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भोजन के लिए ब्राह्मणों ने किया अपमान, फिर सड़क पर कुत्तों के साथ खाना...जानिए काशी की इस घटना ने कैसे बनाया एक युवक को दलित-बहुजनों का मसीहा!

17 सितंबर, 1879 को जन्मे ई.वी. रामासामी 'पेरियार' को दुनिया एक तार्किक विचारक, समाज सुधारक और ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी के तौर पर जानती है। यूनेस्को ने उन्हें 'आधुनिक युग का मसीहा' और 'दक्षिण-पूर्वी एशिया का सुकरात' कहा है। लेकिन इस महान विचारक और समाज सुधारक के अंदर जो आग जलीं, उसकी एक बड़ी वजह भारत के सबसे 'पवित्र शहर' काशी (वाराणसी) में हुआ एक दर्दनाक वाकया है। वो घटना जब एक युवक को भूखे पेट सड़क पर कुत्तों के साथ खाना खाने को मजबूर होना पड़ा, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं था।

इस घटना ने उनके दिल में हिंदू देवी-देवताओं और जाति व्यवस्था के प्रति गहरी नफरत पैदा कर दी।

काशी की वो दर्दनाक घटना जिसने बदल दिया एक युवक का जीवन

साल 1904- उम्र महज 25 साल। युवा रामासामी धार्मिक आस्था और तीर्थयात्रा के भाव से काशी पहुंचे। लेकिन जल्द ही उनकी आस्था को एक ऐसा झटका लगा, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

भूख लगने पर वह एक धर्मशाला में भोजन की तलाश में पहुंचे। लेकिन वहां उन्हें मुफ्त में भोजन करने से इनकार कर दिया गया। कारण? वह ब्राह्मण नहीं थे। उन्हें बताया गया कि यह सुविधा सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है। बाकी सभी जातियां इससे वंचित हैं।

कई दिनों से भूखे पेरियार ने एक योजना बनाई। उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण किया। कंधे पर जनेऊ डाला और दोबारा धर्मशाला में घुसने की कोशिश की। लेकिन उनकी मूंछों ने उन्हें धोखा दे दिया। द्वारपाल ने उन्हें पहचान लिया और न सिर्फ प्रवेश करने से रोका, बल्कि बेरहमी से सड़क पर धकेल दिया।

उस वक्त तक भीतर भोजन समाप्त हो चुका था और जूठन से भरी पत्तलें सड़क पर फेंकी जा रही थीं। कई दिनों की भूख से तड़प रहे युवा रामासामी मजबूर हो गए। उन्होंने उन्हीं पत्तलों में बचा-खुचा खाना खाना शुरू कर दिया। हैरान करने वाली बात ये थी कि उस वक्त वहां कुत्ते भी उन्हीं पत्तलों में खाना खा रहे थे। एक इंसान को अपनी भूख मिटाने के लिए कुत्तों के साथ खाना खाना पड़ा।

दीवार पर लिखे शब्दों ने खोला राज, उठे गंभीर सवाल

खाना खाते समय ही पेरियार की नजर धर्मशाला की दीवार पर लगे एक बोर्ड पर पड़ी। उसमें लिखा था - "उक्त धर्मशाला खासतौर पर सर्वोच्च वर्ण यानी ब्राह्मणों के लिए है। इस धर्मशाला का निर्माण तमिलनाडु के एक अमीर द्रविड़ व्यापारी ने करवाया था."

ये पढ़कर युवा रामासामी के दिमाग में तूफान आ गया। कई सवाल उठे:

  • "जब यह धर्मशाला एक द्रविड़ व्यापारी की बनवाई हुई है, तो ब्राह्मण अन्य द्रविड़ों को यहाँ भोजन करने से कैसे रोक सकते हैं?"

  • "आखिर क्यों ब्राह्मण इतना क्रूर व्यवहार करते हैं कि वे द्रविड़ समेत अन्य समुदायों को भूखा मारने तक में गुरेज नहीं करते?"

  • "क्यों यह जाति-व्यवस्था लोगों की जान तक ले लेती है?"

इन सवालों के जवाब उन्हें कहीं नहीं मिले। काशी में ब्राह्मणों की वजह से हुए इस अपमान ने पेरियार के हृदय में गहरे जख्म कर दिए। इस घटना ने उनके मन में आर्य नस्ल और उसके असंख्य देवी-देवताओं के प्रति गहरी घृणा पैदा कर दी।

हालांकि काशी को ब्राह्मण सर्वाधिक पवित्र शहर मानते हैं, लेकिन पेरियार ने वहां अनैतिक गतिविधियाँ, वेश्यावृत्ति, धोखाधड़ी, लूट और भीख माँगने जैसी घटनाएँ इतनी ज्यादा देखीं कि उनका इस तथाकथित पवित्र शहर से पूरी तरह मोहभंग हो गया। कुछ समय बाद वे दोबारा गृहस्थ जीवन की ओर लौट आए।

सफल कारोबारी कैसे बना समाज सेवी

इरोड वापस पहुँचने पर उनके पिता ने अपना पूरा कारोबार उन्हें सौंप दिया। उन्होंने अपने सबसे बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान का नाम रखा 'ई.वी. रामासामी नायकर मंडी'। वे एक सफल उद्योगपति थे, लेकिन उनका मन समाजसेवा में लगता था।

एक बार इरोड में प्लेग की घातक बीमारी फैली। सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों लोग अपनी जान बचाने के लिए वहाँ से भाग खड़े हुए। लेकिन, पेरियार ने अन्य अमीर व्यापारियों की तरह शहर नहीं छोड़ा। प्लेग के संक्रमण से भयभीत होकर सन्तानों और करीबियों द्वारा त्याग दिए गए शवों को उन्होंने खुद श्मशान पहुँचाया और उनका अंतिम संस्कार सुनिश्चित किया।

इरोड के 'बाजार स्ट्रीट' के व्यापारियों पर उनका जबरदस्त प्रभाव था। उन्होंने अपनी निष्पक्षता और सही निर्णय लेने की क्षमता से कई विवाद सुलझाए। अपनी युवावस्था में वे तमिल विद्वान, पंडित शिरोमणि अयोथी थास से प्रभावित थे, जो जाति-व्यवस्था और ब्राह्मणवादी हिन्दू-धर्म की जमकर आलोचना करते थे।

पेरियार को वाल्तेयर की श्रेणी का दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और वक्ता माना जाता है।

'सच्ची रामायण' और ब्राह्मणवाद पर प्रहार

पेरियार का मानना था कि हिन्दू-धर्म और उसमें शामिल जाति-व्यवस्था खासतौर पर द्रविड़ नस्ल के दमन के लिए ब्राह्मणों द्वारा ईजाद की गई है। उन्होंने रामायण को धार्मिक किताब नहीं, बल्कि एक राजनीतिक पुस्तक करार दिया।

उनका कहना था कि रामायण को ब्राह्मणों ने दक्षिणवासियों (द्रविड़ों) पर उत्तर के आर्यों की विजय और प्रभुत्व को जायज ठहराने के लिए लिखा। यह गैर-ब्राह्मणों पर ब्राह्मणों और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व का भी उपकरण है।

रामायण की मूल अन्तर्वस्तु को उजागर करने के लिए पेरियार ने 'वाल्मीकि रामायण' के ब्राह्मणों द्वारा किए गए अनुवादों सहित 'कम्ब रामायण', 'रामचरितमानस', 'बौद्ध रामायण', 'जैन रामायण' आदि का गहन अध्ययन किया। करीब चालीस वर्षों के अध्ययन के बाद उन्होंने तमिल भाषा में 'रामायण पादीरंगल' लिखी, जिसका हिन्दी अनुवाद 'सच्ची रामायण' के नाम से प्रकाशित हुआ।

जून, 1970 में यूनेस्को ने पेरियार की विशिष्ट तर्कपद्धति और सामाजिक योगदान को देखते हुए उन्हें 'आधुनिक युग का मसीहा', 'दक्षिण-पूर्वी एशिया का सुकरात', 'समाज सुधारवादी आन्दोलनों का पितामह' तथा 'अज्ञानता, अन्धविश्वास, रूढ़िवाद और निरर्थक रीति-रिवाजों का कट्टर दुश्मन' स्वीकार किया। उन्हें वाल्तेयर की श्रेणी का दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और वक्ता माना जाता है।

24 दिसम्बर, 1973 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनके विचार आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करते हैं। काशी की वह घटना न सिर्फ पेरियार के जीवन का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई, बल्कि इसने भारत में सामाजिक न्याय और तार्किकता की एक नई लहर पैदा की। सितंबर में उनके जन्म माह में उनके संघर्ष और विचारों को याद करना प्रासंगिक हो जाता है।

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