भोपाल। वैशाख पूर्णिमा पर मनाई जाने वाली बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर विश्वप्रसिद्ध सांची स्तूप एक बार फिर देश-विदेश से आने वाले बौद्ध श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए तैयार है। जिला प्रशासन और पर्यटन विभाग ने आयोजन से जुड़ी तमाम तैयारियों को अंतिम रूप दे दिया है। सुरक्षा व्यवस्था से लेकर सफाई, पेयजल और स्वास्थ्य सुविधा तक की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित की गई है।
सांची के ऐतिहासिक स्तूप परिसर को विशेष रूप से सजाया गया है। परिसर के चारों ओर रंगीन लाइटिंग की गई है, और स्वागत द्वारों पर पारंपरिक अलंकरण लगाए गए हैं। पार्किंग, पेयजल और शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं को बेहतर बनाने के निर्देश अधिकारियों को पहले ही दिए जा चुके थे।
विदेशी अनुयायी भी पहुँच रहे
प्रशासन को इस बार थाईलैंड, श्रीलंका, जापान, म्यांमार और भूटान जैसे देशों से बौद्ध भिक्षुओं और श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद है। विदेशी आगंतुकों की सुविधा के लिए भाषा अनुवादकों और वालंटियर्स की टीम भी तैनात की गई है। साथ ही, पर्यटन सूचना केंद्र को अपडेट कर दर्शकों को बौद्ध स्थलों की जानकारी देने की व्यवस्था भी की गई है।
सांची का ऐतिहासिक महत्व
सांची का महास्तूप मध्य प्रदेश के रायसेन ज़िले में स्थित है, जिसे तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने बनवाया था। यह स्तूप मूलतः एक अर्धगोलाकार गुंबद है, जो बौद्ध धर्म के प्रतीक चिह्नों और उपदेशों को दर्शाता है। स्तूप का उद्देश्य बुद्ध के अवशेषों को सुरक्षित रखना और उनके उपदेशों का प्रचार करना था। प्रारंभ में यह केवल एक ईंटों का टीला था, जिसे बाद में शुंग और सातवाहन काल में पत्थरों और अद्भुत नक्काशीदार तोरण द्वारों से सजाया गया।
सांची के महास्तूप के चारों ओर बने तोरण द्वार इसकी सबसे बड़ी विशेषता हैं। ये तोरण द्वार न केवल वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत सुंदर हैं, बल्कि इनमें बुद्ध के जीवन की घटनाओं को प्रतीकात्मक रूप में दर्शाया गया है। इन नक्काशियों में बुद्ध के जन्म, महाभिनिष्क्रमण, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण जैसे प्रसंगों को कलात्मक शैली में उकेरा गया है। इनमें बौद्ध प्रतीक जैसे अशोक चक्र, हाथी, घोड़ा और वटवृक्ष के माध्यम से बुद्ध की उपस्थिति को दर्शाया गया है, क्योंकि उस काल में बुद्ध की प्रतिमा निर्माण प्रचलन में नहीं थी।
सांची महास्तूप केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत और बौद्ध स्थापत्य कला का जीवंत उदाहरण भी है। यह स्थान बौद्ध भिक्षुओं के लिए ध्यान और अध्ययन का प्रमुख केंद्र रहा है। यहाँ स्तूपों के साथ-साथ विहार, मंदिर और स्तंभ भी पाए जाते हैं, जो उस काल की सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों को प्रतिबिंबित करते हैं। सांची का स्थापत्य यह प्रमाणित करता है कि भारत में बौद्ध धर्म ने किस तरह गहरी जड़ें जमाई थीं।
द मूकनायक से बातचीत करते हुए शिक्षाविद्, शोधकर्ता डॉ. स्मिता राशी ने कहा, "बुद्ध पूर्णिमा का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों, करुणा और सामाजिक न्याय के व्यापक संदेश में निहित है।"
बुद्ध पूर्णिमा, जिसे वैशाख पूर्णिमा भी कहा जाता है, बौद्ध धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। यही वह दिन है जब बोधिसत्व सिद्धार्थ का जन्म हुआ, उन्हें बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। लगभग 2500 वर्ष पूर्व घटित इन घटनाओं के बावजूद आज भी बुद्धत्व की ऊर्जा, उनके उपदेश और शिक्षाएं विश्वभर में प्रासंगिक हैं। मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के सांची में स्थित स्तूप, एकाश्म स्तंभ और मठ न केवल बौद्ध कला के अनुपम उदाहरण हैं, बल्कि यह स्थान बुद्ध के प्रिय शिष्यों सारिपुत्र और महामोद्लायन के अवशेषों के कारण भी विशेष है।
उन्होंने कहा, बुद्ध पूर्णिमा न केवल भारत, बल्कि श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों में भी श्रद्धा से मनाई जाती है। इस वर्ष यह पर्व 12 मई (सोमवार) को मनाया जाएगा। सांची में प्रत्येक वर्ष बौद्ध धर्म सम्मेलन और मेला आयोजित होता है, जिसमें भूटान, चीन, जापान, कंबोडिया, श्रीलंका सहित कई देशों से भिक्षुक, भंते और अनुयायी सम्मिलित होते हैं। इन आयोजनों के माध्यम से न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक संवाद भी सशक्त होता है। मध्यप्रदेश के विभिन्न हिस्सों में श्रामणेर बनने के शिविर, बच्चों के लिए विशेष कक्षाएं, जुलूस, व्याख्यान और धम्म ध्वज फहराने जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से बुद्ध धम्म का प्रचार-प्रसार निरंतर जारी है।
गौतम बुद्ध की शिक्षा – चार आर्य सत्य, मध्यम मार्ग, आष्टांगिक मार्ग, दस शील और ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ – आज भी मानव समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में सक्षम हैं। बौद्ध धर्म वह पहला धर्म था जिसने सिद्धांतों और विवेक के आधार पर सामाजिक बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया। मध्यप्रदेश के अनेक समुदायों ने स्वेच्छा से इस धर्म को अपनाया है। बुद्ध की शिक्षाएं न केवल भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित कर रही हैं, बल्कि वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी – विशेषकर जब दो देशों के बीच कटुता बढ़ रही हो – शांति और समझ की दिशा में यह संदेश अत्यंत आवश्यक है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र भी केवल गौतम बुद्ध की जयंती – बुद्ध पूर्णिमा – को विशेष रूप से मनाता है।
"अप दीपो भवः" – स्वयं अपना दीपक बनो।
यूनेस्को की विश्व धरोहर में स्थान
1989 में सांची को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया, जो इसके वैश्विक महत्त्व को दर्शाता है। यह विश्वभर के पर्यटकों, इतिहासकारों और कला प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र बन गया है। सांची के स्तूप परिसर में स्थित संग्रहालय में प्राचीन बौद्ध मूर्तियाँ, मुद्राएँ, अभिलेख और अन्य ऐतिहासिक अवशेष संरक्षित हैं, जो भारत की गौरवशाली अतीत की गवाही देते हैं। यहाँ की शांत वातावरण और ऐतिहासिक गरिमा हर दर्शक को आध्यात्मिक अनुभूति कराती है।
जिला प्रशासन ने आम जनता और पर्यटकों से अपील की है कि वे आयोजन के दौरान शांति और स्वच्छता बनाए रखें। किसी भी आपात स्थिति में हेल्प डेस्क और कंट्रोल रूम से संपर्क करने के लिए मोबाइल नंबर सार्वजनिक किए गए हैं। सोमवार बुद्ध पूर्णिमा पर सांची में आध्यात्मिक शांति और ऐतिहासिक चेतना का संगम एक बार फिर देखने को मिलेगा।