नागपुर- कल्पना कीजिए कि किसी व्यक्ति जिसने कभी कानून नहीं पढ़ा या अदालत में कदम नहीं रखा, अचानक एक मामले में पक्षकार बन जाता है - खुद अपनी पैरवी करते हुए, न केवल व्यक्तिगत न्याय के लिए बल्कि एक कानूनी मिसाल के लिए बहस करता है। यह लड़ाई उस समय और भी कठिन हो जाती है जब मुकाबला किसी व्यक्ति से ना होकर सिस्टम यानी राज्य सरकार के शक्तिशाली तंत्र से है और जिसके समर्थन में सरकार के कई महकमे और सरकारी अधिवक्ता खड़े होते हैं।
दलित शोधकर्ता डॉ. क्षिप्रा कमलेश उके और डॉ. शिव शंकर दास कहते हैं, "अगर आप दलित हैं और शिक्षा ही आपकी एकमात्र संपत्ति है, और कोई आपकी इस संपत्ति को छीन लेता है - आपके सपनों को नष्ट कर देता है और समान अवसर के आपके अधिकार को छीन लेता है - तो आप क्या करेंगे? आप इसे जाने नहीं देंगे, आप लड़ेंगे। और यही हमने किया"।
इस दलित दंपति ने न्यायपालिका को बौद्धिक संपदा को किसी भी चल संपत्ति की तरह मूल्यवान संपत्ति के रूप में मान्यता देते हुए इसे अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुआवजे योग्य मानने के लिए मजबूर करके इतिहास रच दिया है।
उन्होंने अपनी बौद्धिक संपदा के नुकसान के लिए ₹127,55,11,600/- आंतरिक मूल्य और ₹3,91,85,000/- करोड़ बाह्य/साधनात्मक मूल्य का मुआवजा आकलन प्रस्तुत किया, जिससे न केवल उन्हें गहरी व्यक्तिगत और आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, अपनी आजीविका खो दी, बल्कि उनके मिशनरी प्रोजेक्ट में भी गंभीर क्षति पहुंची।
10 नवंबर 2023 को, बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए महाराष्ट्र सरकार को उन्हें हुए नुकसान का मुआवजा देने का आदेश दिया।
24 जनवरी 2025 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) को खारिज कर दिया, जिससे बॉम्बे हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला बरकरार रहा।
यह फैसला अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत बौद्धिक संपदा के नुकसान को मुआवजे योग्य मानकर एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है। मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने की।
शोधकर्ताओं की परेशानी तब शुरू हुई जब भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों के साथ मिलीभगत में, उनके मकान मालिक ने 8 सितंबर 2018 को, उनकी अनुपस्थिति में, नागपुर शहर के लक्ष्मी नगर में उनके घर पर छापा डलवाया, यह घर दीक्षाभूमि से महज आधा किलोमीटर दूरी पर है। इस दौरान उनकी सबसे कीमती चीजें चोरी हो गईं - लैपटॉप और पेनड्राइव में संग्रहित विशाल शोध डेटा, 5000 सर्वेक्षण नमूने, शैक्षणिक प्रकाशन और प्रमाणपत्र - जो वर्षों की मेहनत और प्रयास का परिणाम थे।
यह घटना मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के निर्वाचन क्षेत्र में हुई, जो 2018 में भी मुख्यमंत्री थे।
द मूकनायक से विस्तृत बातचीत में क्षिप्रा और शिव शंकर ने अपने छह साल के संघर्ष, सामाजिक दबाव, व्यवस्थागत उत्पीड़न और अपनी कानूनी यात्रा के बारे में खुलकर बात की। उन्होंने बताया कि उन्हें मुख्य रूप से उनकी जाति पहचान के कारण कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी और कैसे ब्राह्मण बहुल इलाके में किराए का घर लेने के बाद जाति का पता चलने पर जातिवाद ने असर दिखाना शुरू कर दिया।
क्षिप्रा कहती हैं, "2015 में, हमने दीक्षाभूमि के पास एक घर किराए पर लिया। बिल्डिंग और मोहल्ले में ब्राह्मणों का दबदबा था। हमारे मन में जातिवाद को लेकर कुछ विचार नहीं था, और यहां तक कि 70 वर्षीय मकान मालिक ने भी हमारी जाति के बारे में नहीं पूछा। वह एक अच्छे किरायेदार में शिक्षा, स्थिर नौकरी और खान-पान की प्राथमिकताएं देखते थे। शिव शंकर, जो 'दास' उपनाम रखते हैं, ने जब बताया कि वह शुद्ध शाकाहारी हैं तो शायद उन्हें ब्राह्मण समझ लिया गया।"
उन्होंने आगे बताया, "मकान मालिक दोस्ताना व्यवहार रखते थे - वह अक्सर हमारे यहां आते थे, हमारे नाश्ते और ग्रीन टी स्वीकार करते थे, और यहां तक कि उन्होंने हमें अपनी पोती के नामकरण समारोह में भी बुलाया। यह हमारे परिवारों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को दर्शाता था। हालांकि, चीजें तब बदल गईं जब हमने अपना सैंपल कलेक्शन का काम शुरू किया और रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए। हमारी उपस्थिति कई लोगों के लिए आंखों में चुभने लगी।" उल्लेखनीय है कि क्षिप्रा ने JNU छात्र संघ के चुनाव में भी हिस्सा लिया था।
क्षिप्रा ने कहा, "रोहित वेमुला फाइट्स बैक के बैनर तले, हमने 10,000 प्रतिभागियों के साथ एक शक्तिशाली विरोध रैली का आयोजन और नेतृत्व किया। 30 जनवरी 2016 को, हमने नागपुर में RSS मुख्यालय की ओर मार्च किया, 'बैन RSS' के हमारे मुख्य नारे के साथ न्याय की मांग की। यह इतिहास में पहली बार था कि ऐसा मार्च हुआ था। रैली के बाद, हमारे कुछ परिचितों ने हमें चेताया कि हम उनकी नजर में आ गए हैं और अब उनके रडार पर हैं।"
सात-आठ महीने के रहने के बाद, एक बार हमारे मकान मालिक हमसे मिलने आए और अपनी चिंताएं व्यक्त कीं, उन्होंने कहा कि ब्राह्मण बहुल इलाके में गैर-ब्राह्मणों के रहने से पड़ोसी असहज हैं। क्षिप्रा ने बताया, " बुजुर्ग मकान मालिक ने हमें बताया कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से हमसे कोई समस्या नहीं थी, लेकिन चूंकि पड़ोसी असहज थे, उन्हें उनसे निपटने में कठिनाई हो रही थी।
हालांकि, उन्होंने हमें सीधे खाली करने को नहीं कहा। लेकिन जनवरी 2016 में, जब सालाना किराये समझौते को नवीनीकृत करने का समय आया और हमने उनसे ऐसा करने का अनुरोध किया, तो उन्होंने हमें बताया कि वह इसे रीन्यू करने के मूड में नहीं हैं। हालांकि, उन्होंने हमें 10% किराया बढ़ाने की शर्त पर रहने की अनुमति दे दी, जिसके लिए हम सहमत हो गए।
यह व्यवस्था जुलाई 2016 तक चली, लेकिन दुर्भाग्य से उनका देहांत हो गया। फिर घर का स्वामित्व उनके बेटे को मिला, जो पुणे में रहता और काम करता था।"
दास ने मूकनायक को बताया कि मकान मालिक का बेटा अक्टूबर 2016 में उनसे मिलने आया और अचानक उनसे एक दिन के भीतर घर खाली करने को कहा। क्षिप्रा जो उस समय आठ महीने की गर्भवती थीं ने सख्ती से जवाब दिया, "हमने उन्हें बताया कि हम अनिश्चित काल तक रहने या घर पर कब्जा करने की योजना नहीं बना रहे हैं, और हम निश्चित रूप से चले जाएंगे। लेकिन 24 घंटे के भीतर खाली करना बस संभव नहीं था"। इससे बातचीत का अप्रिय अंत हुआ।
इसके बाद, मकान मालिक के बेटे ने उनसे सारा संपर्क काट दिया, लेकिन दंपति घर में रहते रहे, समय से किराया देते रहे और अपना काम करते रहे।
2018 में, जब वे शोध संबंधी काम के लिए दिल्ली में थे, मकान मालिक का बेटा उन्हें लगातार फोन करने और मिलने के लिए दबाव डालने लगा। "हमने उन्हें बताया कि जब भी हम नागपुर लौटेंगे, उनसे मिलेंगे, और हमने अपना वादा निभाया। जैसे ही हमारी टिकटें कन्फर्म हुईं, हमने उन्हें 9 सितंबर 2018 को नागपुर में अपने आगमन के बारे में सूचित कर दिया, और वह इससे अच्छी तरह अवगत थे," दास ने कहा।
"जब हम नई दिल्ली से घर लौटे, तो हमें अपने ताले टूटे हुए और अपना सामान क्षतिग्रस्त और भवन में बिखरा हुआ मिला। परेशानी में, हमने तुरंत 100 पर कॉल किया और एफआईआर दर्ज कराने के लिए बजाज नगर पुलिस स्टेशन भागे, लेकिन कोई अधिकारी हमारी शिकायत दर्ज करने को तैयार नहीं था"। हालांकि, पुलिस ने उनकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया, उन्हें अपनी नन्ही बेटी के साथ पूरे दिन थाने में इंतजार कराया गया। "ड्यूटी पर तैनात अधिकारी ने हमें बताया कि चूंकि रविवार था, इसलिए हमारी शिकायत दर्ज नहीं की जा सकती," क्षिप्रा ने बताया।
"इस बीच, हमने अपने मकान मालिक से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनका असामान्य व्यवहार और पड़ोसियों से मिली जानकारी से यह स्पष्ट हो गया कि वह अपराध में शामिल था। यह एहसास होने पर, हमने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का फैसला किया।"
कोई राह ना दिखने पर दंपति पुलिस संयुक्त आयुक्त से मिले, जिन्होंने आखिरकार अधिकारियों को मामला दर्ज करने का निर्देश दिया - हालांकि केवल मामूली धाराओं में शिकायत ली गई।
दोषी अधिकारियों को राज्य का संरक्षण: जाति अत्याचार मामले में पुलिस ने कैसे अपनों को बचाया?
जांच के दौरान, मकान मालिक के दो और साथी और कुछ पुलिस कर्मी भी इस मामले में शामिल पाए गए।
कुछ महीनों बाद, दंपति द्वारा जाति आधारित अत्याचारों का सबूत देने पर आरोपियों के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत धाराएं लगा कर चार्जशीट दाखिल की गई। हालांकि, पुलिस ने अपराध में शामिल अपने पुलिस कर्मी और अधिकारियों को बचा लिया, और उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया।
"एक पुलिस अधिकारी ने एक झूठा दस्तावेज बनाया, जो मकान मालिक की ओर से एक लिखित पत्र था, जिसमें दावा किया गया था किरायेदार छह महीने पहले घर छोड़कर चले गए थे और उसे चाबियां लौटाना चाहते थे। चूंकि मकान मालिक पुणे में रहता था, वह चाबियां नहीं ले सका। यह पत्र एक अधिकारी द्वारा तैयार किया गया था और घर पर छापा मारने के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल किया गया था, यह बात एक महिला कांस्टेबल ने जांच के दौरान अपने बयान में कही जिसे रिकॉर्ड में लिया गया," क्षिप्रा ने बताया।
आगे की जांच से जनवरी 2019 में एक महत्वपूर्ण खोज हुई, जब क्राइम ब्रांच, नागपुर ने आरोपियों से चोरी की गई कुछ संपत्ति बरामद की। इसमें 33 मूल शैक्षणिक प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, शोध सर्वेक्षण फॉर्म और अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेज शामिल थे, जो स्थानीय पुलिस स्टेशन में जमा किए गए थे। आश्चर्यजनक रूप से, इनमें से कुछ सामान बाद में पुलिस हिरासत से गायब हो गए।
क्षिप्रा ने कहा, "अदालत में चार्जशीट दाखिल करने से पहले, पुलिस ने अपनी हिरासत से अपराध से जुड़े 16 में से 11 महत्वपूर्ण सबूतों को खत्म कर दिया। जनवरी 2019 में विभागीय जांच में चार पुलिसकर्मियों को हमारे घर में साजिश रचने और अवैध रूप से तोड़फोड़ करने का दोषी पाया गया, फिर भी उन पर न तो मामला दर्ज किया गया और न ही चार्जशीट दाखिल की गई। इसके अलावा, दो जांच अधिकारियों को झूठे सबूत गढ़ने का दोषी पाया गया, और एक अन्य पुलिस निरीक्षक को पुलिस हिरासत से सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने और उन्हें गायब करने का जिम्मेदार ठहराया गया।"
अब तक कई विभागीय जांचों में कुल सात पुलिसकर्मी दोषी पाए गए हैं। लेकिन मुकदमे में नामजद होने के बजाय, वे राज्य द्वारा संरक्षित होते रहे हैं। "हम दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने और उन्हें जाति अत्याचार कानून के तहत सजा देने की मांग कर रहे हैं लेकिन विभाग ने उन्हें बचाया। अधिकारियों का कहना है कि चूंकि पुलिसकर्मियों को विभागीय स्तर पर एक बार सजा मिल चुकी है, हम उन्हें एक ही गलती के लिए दोबारा सजा नहीं दे सकते। सजा भी क्या दी - निलंबन या बर्खास्त करने की जगह सिर्फ इन्क्रीमेंट रोका गया, हालांकि, हम मामले में लड़ रहे हैं और तब तक पीछे नहीं हटेंगे जब तक वे भी जेल नहीं जाते।"
महत्वपूर्ण डेटा की चोरी: प्रोफेशनल और आर्थिक तौर पर भारी नुक्सान
शोधकर्ताओं की बहुमूल्य बौद्धिक संपदा चोरी हो गई, जिसमें नागपुर शहर के युवाओं की राजनीतिक जागरूकता पर आधारित 5000 सैंपल का शोध डेटा, लैपटॉप, पेन ड्राइव, हार्ड डिस्क और एक शोध पांडुलिपि शामिल थी। उनके लैपटॉप में अमरावती स्थित एनजीओ VARHAD के उन कैदियों से जुड़े गोपनीय डेटा भी थे, जिनके सम्मान और अधिकारों के लिए वे कार्य कर रहे थे। शिप्रा और शिवशंकर दास इस संस्था में सलाहकार के रूप में जुड़े थे।
इस डेटा की चोरी ने उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया। वे तीन केंद्रीय मंत्रियों—उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत—के सामने एक महत्वाकांक्षी ONGC CSR प्रोजेक्ट की प्रस्तुति देने में विफल रहे। साथ ही VARHAD संस्था भी आवश्यक डेटा के खो जाने के कारण फंडिंग के लिए प्रेजेंटेशन नहीं दे सकी, जिससे उसकी वित्तीय सहायता प्राप्त करने की संभावनाएं समाप्त हो गईं। इस डेटा की चोरी के कारण शिप्रा और शिवशंकर दास को VARHAD में अपनी नौकरियां भी गंवानी पड़ीं।
उन्होंने बताया, "हमारे शैक्षणिक दस्तावेज़ न होने के कारण, हम किसी भी नई नौकरी या अकादमिक पद, जैसे पोस्ट-डॉक्टोरल फेलोशिप या शिक्षण के लिए आवेदन नहीं कर पाए। यह नुकसान सिर्फ हमारी आजीविका छीनने तक सीमित नहीं था, बल्कि हमें भारत में अपने शोध और प्रशिक्षण कार्य को जारी रखने के समान अवसर के मौलिक अधिकार से भी वंचित कर दिया गया, जिसे हम अपनी नॉट-फॉर-प्रॉफिट कंपनी के जरिए कर रहे थे।"
"यह केवल डिग्रियों और प्रमाणपत्रों को खोने का मामला नहीं है, बल्कि यह आपके पूरे करियर के नष्ट होने जैसा है। मैं अपने मार्कशीट और डिग्रियों की डुप्लीकेट कॉपी तो प्राप्त कर सकती हूं, लेकिन उन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और संगोष्ठियों का क्या, जिनमें मैंने भाग लिया? उन मौलिक शोध प्रकाशनों का क्या? जब मैं किसी नौकरी के लिए आवेदन करूंगी, तो चयन समिति पहले मेरे मूल प्रमाणपत्रों का सत्यापन करेगी, और मेरे पास केवल डुप्लीकेट होंगे। अकादमिक प्रदर्शन सूचकांक (API), जो किसी उम्मीदवार की मेरिट और वरिष्ठता तय करता है, वहां मैं एक नए उम्मीदवार की तरह दिखूंगी, अपनी पूरी वरिष्ठता खो दूंगी। यह नुकसान अवर्णनीय और अकल्पनीय है," शिप्रा ने कहा।
SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत बौद्धिक संपदा हानि के मुआवजे के लिए न पूर्व उदाहरण, न ही कानूनी प्रावधान
अप्रैल 2022 में जातिगत अत्याचारों के शिकार लोगों के अधिकारों की रक्षा करने वाली संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) ने, नागपुर जिला प्रशासन को मामले की जांच करने और बौद्धिक संपदा की हानि सहित कार्रवाई रिपोर्ट (ATR) प्रस्तुत करने की सिफारिश की थी। इसके बाद आयोग ने राज्य सरकार को कई बार याद दिलाया, लेकिन प्रशासन ने कभी भी ATR दाखिल नहीं की।
इन सिफारिशों को लागू करवाने के लिए पीड़ितों को बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख करना पड़ा। जब यह सवाल किया गया कि कानूनी पृष्ठभूमि न होने के बावजूद इस दंपति ने खुद ही अपना केस लड़ने का फैसला क्यों किया, तो शिप्रा ने जवाब दिया— वकीलों में "अध्ययन और ज्ञान की कमी और भरोसे नहीं होना।" उन्होंने बताया कि चूंकि यह लड़ाई राज्य मशीनरी के खिलाफ थी, इसलिए वकीलों के पक्षपातपूर्ण होने की आशंका बनी रहती।
"यह अपनी तरह का पहला मामला था। एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम में बौद्धिक संपदा की क्षति के लिए मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं था। हमने कई वकीलों से संपर्क किया, लेकिन पाया कि वे इस अधिनियम की मूल समझ तक नहीं रखते थे और इसे ठीक से पढ़ने को भी तैयार नहीं थे। मेरे पूरे करियर और सपनों को नुकसान हुआ था, इसलिए हमने खुद गहराई से अध्ययन करने का निर्णय लिया। हमें सालों तक शोध करना पड़ा—200 साल पुराने से लेकर हालिया वैश्विक मामलों तक, जिनमें बौद्धिक संपदा और अत्याचार से जुड़े कानूनी प्रावधान शामिल थे। हमने खुद अपने तर्क तैयार किए और जजों के सामने पेश किए, जिन्होंने हमारी दलीलों को धैर्यपूर्वक सुना," शिप्रा ने कहा।
इस दंपति ने बताया कि जब समाज कल्याण विभाग, कलेक्टरेट और पुलिस सहित विरोधी पक्ष के दर्जनों लोग अदालत में उपस्थित थे, तब वे घबरा गए थे। "एक समय तो मैंने अपना आत्मविश्वास खो दिया और सोचा कि हम इस पूरे सिस्टम के खिलाफ कैसे जीत पाएंगे? लेकिन हमें अपनी शिक्षा और ज्ञान पर भरोसा था। हमने गहराई से अध्ययन किया और अपनी बात मजबूती से रखी। केवल अपने शोध और तथ्यों के दम पर हमने न्यायाधीशों को यह समझाने में सफलता पाई कि हमारा मुआवजे का दावा पूरी तरह से न्यायोचित और तार्किक है।"
नुकसान की व्याख्या और मुआवजे के लिए न्यायिक संघर्ष
किसी भी कानूनी पृष्ठभूमि या न्यायालयी प्रक्रिया के अनुभव के बिना, इस दंपति ने स्वयं अपना केस लड़ा, जो अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी।
अपराध की प्रकृति स्पष्ट थी—चूंकि राज्य पुलिस इस अपराध में शामिल थी, महाराष्ट्र सरकार इस बात से इनकार नहीं कर सकती थी कि उनकी बौद्धिक संपदा (Intellectual Property) की हानि हुई।
लेकिन मुख्य बाधा थी सरकार की संकीर्ण व्याख्या, जिसके तहत महाराष्ट्र सरकार ने दो प्रमुख दलीलें दीं—
1️. अत्याचार निवारण अधिनियम (SC/ST PoA Act) का दायरा:
सरकार ने दावा किया कि यह अधिनियम केवल भौतिक संपत्ति (Physical Property) की रक्षा करता है, जैसे मकान या चल संपत्ति, और इसमें अमूर्त संपत्ति (Intangible Assets) जैसे शोध डेटा या बौद्धिक संपदा शामिल नहीं हैं।
2️. नुकसान का आकलन करने में असमर्थता:
सरकार ने कहा कि अमूर्त हानि का मूल्यांकन करना मुश्किल है, इसलिए इस पर मुआवजा तय नहीं किया जा सकता।
इन तर्कों का खंडन करने के लिए, दंपति ने कानूनी प्रावधानों का सहारा लिया—
SC/ST (PoA) अधिनियम की धारा 2(1)(f), भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 22 और 24, तथा सामान्य उपबंध अधिनियम (General Clauses Act), 1897 की धारा 3(26) और 3(36) का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि बौद्धिक संपदा भी एक प्रकार की चल संपत्ति (Movable Property) है और इसे अधिनियम के तहत मुआवजे योग्य माना जाना चाहिए।
उन्होंने दो तरीके सुझाए, जिनसे उनके बौद्धिक संपदा और शोध डेटा के नुकसान का मूल्यांकन किया गया—
बाह्य/प्रयुक्ति मूल्य (Extrinsic/Instrumental Value): ₹3,91,85,000/-
आंतरिक मूल्य (Intrinsic Value): ₹127,55,11,600/-
उन्होंने यह साबित किया कि इस हानि ने न केवल उनके जीवन और आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया, बल्कि उनके मिशनरी प्रोजेक्ट—डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीतिक विद्यालय (Political School) को पुनर्जीवित करने के प्रयासों को भी बाधित कर दिया।
सुनवाई पूरी होने के बाद 5 जुलाई 2023 को अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा और 10 नवंबर 2023 को निर्णय सुनाया।
➡ बॉम्बे हाईकोर्ट ने आंशिक रूप से याचिका स्वीकार करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के तहत शोधकर्ताओं को बौद्धिक संपदा की हानि का मुआवजा दिया जाए।
महाराष्ट्र सरकार ने इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर कर इसे चुनौती दी।
24 जनवरी 2025 को न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने महाराष्ट्र सरकार की दलीलें सुनीं और अपना आदेश पारित किया—
"हमने याचिकाकर्ता (महाराष्ट्र सरकार) के वकील की दलीलें विस्तार से सुनी हैं। हमें विशेष अनुमति याचिका (SLP) में कोई दम नजर नहीं आता। अतः यह याचिका खारिज की जाती है।"
इस ऐतिहासिक फैसले के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा और पीड़ितों को मुआवजा देने का रास्ता साफ किया।
नागपुर कलेक्टर ने की आदेश की अवहेलना: अदालत की अवमानना याचिका दायर करने की तैयारी
हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक 16 जनवरी तक मुआवजा दिया जाना था। एक तरफ जहां महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की, वहीं दूसरी ओर नागपुर जिला मजिस्ट्रेट ने शोधकर्ताओं को 9 जनवरी को अपने कार्यालय में व्यक्तिगत सुनवाई के लिए बुलाया। उन्होंने हाईकोर्ट के आदेश का पालन करते हुए मुआवजा देने के लिए रिपोर्ट बनाने की बात कही।
"हालांकि, हमने व्यक्तिगत उपस्थिति के बजाय वर्चुअल सुनवाई की मांग की, जिसे पहले अस्वीकार कर दिया गया। लेकिन जब हमने कानून और नियमों का हवाला दिया, जो वर्चुअल सुनवाई को अनुमति देते हैं, तब जाकर हमारी बात मानी गई।"
ऑनलाइन बैठक होने के बावजूद प्रशासन ने मुआवजा जारी नहीं किया और अदालत के आदेश का पालन नहीं किया।
अब, शोधकर्ता प्रशासन के खिलाफ अदालत की अवमानना (Contempt of Court) याचिका दायर करने की योजना बना रहे हैं।
क्षिप्रा ने कहा, "जैसे ही हमें मुआवजा मिलेगा, हम नई शुरुआत कर सकेंगे और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीतिक विद्यालय (Political School) को पुनर्जीवित करने के अपने मिशन को ठोस रूप दे पाएंगे"।
दंपति ने कहा, "हमारी छह साल लंबी कानूनी लड़ाई संविधान में हमारे विश्वास, हमारी गरिमा और बाबासाहेब आंबेडकर की शिक्षाओं की प्रेरणा के कारण संभव हुई।"
मौन पीड़ा: लंबी कानूनी लड़ाई के बीच मेट्टा का बचपन
दंपति के इस संघर्ष में एक मूक पीड़िता भी थी—उनकी 8 वर्षीय बेटी मेट्टा, जिसने 7 साल तक स्कूल नहीं देखा। लगातार मिल रही धमकियां, प्रशासन द्वारा किए गए मानसिक उत्पीड़न और राज्य मशीनरी के दुरुपयोग ने पूरे परिवार पर गहरा असर डाला।
"हमने महसूस किया कि हमारी ज़िंदगी अब आसान नहीं रही।" उन्होंने सामाजिक मेल-मिलाप बंद कर दिया, रिश्तेदारों से मिलना-जुलना छोड़ दिया और दोस्तों से केवल संक्षिप्त और औपचारिक बातचीत तक सीमित रह गए। कोई जन्मदिन समारोह, शादी, या सामाजिक आयोजन में शरीक नहीं हुए।
इस अलगाव ने मेट्टा को गहरा प्रभावित किया। वह पूरी तरह अंतर्मुखी (Introvert) बन गई, उसके कोई दोस्त नहीं थे, और केवल माता-पिता ही उसके साथी थे। माता-पिता ने उसे घर पर पढ़ाने की ज़िम्मेदारी खुद उठाई।
पिछले साल जब परिवार एक नए स्थान पर शिफ्ट हुआ, तब पहली बार मेट्टा को स्कूल जाने और दोस्त बनाने का अवसर मिला।