है—पकड़े रहे। पर उसे मोदी या योगी को हिंदू का प्रतिनिधि नहीं मान लेना चाहिए। कांग्रेस को खुद भी हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई—सभी का प्रतिनिधित्व करना होगा।
वे संविधान लेकर इन सभी जगहों पर जा सकते हैं। संविधान खुद मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर के खिलाफ नहीं है (अनुच्छेद 25-28)।
हेमंत सोरेन: अस्मिता और लोक कल्याण का संतुलन
अगर कांग्रेस इंदिरा की गले में लटकती रुद्राक्ष को भूल गई हो, तो उन्हें झारखंड में अपने सहयोगी श्री हेमंत सोरेन से सीखना चाहिए। सरना धर्म कोड के शोर के बीच वे देवघर और उज्जैन हो आए।
हेमंत सोरेन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हिंदू धर्म किसी की जागीर नहीं है, बल्कि इसका पताका उस आम जनता ने थाम रखा है, जो रोज़ी-रोटी और रोजगार के लिए जूझ रही है।
हेमंत का लोककल्याणकारी मॉडल
OPS, मईयां योजना, CM एक्सीलेंस मॉडल स्कूल, मुख्यमंत्री सर्वजन पेंशन योजना, निजी क्षेत्र में 75% स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण—जैसी योजनाओं को लागू कर उन्होंने झारखंड को एक लोक कल्याणकारी राज्य के तौर पर स्थापित किया।
चुनावी मैदान और संवैधानिक उत्तरदायित्वों का फ़र्क
धर्म और धर्म से जुड़ी आस्था के खिलाफ राजनेता को नहीं लड़ना चाहिए—ये हेमंत जानते हैं। अगर आप पॉकेट लीडर नहीं हैं, जननायक हैं, तो सभी को सम्मान करना होगा और तरक्की की इबारत योजनाओं के मार्फत लिखनी होगी।
क्षेत्रीय भाषाई आंदोलनों के बीच भी उन्होंने राज्य की राज-काज की भाषा हिंदी में शपथ ग्रहण किया। चम्पई चूक गए। उन्होंने खुद को सिर्फ संथाल में समेट लिया, जबकि मंशा पूरे राज्य का प्रतिनिधि बनने की थी।
हेमंत और कल्पना सोरेन चुनावी मैदान और वैधानिक जिम्मेदारियों के बीच का अंतर जानते हैं।
आदिवासीयत और हेमंत
हेमंत को अपनी आदिवासीयत का सबूत नहीं देना है। वे CNT-SPT कानून के पक्ष में खड़े हैं—बीजेपी की तरह छेद नहीं कर रहे, बल्कि बचा रहे हैं।
लिहाजा, आदिवासी हितों में छेद करने वालों से दो -दो हाथ करते हैं. जेल तक जाते हैं. झुकते नहीं. और झारखंडी समाज ये बात समझती है कि " हेमन्त है तो हिम्मत है ".
संविधान, राहुल और मनुस्मृति
राहुल भी सिर्फ लाल संविधान पकड़ लें, तो उजाले की बात हो ही जाती है। रात क़ी बात करनी जरूरी भी नहीं. राजनीति को bipolar करने क़ी जरूरत ही नहीं. Polarization की मंशा बीजेपी की हो सकती है. कांग्रेस relative राजनीति करती रही है.
पर तपाक से दूसरे हाथ में कुछ और पकड़ कर वे इसे bipolar कर लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि उनके कई वोटर मनुस्मृति वाले भी हैं। इस तरीके से राहुल संविधान और मनुस्मृति के बीच सैंडविच बनकर फंस जाते हैं. उन्हें याद रखना होगा, कांग्रेस बामसेफ़ नहीं है. भीम आर्मी भी नहीं है. BS 4 भी नहीं है. कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा है. इस यात्रा में मंदिर आये, मस्जिद आये, गिरजा, गुरुद्वारा आये, आपको सभी को जोड़ते जाना है.
निष्कर्ष के दो बून्द
हेमंत सोरेन ने दिखा दिया कि राजनीति का मकसद धर्म का ध्रुवीकरण नहीं, बल्कि जनता के बुनियादी सवालों को हल करना होना चाहिए। उनकी नीतियाँ लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार करती हैं। कांग्रेस समेत सभी दलों को इससे सीख लेनी चाहिए।
"धर्म की राजनीति से ऊपर उठकर, योजनाओं के ज़रिए जनता की तरक्की की इबारत लिखनी होगी।"
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