फ्रैंक हुजूर की असमय मृत्यु और उसके बाद शुरू हुए मृत्युपरांत विमर्श ने राजनीतिक पार्टियों की पैरोपकारी में अपना हुनर बिखरने वाली तमाम रचनाधर्मियों, पत्रकारों और लेखकों को भारतीय राजनीति और उसके नेताओं की स्वार्थपरकता की एक झलक दिखाई है और उन्हें आत्म मंथन करने को मजबूर किया है.
लखनऊ की बर्थडे पार्टियों में पहुंचने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जब उस विचारक और लेखक की मृत्यु पर शोक तक प्रकट नहीं करते में जिसने उनकी जीवनी लिख दी. जिसने लंदन में जमा-जमाया लेखन का कैरियर पार्टी के लिए छोड़ दिया, तो लोगों को आश्चर्य हो जाता है.
इतना ही नहीं फ्रैंक हुजूर अपने जीवन के सबसे हुनरमंद और सक्रिय लेखन का सबसे बड़ा हिस्सा जिस विचारधारा और जिस पार्टी को समर्पित कर दिया उसके नेताओं ने और सोशल मीडिया हैंडलर्स तक ने शोक प्रकट करने तक की जहमत नहीं उठाई.
एक राजनीतिक कवि की बेटी की शादी में जिस देश में प्रधानमंत्री और आधी कैबिनेट पहुंच जाती हो वहां एक समाजवादी विचारक की मृत्यु पर ऐसा “ब्लैकआउट” एक गंभीर संदेश छोड़ता है. संवेदना और सहानुभूति खोजी जा रही है लेकिन वो नहीं मिल रही है.
5 मार्च 2025 को फ्रैंक हुजूर का दिल का दौरा पड़ने के बाद अस्पताल में इलाज के दौरान निधन हो गया, वह राहुल गांधी से मिलने के लिए दिल्ली पहुंचे थे और राहुल गांधी से मुलाकात के बाद मॉडल टाउन में एक मित्र की घर पर रुके थे, जब उन्हें हृदय घात हुआ ऐसी खबरें आईं.

कांग्रेस पार्टी की तरफ उनका झुकाव और समाजवादी पार्टी से उनकी दूरी पिछले कुछ वर्षों से लोग महसूस कर रहे थे. लेकिन समाजवादी विचारधारा की रहनुमा घोषित पार्टी की पॉलिटिक्स और उसके लोगों से फ्रैंक हुजूर की दूरी कब बनी शुरू हुई इस बारे में फ्रेंड हुजूर ने कभी स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक मंचों पर कुछ नहीं कहा.
फ्रैंक हुजूर मौका परस्त समाजवादी और एक्टिविस्ट नहीं थे. जब वह हिंदू कॉलेज में पढ़ते थे और उन्होंने “हिटलर इन लव विद मैडोना” नामक नाटक लिखा तभी भारतीय और वैश्विक राजनीति के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण दिखने लगा था. यह नाटक उनके साहसिक और प्रयोगात्मक लेखन शैली का जबरदस्त उदाहरण बना. यह फेंटेसी और पॉलिटिक्स को मिलाकर बनाया गया ऐसा साहित्यिक प्रयोग था जिसने शुरुआती मंचन के दौरान ही विवाद पैदा कर दिया, तत्कालीन पत्रकारों की नजर इस नाटक के उसे सीन पर अटक गई जहां फ्रेंड हुजूर ने सांप्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता और नाजी दंभ को तत्कालीन भारतीय राजनीति में उभरती हिंदुत्व की विचारधारा से जोड़ दिया था. इस नाटक को प्रतिबंधित करने की भी कोशिश की गई.
मात्र 19 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी मैगजीन “यूटोपिया” का संपादन किया. पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री की जीवनी “इमरान वर्सेस इमरान” ने पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों में भी बहस पैदा कर दी थी.

उनकी क्षमताएं शुरुआत से ही वैश्विक राजनीति को साधने वाली थी, यहां तक कि जब उन्होंने सोशलिस्ट फैक्टर का संपादन किया उसमें भी उन्होंने समाजवादी विचारधारा पार्टी पॉलिटिक्स के साथ वैश्विक मुद्दों को भी कवर करने की कोशिश की और उसे एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा की पत्रिका की शक्ल में बांधने का काम नहीं किया. लेकिन फिर भी “सोशलिस्ट फैक्टर” की छवि व्यक्तिगत महिमा मंडन करने वाली एक पार्टी पत्रिका की बनी रही.
जाति की जिस छवि से निकलने के लिए उन्होंने अपना नाम तक बदल दिया, पहले अपने नाम के आगे खान लगाकर उन्होंने मनोज खान किया फिर धर्म की पहचान से बाहर निकलकर उसे फ्रैंक हुजूर कर लिया बाद में उन्होंने अपने बच्चे का नाम भी मार्कोज रखा. जातिवादी और धार्मिक पहचान से दूरी बनाने की इतनी कोशिश के बाद भी उनकी मृत्यु के बाद उनकी जाति और जातिवादी विचारधारा से उनको बांधने की कोशिश की जा रही है.
एक वक्त था जब वो मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के काफी करीबी माने जाते थे और लखनऊ में उनके आवास पर तमाम समाजवादी गैर समाजवादी लोगों का इसलिए तांता लगा रहता था, की फ्रेंड हुजूर जी “भैया” से कहके कोई काम करवा देंगे.
सरकार जब बदली तो कुछ वर्षों बाद उनका उनका सरकारी आवास छीना गया और शर्मनाक तरीके से उनकी किताबें पोस्टर और अनेक सामान घर से बाहर फेंकने की तस्वीर सोशल मीडिया पर दिखी.

उनके कई जानने वाले ये मानते हैं कि सोशल मीडिया पर वो अतिसक्रिय नहीं थे, सोशल मीडिया पर वह विवाद भी नहीं पैदा करते थे, यह एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष लेखक के रूप में उनकी पहचान को धुंधला कर दिए जाने की जो कोशिशें हो रही हैं उसकी एक प्रमुख वजह हो सकती है.
वो मूल रूप से बिहार के रहने वाले थे, रांची के सेंट जेवियर्स और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई की. अंग्रेजी भाषा के लेखक के लिए निश्चित तौर पर हिंदी पट्टी में फैली समाजवादी राजनीति को कवर करना और उस पर लिखना एक जटिल निर्णय रहा होगा, लेकिन फिर भी उन्होंने इसे लंबे समय तक अंजाम दिया. अपर मिडिल क्लास और अंग्रेजीदां लोगों तक समाजवादी विचारधारा को पहचाने कि उन्होंने काफी कोशिशें की.
सोशल मीडिया पर विवाद पैदा करना और विवाद की फसल काटना 21वीं सदी के लेखकों और पत्रकारों की एक महत्वपूर्ण कला है, जो उन्हें इग्नोर किए जाने से सुरक्षित रखती है.

इस कला का इस्तेमाल फ्रैंक हुजूर नहीं कर पाए. और इसीलिए जिन राजनीतिक पार्टियों के लिए उन्होंने दशकों काम किया या जिसके लिए वह वर्तमान में काम करने की कोशिश कर रहे थे, उनके सोशल मीडिया हैंडल्स फ्रैंक हुजूर के अवसान को पूरी राजनीतिक समझ के साथ अनदेखा कर रहे हैं.
फ्रैंक हुजूर के जीवन को अगर देखें तो वो जिस उम्दा श्रेणी के लेखक, साहित्यकार और पत्रकार थे. उस हिसाब से किसी पार्टी की विचारधारा और उसके तंत्र के प्रचार की जिम्मेदारी लेकर उन्होंने शायद अपनी रचनाधर्मिता के साथ पूर्ण न्याय नहीं किया. जरूर उन्होंने यह सोचा होगा की राजनीतिक पार्टियां अगर उनके विचारों का समावेशन करती हैं, और वह कुछ प्रभाव उत्पन्न कर पाते हैं तो यह लोक हित में ज्यादा उपयुक्त होगा, और संभवत इसीलिए उन्होंने यह रास्ता चुना रहा होगा. कांग्रेस पार्टी के साथ उनका हालिया जुड़ाव भी इसी ओर इशारे करता है.
नेता प्रतिपक्ष की ओर से @frankhuzur भाई के लिए शोक संदेश की देरी पर कुछ साथी प्रश्न उठा रहे हैं।
— Dr Anil 'JaiHind' (@DrJaihind) March 8, 2025
वास्तविक है कि राहुल जी गुजरात में थे। अभी शनिवार 8 मार्च शाम 7 बजे दिल्ली पहुँचे हैं। स्वयं शोक संदेश ड्राफ्ट किया और 4 बार करेक्शन किया। विलंब के लिए हार्दिक खेद है। pic.twitter.com/gUCDmNaHO8
अब जब वे हमारे बीच नहीं रहे, बहुजन समाज ने एक असाधारण प्रतिभा को खो दिया है। फ्रैंक हुजूर एक शानदार लेखक, समाजवादी विचारक और धर्मनिरपेक्षता के प्रबल समर्थक थे, जिन्होंने अपने विचारों और लेखन के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाई और उत्पीड़ित वर्गों की आवाज को बुलंद किया। उनका निधन न केवल उनके परिवार और चाहने वालों के लिए, बल्कि पूरे बहुजन समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है। मूक नायक और उसकी पूरी टीम इस दुखद क्षण में उनके परिवार के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करती है और उनके प्रियजनों के साथ इस शोक में शामिल होती है.
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