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डॉक्टर बनने का सपना या मौत का जाल? भारत के मेडिकल कॉलेजों में 48 घंटे नियम की उड़ाई जा रही धज्जियां - RTI शॉकिंग फैक्ट्स!

भारत में मेडिकल शिक्षा गंभीर रूप से बीमार है। पंजाब के एक छोटे व्यवसायी अभिभावक ने कहा- "हमें मालूम होता कि मेरे बेटे का ऐसा हाल होगा, तो कभी डॉक्टर बनने नहीं भेजता। काफी मेधावी था हमारा बेटा। अब तो एकदम गुमसुम रहता है। डिप्रेशन में रहता है। डर है, कोई गलत कदम न उठा ले।"

'गलत कदम' यानी आत्महत्या। देहरादून में शिशुरोग के छात्र डॉ दिवेश गर्ग की आत्महत्या पर देश में कोई चर्चा नहीं हुई। हरियाणा के मध्यवर्गीय पिता ने 38 लाख रूपये देकर एडमिशन कराया था। तीन साल में 1.20 करोड़ का खर्च आता। लेकिन मई 2024 की एक रात डॉ दिवेश ने आत्महत्या कर ली। चार बहनों का इकलौता भाई था।

पिता रमेशचंद्र गर्ग ने एसजीआरआर मेडिकल कॉलेज प्रबंधन पर गंभीर आरोप लगाए। डॉ दिवेश को 104 डिग्री बुखार होने के बावजूद लगातार 36 घंटे काम कराया गया। उसकी थिसिस को बार-बार रिजेक्ट किया गया। मरीजों तथा स्टूडेंट्स के सामने अपमानित किया गया। शोकाकुल पिता कहते हैं- “हमारी तो जिंदगी ही लुट गई।“

इंटर्नशिप और रेजिडेंसी के दौरान लगातार 36 घंटे या इससे भी अधिक लंबी ड्यूटी बड़ी समस्या है। सोशल मीडिया में गायनो पीजी छात्रा लिखती है- "नी हो री रेजिडेंसी" (मुझसे रेजिडेंसी नहीं हो पा रही है)। ऑर्थो छात्र ने लिखा- "पंद्रह मिनट का समय मिला है। रो लूं, या सो लूं?" डॉ रिशु सिन्हा लिखती हैं- "एमबीबीएस कर चुकी हैं। अब नीट पीजी की तैयारी कर रही हूँ। लेकिन रेजीडेंसी की टॉक्सिसिटी कैसे झेलूंगी?"

कोलकाता के आरजी अस्पताल में 2024 में पीजी छात्रा रेप और हत्या का शिकार हुई। वह लगातार 36 घंटे काम करके सेमिनार हॉल में सो गई थी। उसमें मदद के लिए चीखने या अपने बचाव की भी ताकत नहीं रह गई थी। उस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने लगातार 36 घंटे ड्यूटी को अमानवीय बताया था। अब यूनाइटेड डॉक्टर्स फ्रंट ने 1992 का सप्ताह में अधिकतम 48 घंटे ड्यूटी का नियम लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है। डॉ लक्ष्य मित्तल के अनुसार इस याचिका पर स्वास्थ्य मंत्रालय से जवाब मांगा गया है।

इस याचिका के बाद दो बड़े बदलाव देखने को मिले। पहला, एम्स ने 21 अगस्त 2025 को आदेश जारी करके 1992 के नियम लागू होने की बात दोहराई। दूसरा, कई मेडिकल कॉलेजों में रेजिडेंट्स के वास्तविक ड्यूटी घंटों को रिकॉर्ड करने से परहेज किया जाने लगा। यहां तक कि कुछ मामलों में फर्जी ड्यूटी रोस्टर बनाने की शिकायतें भी सामने आईं।

मेडिकल शिक्षा में सुधार के लिए प्रयासरत कुछ स्टूडेंट्स, पैरेंट्स, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरटीआई के तहत काफी सूचनाएं निकाली हैं। अधिकांश मामलों में केंद्र और राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रालयों एवं निदेशालयों के अलावा एनएमसी और मेडिकल कॉलेजों से मिली सूचनाएं महत्वपूर्ण हैं। इनसे मेडिकल शिक्षा संबंधी तमाम एजेंसियों की गैर-जवाबदेही सामने आई। इस नागरिक खोजी पत्रकारिता पहल को बढ़ावा देने वाले एक स्वतंत्र न्यूजरूम 'द मूकनायक' की संपादक मीना कोटवाल कहती हैं- "आरटीआइ ने भारत में मेडिकल शिक्षा की भयावह स्थिति को उजागर किया है। जब मेडिकल शिक्षा ही बीमार हो, तो जनस्वास्थ्य का क्या होगा?"

मई 2024 की एक रात डॉ दिवेश ने आत्महत्या कर ली। चार बहनों का इकलौता भाई था।

आत्महत्या की मजबूरी

वर्ष 2018 से 2022 के बीच पांच साल में 122 मेडिकल स्टूडेंट्स ने आत्महत्या कर ली। नेशनल मेडिकल कमीशन ने आरटीआई के तहत डॉ विवेक पांडेय को यह सूचना दी। इनमें एमबीबीएस के 64 तथा पीजी के 58 स्टूडेंट शामिल थे। प्रतिवर्ष औसतन 25 मेडिकल स्टूडेंट्स की आत्महत्या की यह दर 2025 में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई। महज सात महीनों में यह संख्या लगभग 30 पहुंच गई।

मुश्किल से मिली सीट, छोड़नी पड़ी

डॉक्टर बनना एक बड़ा सपना होता है। डॉ विवेक पांडेय की आरटीआई से पता चला कि वर्ष 2018 से 2022 के बीच 1117 पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स ने पढ़ाई छोड़ दी। सीट छोड़ने के लिए दस से पचास लाख तक जुर्माना भरना पड़ता है। जबकि पीजी में बेहद कम सीटें हैं। एडमिशन काफी मुश्किल है। प्राइवेट कॉलेजों में पीजी करने पर पचास लाख से तीन करोड़ तक खर्च आ सकता है। ऐसी मुश्किल से मिली पीजी सीट या फिर दुनिया छोड़ देने की नौबत आती है।

स्वामी दास की आरटीआई से पता चला कि पांच वर्षों में 'निम्हान्स' (बंगलौर) के 24 पीजी स्टूडेंट्स ने सीट छोड़ दी। एम्स मंगलगिरी (आंध्रप्रदेश) में यह आंकड़ा 22 है। एम्स गोरखपुर (यूपी) के 31 पीजी स्टूडेंट्स को सीट छोड़नी पड़ी।

विभिन्न आरटीआई से पता चलता है कि 2020-2024 की अवधि में जिपमेर (पांडिचेरी) में 276 पीजी मेडिकल छात्रों ने, एम्स (भोपाल) में 178 ने और सफदरजंग अस्पताल (दिल्ली) में 64 ने पढ़ाई छोड़ दी। यह एक बड़ी संख्या है। इसकी प्रमुख वजह ड्यूटी के अत्यधिक घंटे हैं। जिपमेर (पांडिचेरी) और निमहांस (बंगलौर) ने रिकॉर्ड पर सहमति जताई है कि पेशेवर कारण से पढ़ाई छोड़नी पड़ी।

1992 की नियमावली का पालन नहीं

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने 1992 में रेजिडेंसी स्कीम डायरेक्टिव जारी की थी। इसके अनुसार पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स को सप्ताह में अधिकतम 48 घंटे काम करना है। एक बार में अधिकतम 12 घंटे। लेकिन आरटीआई से मिली सूचना के अनुसार इसका अनुपालन नहीं होता।

 

'निम्हान्स' (बंगलौर) भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य का अग्रणी संस्थान है। ऐसे संस्थान में भी मानसिक स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त नींद और आराम का महत्व नहीं समझा जाता। इसने 20.09.2025 को स्वामी दास को भेजी सूचना में लगातार 30 से 60 घंटे ड्यूटी का उल्लेख किया। इसी संस्थान ने 25.09.2025 को भेजी गई सूचना में लगातार 30 से 36 घंटे ड्यूटी की जानकारी दी।

एम्स (भुवनेश्वर) ने 26 मार्च 2025 को भेजी जानकारी में लगातार 24 घंटों से लेकर 30 और 36 घंटों की ड्यूटी लगाने की बात स्वीकार की। इसी संस्थान की तीन जुलाई 2025 की सूचना से हर माह लगातार 24 घंटों की छह ड्यूटी का खुलासा हुआ।

एम्स (दिल्ली) के एनेस्थेसिया विभाग ने 04.10.2025 को आरटीआई के तहत स्वामी दास को एक महत्वपूर्ण सूचना दी। बताया कि लगातार 36 घंटे ड्यूटी के लिए भारतीय न्याय संहिता के तहत कानूनी कार्रवाई हेतु विभाग के प्रोफेसर इंचार्ज को उत्तरदायी समझा जाएगा। लेकिन ड्यूटी रिकॉर्ड्स में फर्जीवाड़ा होने के कारण यह बात सामने नहीं आ पाती कि किसी स्टूडेंट ने वास्तव में कितने घंटे काम किए।

वंदना दास 23 वर्षीय हाउस सर्जन थीं, जिनकी 10 मई, 2023 को केरल के कोट्टाराकारा तालुका अस्पताल में हत्या कर दी गई थी। ड्यूटी पर तैनात 42 वर्षीय स्कूल शिक्षक संदीप नामक एक मरीज ने उन्हें चाकू मारकर घायल कर दिया था।

एम्स में तीन गुना ज्यादा काम

एम्स नागपुर में पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स को तीन गुना ज्यादा काम करना पड़ रहा है। वरदराजदू के आरटीआइ आवेदन पर 16 अक्तूबर को एम्स नागपुर के शिशु रोग विभाग की अध्यक्ष डॉ मिनाक्षी गिरीश ने सूचना दी। इसके अनुसार अगस्त और सितंबर में स्टूडेंट्स ने हर माह कुल 540 घंटे काम किया। प्रति सप्ताह 135 घंटे। एम्स के नियमानुसार सप्ताह में 48 घंटे तथा एक माह में कुल 192 घंटे होने चाहिए। इसके बजाय एक माह में लगातार 24 घंटे या उससे अधिक ड्यूटी 15 बार लगी। एम्स नागपुर के एनेस्थेसिया विभाग ने सितंबर 2025 में प्रत्येक रेजिडेंट डॉक्टर से 328 घंटे काम कराने की सूचना दी है। इस विभाग में सितंबर में लगातार 24 से 36 घंटे की छह या सात बार ड्यूटी लगाई गई। इमेर्जेंसी मेडिसीन विभाग के अध्यक्ष डॉ महेंद्र चौहान ने 296 घंटे तक काम कराने की सूचना दी है।

1992 की नियमावली लापता

स्वास्थ्य मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 1992 में रेजिडेंसी स्कीम लागू की थी। मैंने आरटीआइ के तहत इसकी डायरेक्टिव मांगी। विभाग ने 23.04.2025 को सूचना दी कि 1992 में मेडिकल शिक्षा संबंधी काम जिन प्रभागों के समन्वय से होते थे, उनमें बदलाव के कारण उस नियमावली की तलाश करना संभव नहीं है। प्रथम अपील में भी यही बात कही गई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारत में मेडिकल शिक्षा के लिए बने सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज को 'गायब' किया जाना जांच का विषय है।

48 घंटे के भीतर सूचना मांग रहे परिजन

आरटीआई कानून के तहत किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता से जुड़े मामले पर 48 घंटे के भीतर सूचना की मांग की जा सकती है। कुछ स्टूडेंट्स के परिजनों द्वारा अपने बेटे/बेटी या पति/पत्नी या भाई/बहन के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर खतरा बताकर अपने संस्थान से ऐसी सूचना मांगी जा रही है। कुछ मामलों में गोलमटोल सूचना मिल रही है। कुछ मामलों में सूचना तो नहीं मिल रही, लेकिन संबंधित स्टूडेंट को कुछ राहत मिल जाती है। संबंधित परिजनों के अनुरोध पर आरटीआई संबंधी ऐसे मामलों को इस रिपोर्ट में उजागर नहीं किया जा रहा है। 'द मूकनायक' के पास ऐसे RTI दस्तावेज सुरक्षित हैं।

AIIMS नागपुर से आरटीआई में प्राप्त जवाब

ड्यूटी रोस्टर में फर्जीवाड़ा

अत्यधिक ड्यूटी का सच छुपाने के लिए अधिकांश मेडिकल कॉलेजों में वास्तविक ड्यूटी रोस्टर बनाकर हरेक स्टूडेंट के काम के घंटों को रिकार्ड नहीं करने की प्रवृति भी आरटीआई के कारण सामने आई है। पांडिचेरी स्थित जिपमेर केंद्र सरकार का राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है। अक्तूबर 2025 में स्वामी दास को दी गई सूचना में भी इसका खुलासा हुआ। बताया गया कि रेजिडेंट डॉक्टर्स के काम के घंटों को रिकॉर्ड करने का कोई प्रावधान नहीं है। इसके लिए किसी को जिम्मेवारी भी नहीं दी गई है। कोई रेजिडेंट अस्पताल के वार्ड के भीतर कब और कितने घंटे मौजूद रहता है, इसका कोई आधिकारिक डेटा नहीं है।

एम्स दिल्ली के शिशुरोग विभाग ने 28.09.2025 को स्वामी दास को सूचना दी कि अस्पताल के वार्ड अथवा ओपीडी में रेजिडेंट डॉक्टर्स ने कितनी देर ड्यूटी की, इसे किसी दस्तावेज में रिकॉर्ड नहीं किया जाता।

अभिभावकों के अनुसार यह चिंताजनक बात है। उनके बच्चों के साथ संस्थान के भीतर या बाहर कोई हादसा होने पर उसकी भौगोलिक स्थिति का पता लगना मुश्किल होगा। कोई आपराधिक वारदात होने पर भी संस्थान के भीतर उसकी मौजूदगी का रिकॉर्ड नहीं मिल सकेगा।

आरटीआई से पता चला कि कॉलेज प्रबंधन वास्तविक ड्यूटी के घंटों का कोई रिकॉर्ड न रखकर ऐसे मानवाधिकार उल्लंघन को रिकॉर्ड से बाहर कर देते हैं। ज़्यादातर पीजी छात्रों को छह महीने से एक साल तक कोई छुट्टी नहीं मिल रही है। आरटीआई में सूचना मांगने पर कॉलेज बहाने बनाकर यह स्वीकार करते हैं कि वास्तविक ड्यूटी घंटों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। कई कॉलेजों में फ़र्ज़ी ड्यूटी रोस्टर बनाए जाते हैं जिनका वास्तविक ड्यूटी घंटों या छुट्टियों से कोई संबंध नहीं होता।

नेशनल टास्क फोर्स की रिपोर्ट का क्या हुआ?

नेशनल मेडिकल कमीशन ने वर्ष 2024 में नेशनल टास्क फोर्स बनाया। इसे मेडिकल स्टूडेंट्स की बढ़ती आत्महत्या और मानसिक अवसाद के कारणों का पता लगाना था। लेकिन एनटीएफ के सुझाव लागू नहीं हुए। जैसे, एनटीएफ ने मेडिकल स्टूडेंट्स की मानसिक भलाई के लिए हर साल दस दिन का पारिवारिक अवकाश देने की अनुशंसा की। इस पर आरटीआई में सूचना मांगी गई। एनएमसी ने साफ लिख दिया- 'नो एक्शन टेकन' (कोई कदम नहीं उठाया गया)।

मानसिक स्वास्थ्य की समस्या बढ़ी

नेशनल टास्क फोर्स द्वारा 787 मेडिकल छात्रों पर अध्ययन के अनुसार 37% मेडिकल छात्रों ने मन में आत्महत्या का ख्याल आया। इनमें 11% स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की योजना तक बना ली थी। रिपोर्ट के अनुसार 7% ने आत्मघाती व्यवहार के भविष्य के जोखिम का आकलन किया तथा 19.6% उत्तरदाताओं ने आत्मघाती व्यवहार प्रदर्शित किया। रिपोर्ट के अनुसार 'मेडिकल छात्र उच्च स्तर के तनाव, बर्नआउट और अवसाद का अनुभव करते हैं। इससे उनमें आत्महत्या का जोखिम बढ़ सकता है।'

यह बात स्वामी दास को जिपमेर, पांडिचेरी से अक्तूबर 2025 में मिली सूचना में भी सामने आई। इसके मानसिक चिकित्सा विभाग में तीन साल के भीतर 118 पीजी स्टूडेंट्स ने मनोवैज्ञानिक समस्याओं को लेकर परामर्श लिया। इनमें से 29 स्टूडेंट्स ने कार्यस्थल संबंधी परेशानियों, काम के अत्यधिक दबाव, वरीय स्टूडेंट्स के साथ विवाद, शैक्षणिक समस्याओं और थिसिस को लेकर फैकेल्टी के साथ तनाव जैसी शिकायतें कीं।

दिव्यांग  स्टूडेंट्स से भेदभाव

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के अंतर्गत उच्च शिक्षा संस्थानों पर सभी प्रकार की दिव्यांगताओं के साथ समावेशी व्यवहार करने की कानूनी बाध्यता है। किंतु मेडिकल कॉलेजों में दिव्यांग पीजी स्टूडेंट़स की लंबी ड्यूटी लगाकर तकनीकी सहायता, और बुनियादी पहुंच से वंचित किया जा रहा है। कई बार पोलियोग्रस्त मेडिकल स्टूडेंट को लंबी ड्यूटी के दौरान लगातार खड़े रहना पड़ता है। दिव्यांगजन की विशेष क्षमता के अनुरूप काम के बजाय सामान्य कार्य सौंपकर उत्पीड़न किया जाता है। दिव्यांग मेडिकल स्टूडेंट्स के लिए प्रयासरत डॉ सत्येंद्र सिंह के अनुसार 2016 के कानून के अनुसार यह भेदभाव है।

ऐसी शिकायतें मिलने पर भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय अतंर्गत डिपार्टमेंट ऑफ इमपावरमेंट ऑफ परसन्स विथ डिजेबिलिटीज ने दिनांक 02.07.2025 को इनके अधिकार सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था। लेकिन आरटीआई से पता चला कि आज तक दिव्यांग  मेडिकल स्टूडेंट्स की विशेष जरूरतों का ध्यान रखने के लिए कोई नियमावली तक नहीं बनाई गई है। एनएमसी द्वारा 25.07.2025 को मुझे प्रेषित सूचना में यह बात स्पष्ट हुई। ईएसआई मेडिकल कॉलेज, चेन्नई द्वारा 18.09.2025 को स्वामी दास को भेजी गई सूचना में भी स्पष्ट किया कि दिव्यांग मेडिकल स्टूडेंट्स के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं हैं।

एससी/एसटी छात्रों के साथ भेदभाव

एससी, एसटी, ओबीसी समुदायों के हाशिए पर पड़े छात्र अमानवीय ड्यूटी घंटों के साथ ही जातिगत भेदभाव का भी शिकार होते हैं। इससे उनकी रेजीडेंसी अधिक दयनीय हो जाती है। यूडीएफ की शिकायत पर अनुसूचित जाति के राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने एक अक्टूबर 2025 को एम्स दिल्ली और स्वास्थ्य मंत्रालय को नोटिस जारी किया। इस पर कार्रवाई की सूचना हेतु संबंधित विभागों और मंत्रालयों को कई आरटीआई दाखिल की गई हैं। जवाब अभी तक लंबित हैं।

एनएमसी ने कानून ही बदल डाला

भारत में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों द्वारा आवश्यक अधिसंरचना का निर्माण किए बगैर तथा फर्जी फैकेल्टी के नाम पर मान्यता लेने का फर्जीवाड़ा हो रहा है। एनएमसी एक्ट 2019 के मुताबिक इन कॉलेजों के  इंस्पेक्शन और असेसमेंट की पूरी जानकारी वेबसाइट पर डालनी है। किसी कॉलेज में एडमिशन लेने से स्टूडेंट्स को पूरी जानकारी मिलनी चाहिए। लेकिन प्राइवेट कॉलेज माफिया के आगे नतमस्तक एनएमसी ने सब कुछ गोपनीय कर दिया। वेबसाइट पर डालना तो दूर, आरटीआई में सूचना नहीं मिलती। केंद्रीय सूचना आयोग ने सूचना देने का निर्देश दिया, तो 01.05.24 को एनएमसी ने अपनी बैठक में खुद ही एनएमसी एक्ट 2019 के प्रावधान को बदल दिया। यह सूचना मुझे आरटीआई के तहत मिली। जबकि संसद का बनाया कानून खुद संसद की बदल सकती है। एनएमसी के पास ऐसे बदलाव का प्राधिकार नहीं है।

नतीजा? देश भर में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की जांच और मान्यता के नाम पर बड़े घोटाले हो रहे हैं। सीबीआइ ने 2025 में सात राज्यों के 35 आरोपियों पर मुकदमा किया। इन घोटाले के आरोपियों में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और एनएमसी के अधिकारियों के भी नाम आए हैं।

डॉ. विष्णु राजगढ़िया

प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की मनमानी

एनएमसी से मिले अभयदान के कारण प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की लूट और मनमानी के अनगिनत उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। बाराबंकी के एमआइएमएस में एमबीबीएस की छात्रा अन्विक्षा चंदेल का MBBS 2023-24 बैच में एडमिशन हुआ। उस दौरान अवैध तौर पर अत्यधिक शुल्क वसूल किया गया। सितंबर 2023 में छात्रा के पिता ने राज्य सरकार में शिकायत की। सरकार ने चार सदस्यीय जांच समिति से जांच कराई। कॉलेज के खिलाफ सारे आरोप प्रमाणित हुए। सरकार ने कॉलेज को अवैध वसूली गई राशि तत्काल छात्रा के बैंक खाते में लौटने का निर्देश दिया। कम उपस्थिति के एवज में अतिरिक्त क्लास कराकर वर्तमान परीक्षा में शामिल करने का निर्देश दिया। लेकिन डीजीएमई के स्पष्ट आदेश के बावजूद कॉलेज ने छात्रा को 4 अक्टूबर 2025 की परीक्षा में शामिल होने की अनुमति अब तक नहीं दी। इस पर आरटीआई में सूचना मांगी गई सूचना अब तक नहीं मिली है।

डेटा प्रबंधन में लापरवाही

डॉ अरूण कुमार को आरटीआई के तहत हैरतअंगेज जानकारी मिली। सूचना के अनुसार वर्ष 2020 में दिल्ली मेडिकल काउंसिल के तहत 72,636 डॉक्टरों के पंजीकरण थे। जबकि भारत सरकार ने 2024 में संसद में बताया कि दिल्ली में केवल 31,479 डॉक्टर पंजीकृत हैं। डॉक्टरों की वास्तविक संख्या को लेकर दिल्ली मेडिकल काउंसिल और भारत सरकार के आंकड़ों में 40,000 से अधिक का अंतर मिला।

ऐसा ही एक अन्य मामला डॉ बाबू केवी ने उजागर किया। एनएमसी एक्ट 2019 के तहत देश भर के डॉक्टरों का नेशनल मेडिकल रजिस्टर (एनएमआर) बनाना अनिवार्य है। लेकिन एनएमसी ने आरटीआई में सूचना दी कि डॉक्टरों द्वारा एनएमआर आईडी जारी करने के लिए आवेदन करना स्वैच्छिक है। यह एक विरोधाभास है। एनएमआर का उद्देश्य डॉक्टरों के आंकड़ों को व्यवस्थित और पारदर्शी बनाना है, लेकिन स्वैच्छिक आवेदन के कारण अब तक एक प्रतिशत डॉक्टर्स का भी नाम इसमें दर्ज नहीं हो सका है।

रेजीडेंट्स सर्वाधिक असुरक्षित

अस्पतालों की पूरी जिम्मेदारी 36 घंटे ड्यूटी करते रेजीडेंट्स पर है। इस दौरान अस्पताल की किसी भी कमी के लिए उन्हें ही हिंसा का शिकार बनाया जाता है। केरल के एक सरकारी अस्पताल में 10 मई, 2023  को महिला चिकित्सक डॉ. वंदना दास की हत्या कर दी गई थी। एक मरीज ने अस्पताल की ही सर्जिकल कैंची से उनकी जान ले ली। डॉ  वंदना दास के सफेद कोट पर रक्त के निशान रेजीडेंट्स की असुरक्षा का प्रतीक हैं। लगातार 36 घंटे ड्यूटी के दौरान उनकी सुरक्षा का दायित्व किस पर है, इससे संबंधित कई आरटीआई के जवाब अब तक नहीं मिले हैं।

ऐसे सैकड़ों आरटीआई आवेदन विभिन्न प्राधिकरण के पास दाखिल किए जा रहे हैं। आरटीआई से मिली इन सूचनाओं से पता चलता है कि भारत में मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं खुद बीमार हैं। इसका शिकार मेडिकल स्टूडेंट्स के साथ ही खराब गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवा के कारण नागरिकों को भी होना पड़ रहा है।

विष्णु राजगढ़िया एक मीडिया एडुकेटर तथा आरटीआई का उपयोग करने वाले स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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