भाषा किसी भी समाज की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान की रीढ़ होती है। एक भाषा का नष्ट होना केवल शब्दों का खो जाना नहीं है, बल्कि यह उस समुदाय के इतिहास, संस्कृति, और सामूहिक स्मृतियों का भी अंत होता है। यह समझ विश्व स्तर पर ब्लैक लिटरेचर और सब-अल्टर्न लिटरेचर के अध्ययन में उभरकर आई है, जहाँ उन समुदायों और लेखकों को केंद्र में रखा गया, जिन्हें तथाकथित "मुख्यधारा" समाज ने लंबे समय तक हाशिये पर धकेलने की कोशिश की।
झारखंड में, झारखंडी भाषा-खतियान संघर्ष समिति (JBKSS) और हाल ही में झारखण्ड लोकतान्त्रिक क्रन्तिकारी मोर्चा (JKLM) ने भाषाई आंदोलन को एक नई दिशा दी है। इस आंदोलन ने केवल भाषाई पहचान की बात नहीं की, बल्कि इसे सांस्कृतिक आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। इसने झारखंड के हर कोने में यह अहसास कराया कि यदि हमें अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को बचाना है, तो हमें अपनी भाषाओं को बचाना होगा।
भाषा और सत्ता का संघर्ष
सत्ता हमेशा आवाम से अपनी भाषा में बात करवाना चाहती है। इतिहास इस बात का गवाह है कि हर दौर में सत्ता ने अपनी भाषा और संस्कृति को थोपने का प्रयास किया है। भाषा के माध्यम से ही सत्ता अपने प्रभाव का विस्तार करती है। सत्ता के कंधे पर खड़ा बाजारवाद , स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों को निगल जाना चाहता है.
भाषाई आंदोलन का राजनीतिक असर
हाल के वर्षों में झारखंड में मा. जयराम महतो के नेतृत्व में हुए आंदोलनों ने सत्ता के गलियारों को भी झकझोर दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह रहा कि झारखंड में सत्ता तक पहुंचे नेताओं ने हाल ही में अपनी स्थानीय भाषाओं में शपथ ग्रहण किया।
जहाँ सबकी नजरें मा. जयराम महतो की नजर टिकी हुई थी, उन्होंने बिना पत्र हाथ में लिए कुड़माली में शपथ लिया, वहीं दीपक बिरुवा ने हो, रामदास सोरेन ने संताली, इरफान अंसारी ने बंगला, हफीजुल हसन ने उर्दू,दीपिका पांडेय सिंह ने अंगिका, सुदिव्य कुमार ने खोरठा, मो ताजुद्दीन ने उर्दू, हेमलाल मुर्मू ने संताली, ममता देवी ने खोरठा, चंद्रदेव महतो ने खोरठा, अरूप चटर्जी ने बांग्ला, मथुरा महतो ने खोरठा, समीर मोहंती ने उड़िया, चंपाई सोरेन ने संताली,नीरल पूर्ति ने हो, सोनाराम सिंकू ने हो, दशरथ गगराई ने हो, सुदीप गुड़िया ने मुंडारी, राम सूर्या मुंडा ने मुंडारी, सुरेश बैठा ने नागपुरी,भूषण तिर्की ने कुड़ुख, रामेश्वर उरांव ने कुड़ुख, कुशवाहा शशिभूषण मेहता ने मगही में शपथ ग्रहण किया.
यह केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि आमजन की भाषा और संस्कृति के प्रति उनके उत्तरदायित्व का प्रतीक था।
हेमंत सोरेन और उनकी दूरदर्शिता
इन सबके बीच मा. हेमंत सोरेन का दृष्टिकोण प्रशंसा के योग्य है। उन्होंने पहले ही (अगस्त, 2020) प्रमुख जनजातीय भाषाओं (मुंडारी, हो एवं उरांव/कुड़ुख )को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव पहले ही केंद्र सरकार को भेज दिया है।
पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में वे अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की पहल करें। यह झारखंडी भाषाओं (TRL) के लिए एक बड़ी जीत होगी और इस राज्य की विविध सांस्कृतिक पहचान को मजबूती प्रदान करेगी।
भविष्य की दिशा
भाषाई आंदोलन केवल झारखंड की समस्या नहीं है; यह हर उस समाज की लड़ाई है जो अपनी भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को बचाना चाहता है। झारखंड के इस आंदोलन ने पूरे देश के लिए एक उदाहरण पेश किया है। यह दिखाता है कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई है।
आज, जब झारखंड में इस आंदोलन की लहर दौड़ रही है, यह जरूरी है कि हम अपनी भाषाओं को संरक्षण और संवर्धन देने के लिए ठोस कदम उठाएं। मा. हेमंत सोरेन और मा. जयराम महतो जैसे नेताओं के प्रयास इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं।
यदि झारखंड की भाषाओं और संस्कृतियों को सही मायनों में बचाना है, तो हर झारखंडी को इस आंदोलन का हिस्सा बनना होगा। यह न केवल झारखंड की, बल्कि पूरे भारत की भाषाई विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने की लड़ाई है।
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