आरा (बिहार)- बिहार विधानसभा चुनाव में एक ऐसा प्रत्याशी है जिसके पास न पैसा है, न जमीन और न ही बाहुबल। उसके बैंक खाते में महज 5,000 रुपये हैं और हाथ में लगभग 20,000 रुपये नकद। इसके बावजूद वह भारतीय जनता पार्टी (BJP) के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। यह शख्स हैं आरा विधानसभा सीट से CPI(ML) Liberation के उम्मीदवार कयामुद्दीन अंसारी, जो शायद इस चुनाव के सबसे गरीब प्रत्याशी हैं, लेकिन जनता उन्हें पिछड़ने नहीं दे रही।
आरा सीट का इतिहास बेहद दिलचस्प है। 2020 के विधानसभा चुनाव में BJP के अमरेंद्र प्रताप सिंह 71,781 वोटों के साथ जीते थे, जबकि कयामुद्दीन अंसारी को 68,000 के करीब वोट मिले थे। यानी मात्र 32 वोटों के अंतर से अंसारी चुनाव हार गए थे। इस संकीर्ण अंतर ने इस सीट को इस बार और भी रोमांचक बना दिया है।
सवाल उठता है कि इतने कम संसाधनों के साथ अंसारी चुनाव प्रचार कैसे कर रहे हैं? जवाब जनता के अटूट भरोसे और छोटे-छोटे चंदों में छिपा है। अंसारी गांव-गांव घूम रहे हैं, जहां लोग उन्हें 50, 100 या 5000 रुपये सीधे हाथ में थमा देते हैं। इसी पैसे से वह पोस्टर छपवा रहे हैं और साइकिल पर बैठकर गली-गली, गांव-गांव जनसंपर्क कर रहे हैं। लोग उनसे गले मिलते हैं, बातचीत करते हैं और उन्हें चंदा देकर चुनाव जीतने का आशीर्वाद देते हैं।
कयामुद्दीन अंसारी अति पिछड़ा वर्ग से आते हैं और दो बार आरा विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। हार के बावजूद उन्होंने जमीनी स्तर पर काम करना नहीं छोड़ा। उनकी पत्नी एक आंगनवाड़ी सहायिका हैं और परिवार गरीबी में जीवनयापन कर रहा है। उनकी साफ छवि और जमीनी जुड़ाव ने ही उन्हें फिर से पार्टी का टिकट दिलाया।
उन्होंने अपनी संपत्ति महज 1.37 लाख रुपये बताई है और वे चुनाव को '10-20 रुपये' के छोटे चंदों से लड़ रहे हैं। अंसारी कहते हैं, "मैं एक गरीब, पिछड़े परिवार से आता हूं। मेरे पिता के पास कोई जमीन नहीं थी। मेरी पत्नी एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। मेरे खिलाफ लड़ने वाली पार्टी वोट चोरी कर रही है। एक तरफ पैसे की ताकत है, तो दूसरी तरफ 10-20 रुपये का छोटा सहयोग देने वाले लोग हैं। मैं उसी पैसे से यह चुनाव लड़ रहा हूं।"
अंसारी बताते हैं कि वह जहां भी जाते हैं, लोगों के सामने एक तौलिया बिछा देते हैं और लोग उसमें अपना सहयोग डाल देते हैं। यह उनकी तीसरी लड़ाई है। 2015 में उन्हें करीब 5000 वोट मिले थे और 2020 में वह बहुत कम अंतर से हार गए थे। इस बार उन्हें पूरा विश्वास है कि एनडीए शाहाबाद क्षेत्र की एक भी सीट नहीं जीत पाएगी।
आरा सीट पर त्रिकोणीय मुकाबला
इस बार आरा सीट पर समीकरण बदल गया है। यहां त्रिकोणीयमुकाबला है। एक ओर BJP के नए प्रत्याशी संजय सिंह (उर्फ संजय टाइगर) हैं, जिन्हें सीटिंग विधायक अमरेंद्र प्रताप सिंह की जगह टिकट मिला है। दूसरी ओर प्रशांत किशोर की पार्टी 'जन स्वराज' के डॉ. विजय कुमार गुप्ता मैदान में हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जन स्वराज के उम्मीदवार BJP के वोटों में दरार डाल सकते हैं।
माना जा रहा है कि अगर जन स्वराज के उम्मीदवार 3000 से 5000 वोट भी काट लेते हैं, तो यह वोट बैंक BJP का ही होगा। इससे 2020 के 32 वोटों के अंतर को पाटना कयामुद्दीन अंसारी के लिए आसान हो जाएगा। ग्राउंड रिपोर्ट्स भी अंसारी के पक्ष में माहौल की तस्दीक कर रही हैं।
सामंतवाद के खिलाफ जनसंघर्ष से उपजी 'माले' की राजनीति
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन यानी CPI(ML) Liberation, जिसे आमतौर पर 'माले' के नाम से जाना जाता है, इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का एक प्रमुख सहयोगी है। जहां एक ओर बड़ी पार्टियां चुनावी समर में भारी भरकम बजट और चमचमाते काफिलों का इस्तेमाल कर रही हैं, वहीं माले अपने जनाधार और आम जनता के छोटे-छोटे सहारों पर इस मुकाबले में उतरी है।
समाजवादी चिन्तक और राजनीतिक विश्लेषक डॉ लक्ष्मण यादव बताते हैं कि माले का इतिहास बिहार के सबसे संघर्षशील दौर से जुड़ा है। 60 और 70 के दशक में भोजपुर का इलाका जमींदारी, सामंती व्यवस्था और जातिवादी मनुवादी व्यवस्था से इस कदर जकड़ा हुआ था कि पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों के लिए खटिया पर बैठना, सड़क पर सम्मान से चलना या वोट डालना तक दूभर था।
इसी दौर में तीन नाम उभरे: राम नरेश राम, जगदीश मास्टर (मास्टर जगदीश), और रामेश्वर अहीर। इन्होंने सामंतों के खिलाफ बिगुल फूंका। एक किस्सा प्रसिद्ध है कि जगदीश मास्टर, जो कोयरी जाति से थे, एक बार कुर्सी पर बैठकर पढ़ा रहे थे। सामने से एक सामंत ने उन पर लात मारी और कहा, "मेरे सामने तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कुर्सी पर बैठने की?" यहीं से इस संघर्ष की शुरुआत हुई।
इन तीनों ने मिलकर भोजपुर के एकवारी गांव में सामंतों के खिलाफ जमीनी लड़ाई छेड़ी। जमीन की लड़ाई, सिंचाई, पढ़ाई, कमाई और सम्मान की लड़ाई। रामेश्वर अहीर को इस लड़ाई के दौरान लंबे समय तक जेल में भी रहना पड़ा। जब इन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया तो सामंतों ने जगदीश मास्टर और राम नरेश राम पर हमला करवा दिया, जिसमें वे अधमरे हो गए। मगर, यह लड़ाई रुकी नहीं।
नक्सलबाड़ी से निकली चिंगारी और माले का गठन
यह वही दौर था जब बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन चल रहा था। 1967 में शुरू हुआ यह आंदोलन 1969 तक पहुंचा और CPI(ML) का गठन हुआ। नक्सलबाड़ी की चिंगारी भोजपुर के एकवारी में गिरी और एक नया इतिहास बनने लगा। राम नरेश राम मुखिया बने, फिर विधायक बने और आजीवन विधायक रहे। रामेश्वर अहीर सांसद बनकर दिल्ली गए।
इसी दौर में सामंतवादी ताकतों ने जातिवादी सेनाएं खड़ी कीं, जिनमें रणवीर सेना सबसे कुख्यात थी। लक्ष्मणपुर बाथे, शंकर बिघा जैसे नरसंहार हुए, जहां पिछड़ी और दलित जातियों की बस्तियों को निशाना बनाया गया। माले ने इन पीड़ितों के लिए सड़क से लेकर अदालत तक न्याय की लड़ाई लड़ी।
90 के दशक के बाद माले ने सक्रिय चुनावी राजनीति में अपनी जगह बनानी शुरू की। पार्टी ने संविधान को हाथ में लेकर सामाजिक न्याय, सांप्रदायिकता विरोध और संसाधनों की हिस्सेदारी व पुनर्वितरण के सवाल को अपनी राजनीति का केंद्रीय एजेंडा बनाया।
2020 का चुनाव और 2025 की उम्मीदें
2020 के विधानसभा चुनाव में माले महागठबंधन का हिस्सा थी और उसने 19 सीटों पर चुनाव लड़कर 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस बार 2025 के चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर मैदान में है। पार्टी के प्रत्याशियों की सूची में धनंजय शेडल, गोरे अमरजीत कुशवाहा, सत्यदेव राम, अमरनाथ यादव, रंजीत कुमार राम, फूल बाबू सिंह, विश्वनाथ चौधरी, दिव्या गौतम, गोपाल रविदास, संदीप सौरभ, कयामुद्दीन अंसारी, शिव प्रकाश, रंजन मदन सिंह, अजीत कुमार सिंह और दूसरे चरण में वीरेंद्र प्रसाद गुप्ता, अनिल कुमार, महबूब आलम, अरुण सिंह, महानंद सिंह, रामबल सिंह यादव जैसे नेता शामिल हैं।
महागठबंधन में माले एक मजबूत साथी की भूमिका में है। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य की अगुआई में छोटी-छोटी नुक्कड़ सभाएं, गोष्ठियां और जमीनी रैलियां चल रही हैं। माले का चुनाव प्रचार भारी-भरकम बजट पर नहीं बल्कि उसके जनाधार की ताकत पर टिका है।