नई दिल्ली: केरल हाई कोर्ट ने साफ कर दिया है कि सरकारी मंजूरी की अनुपस्थिति केवल इसी आधार पर पुलिसकर्मियों को हिरासत में यातना जैसे गंभीर अपराध से बचाने का कारण नहीं बन सकती।
न्यायमूर्ति कौसर एदप्पगाथ ने सुधा बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले में निर्णय सुनाते हुए कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 197 का इस्तेमाल इस तरह की अमानवीय हरकतों को ढकने के लिए नहीं किया जा सकता।
धारा 197 CrPC के तहत सरकारी कर्मचारी के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए पूर्व अनुमति आवश्यक है, यदि उसका कार्य उसके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किया गया हो या ऐसा दर्शाया गया हो। लेकिन कोर्ट ने कहा कि हिरासत में यातना को कभी भी पुलिस के आधिकारिक कर्तव्य का हिस्सा नहीं माना जा सकता।
कोर्ट ने कहा, “किसी पुलिस अधिकारी द्वारा बिना किसी औचित्य के हिरासत में यातना देना, CrPC की धारा 197 की सुरक्षा के दायरे में नहीं आ सकता। पुलिस अधिकारी यह दावा नहीं कर सकता कि वह अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ऐसी अमानवीयता कर रहा था।”
न्यायमूर्ति एदप्पगाथ ने हिरासत में यातना को सभ्य समाज के लिए सबसे गंभीर अपराधों में से एक बताया।
फैसले में कहा गया, “हिरासत में यातना शायद किसी भी कानून के शासन वाले सभ्य समाज में सबसे घिनौना अपराध है। पुलिस की ज्यादतियां और बंदियों या विचाराधीन कैदियों के साथ दुर्व्यवहार किसी भी सभ्य देश की छवि खराब करता है और वर्दीधारी लोगों को कानून से ऊपर समझने के लिए उकसाता है। अगर इस बुराई पर सख्त कदम नहीं उठाए गए तो आपराधिक न्याय व्यवस्था की नींव हिल जाएगी।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायपालिका को ऐसे मामलों से निपटते समय यथार्थवाद और संवेदनशीलता दिखानी चाहिए, ताकि आम जनता का न्याय व्यवस्था पर भरोसा बना रहे।
मामले की पृष्ठभूमि
यह टिप्पणियां सुधा नाम की एक महिला द्वारा दाखिल पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई के दौरान की गईं। सुधा अनुसूचित जाति की हैं और घरेलू सहायिका के तौर पर काम करती थीं। उन पर उनके मालिकों ने सोने के सिक्के चोरी करने का आरोप लगाया और पुलिस थाने ले गए, जहां पुलिस ने उन्हें तीन घंटे तक बुरी तरह पीटा और प्रताड़ित किया।
बाद में उनके नियोक्ताओं ने पुलिस को बताया कि सोना तो घर में ही मिल गया। इसके बावजूद सुधा और उनके परिवार को धमकाया गया कि वे इस घटना के बारे में किसी को न बताएं।
सुधा ने मजिस्ट्रेट कोर्ट में निजी शिकायत दाखिल की। मजिस्ट्रेट ने पुलिस अधिकारियों और नियोक्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की विभिन्न धाराओं और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अभियोजन चलाने के लिए पर्याप्त आधार पाए।
मामला सेशंस कोर्ट में ट्रांसफर हुआ, जहां सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया। नियोक्ताओं के खिलाफ कोई प्रथम दृष्टया मामला न होने के कारण उन्हें छोड़ा गया, जबकि पुलिस अधिकारियों को यह कहते हुए छोड़ दिया गया कि उनके खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए कोई पूर्व सरकारी मंजूरी नहीं ली गई थी।
सुधा ने इस आदेश को केरल हाई कोर्ट में चुनौती दी।
हाई कोर्ट का फैसला
हाई कोर्ट ने सुधा के मेडिकल रिकॉर्ड की समीक्षा की और पाया कि थाने से छूटने के बाद उनके शरीर पर गंभीर चोटों के निशान थे। कोर्ट ने कहा कि ऐसी हिंसा को किसी भी हालत में पुलिस के आधिकारिक कर्तव्य का हिस्सा नहीं कहा जा सकता।
कोर्ट ने कहा, “ऐसे हालात हो सकते हैं जहां पुलिस अपने कर्तव्यों के निर्वहन में बल प्रयोग कर सकती है। लेकिन यह ऐसा मामला नहीं है। शिकायत और शपथ बयान में जैसा विस्तृत विवरण दिया गया है, उसके मुताबिक की गई हिरासत में पिटाई को आधिकारिक कर्तव्य के प्रदर्शन की आड़ में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।”
इसलिए हाई कोर्ट ने सेशंस कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें पुलिस अधिकारियों को बरी किया गया था और निचली अदालत को उनके खिलाफ आरोप तय करने और मुकदमा चलाने का निर्देश दिया।
वकीलों का पक्ष
सुधा की ओर से अधिवक्ता वी. सजीत कुमार, जोसी मैथ्यू, नीना जे. कल्याण और अम्मू एम. ने पैरवी की। पुलिस अधिकारियों की ओर से अधिवक्ता ए.एस. शम्मी राज पेश हुए, जबकि राज्य की ओर से वरिष्ठ लोक अभियोजक ई.सी. बिनीश ने पक्ष रखा।