लखनऊ — अपनी पारंपरिक पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आधारित राजनीति से आगे बढ़ते हुए समाजवादी पार्टी (सपा) अब खुद को एक व्यापक सामाजिक गठबंधन के रूप में पेश करने की दिशा में सक्रिय हो गई है। इसी कड़ी में पार्टी 27 जुलाई को लखनऊ में अपनी दलित शाखा बाबा साहेब अंबेडकर वाहिनी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित करने जा रही है।
2021 में अंबेडकर जयंती के मौके पर शुरू की गई इस वाहिनी के जरिए सपा दलित समाज तक संस्थागत स्तर पर पहुंच बनाने की कोशिश कर रही है, खासकर तब जब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अपने पारंपरिक वोट बैंक को संभालने में संघर्ष कर रही है और कई क्षेत्रों में नए दलित नेतृत्व उभर रहे हैं।
यह अधिवेशन 400 से 500 प्रतिनिधियों को देशभर से जोड़ने का प्रयास करेगा, जो अंबेडकर वाहिनी के लिए एक बड़ा और अहम पड़ाव होगा। सपा की स्थापना के लगभग तीन दशक बाद बनाई गई इस फ्रंटल संगठन का उद्देश्य दलित समुदाय में कैडर निर्माण और राजनीतिक जागरूकता फैलाना है।
बाबा साहेब अंबेडकर वाहिनी के महासचिव रामबाबू सुदर्शन ने बताया, “हमारा पहला राष्ट्रीय अधिवेशन लखनऊ में होगा, जिसमें वाहिनी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मिठाईलाल भारती मुख्य वक्ता होंगे। अधिवेशन के एजेंडे में भाजपा शासन में दलितों पर अत्याचार, आउटसोर्सिंग के जरिए आरक्षण की समाप्ति और हाल ही में दलित सांसद रामजी लाल सुमन पर हुए कथित हमले जैसे मुद्दे प्रमुख रहेंगे।”

बसपा का कमजोर होता जनाधार और दलित मतदाताओं की नई तलाश
यह अधिवेशन उस राजनीतिक परिदृश्य में हो रहा है जहां मायावती के नेतृत्व वाली बसपा, जो कभी दलितों की एकमात्र पसंद मानी जाती थी, अब लगातार चुनावी हार का सामना कर रही है। 2017 के बाद से बसपा के जनाधार में गिरावट आई है और उसका कोर वोट बैंक — विशेष रूप से जाटव समुदाय — नए विकल्पों की तलाश में है।
अगर चुनावी आंकड़ों की बात करें तो बसपा ने 2012 के यूपी विधानसभा चुनावों में 25.95% वोट और 80 सीटें जीती थीं। 2017 में यह घटकर 22.23% वोट और 19 सीटें रह गईं, जबकि 2022 में केवल 12.88% वोट के साथ पार्टी एक ही सीट जीत पाई। लोकसभा चुनावों में भी गिरावट साफ दिखती है — 2004 में 19 सीट (24.67%), 2009 में 20 सीट (27.42%), 2014 में शून्य सीट (19.77% वोट शेयर), और 2019 में सपा के साथ गठबंधन में 10 सीटें (19.42%)।
दलित ही नहीं, सपा भी तलाश में..
गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ के एसोसिएट प्रोफेसर प्रशांत त्रिवेदी कहते हैं, “सपा की दलितों तक पहुंचने की कोशिश एकतरफा नहीं है। दलित समाज, विशेषकर जाटव समुदाय, भी अब अपने राजनीतिक विकल्पों का पुनर्मूल्यांकन कर रहा है।”
वह बताते हैं, “2019 में जब सपा और बसपा ने गठबंधन किया, तो यह ट्रेंड और मजबूत हुआ। गठबंधन टूटने के बाद भी अखिलेश यादव ने कभी मायावती पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए, जो दलित मतदाताओं को अच्छा लगा।”
उन्होंने कहा, “2024 में सपा और कांग्रेस का गठबंधन बना, जिससे दलितों की पारंपरिक पहचान कांग्रेस से फिर जुड़ने लगी। कभी कांग्रेस ही दलितों की पहली पसंद हुआ करती थी — अब वही स्मृति नई राजनीतिक परिस्थितियों में फिर उभर रही है। उत्तर प्रदेश की राजनीति अब बिहार मॉडल की ओर बढ़ रही है, जहां दलित और पिछड़े एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं।”
प्रतीकों से संगठन तक: सपा की बदली रणनीति
सपा की दलितों तक पहुंचने की रणनीति अब प्रतीकात्मकता से आगे जाकर सांगठनिक स्तर तक पहुंच चुकी है। 2019 के चुनावों के दौरान सपा ने डॉ. भीमराव अंबेडकर और कांशीराम की जयंती मनाना शुरू किया, और लोहिया की मूर्ति के साथ पार्टी कार्यालय में अंबेडकर की प्रतिमा भी स्थापित की।
2021 में अंबेडकर वाहिनी की औपचारिक शुरुआत हुई और उसी वर्ष सपा ने कार्यकर्ताओं से अंबेडकर जयंती को 'दलित दीवाली' के रूप में मनाने का आह्वान किया।
2024 में, अंबेडकर जयंती पर पार्टी ने एक सप्ताह तक चलने वाला स्वाभिमान-सम्मान समारोह राज्यभर में आयोजित किया, जिसमें समाजवादी अनुसूचित जाति फ्रंट के साथ मिलकर कार्यक्रम आयोजित किए गए। उसी साल सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इटावा में अंबेडकर की एक कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया, जो बसपा कार्यालयों में लगने वाली बैठी हुई मुद्रा में थी।
इसके साथ ही बसपा के कई प्रमुख नेता भी सपा में शामिल हुए — जिनमें अफजाल अंसारी, आर.के. चौधरी, मिठाईलाल भारती और राम प्रसाद चौधरी जैसे नाम शामिल हैं — जो पार्टी में दलित नेतृत्व के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है।
पीडीए फॉर्मूला और बढ़ती स्वीकार्यता
सपा की सामाजिक रणनीति का केंद्र बिंदु है पीडीए — यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक गठजोड़। इसका उद्देश्य इन तीनों वर्गों को एक राजनीतिक मंच पर संगठित करना है। 2024 के लोकसभा चुनावों में इस फॉर्मूले की सफलता देखने को मिली, जब सपा ने अकेले 37 सीटें जीतकर पिछले दस वर्षों का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया।
लखनऊ में होने जा रहा यह अधिवेशन केवल प्रतीकात्मक कार्यक्रम नहीं बल्कि दलित नेताओं के संगठनात्मक सशक्तिकरण और पार्टी में उनकी भागीदारी को मजबूत करने की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है।
जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश की राजनीति सामाजिक ध्रुवीकरण से नए समीकरणों की ओर बढ़ रही है, सपा का यह प्रयास कि वह खुद को एक समावेशी सामाजिक गठबंधन के रूप में स्थापित करे, राज्य की राजनीति की दिशा तय कर सकता है।