भोपाल। मध्य प्रदेश सरकार की आरक्षण नीति पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी करते हुए एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि संविधान सम्मत आदेशों की अनदेखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। जबलपुर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर राज्य सरकार की विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि हाईकोर्ट का आदेश पूरी तरह वैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 के अनुरूप है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार को वेलरीजेंट (समझदारीपूर्ण) आदेशों का पालन करना चाहिए, न कि उन्हें चुनौती देकर समय और संसाधन बर्बाद करना चाहिए।
यह मामला प्राथमिक शिक्षक भर्ती 2023-24 से जुड़ा है, जिसमें लोक शिक्षण संचालनालय (डीपीआई) और आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा संयुक्त काउंसलिंग आयोजित की गई थी। इस काउंसलिंग में बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के ऐसे अभ्यर्थी थे, जिनके अंक सामान्य वर्ग के चयन मानक से अधिक थे। फिर भी, उन्हें जनजातीय क्षेत्रों के दूरस्थ स्कूलों में भेज दिया गया, जबकि उनसे कम अंक वाले सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों को गृह जिले में प्राथमिकता दी गई। इस भेदभाव को लेकर कई अभ्यर्थियों ने हाईकोर्ट में याचिकाएं दाखिल की थीं।
23 अक्टूबर 2024 को जबलपुर हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा था कि ऐसे सभी याचिकाकर्ता अभ्यर्थियों को उनकी पसंद के विद्यालयों में 30 दिनों के भीतर पदस्थ किया जाए। यदि पसंद के विद्यालय में पद रिक्त न हो, तो उसी जिले में अन्य किसी विद्यालय में नियुक्त किया जाए। इस आदेश को लागू करने की जिम्मेदारी डीपीआई कमिश्नर शिल्पा गुप्ता को सौंपी गई थी। लेकिन, आदेश की पालना नहीं होने पर याचिकाकर्ताओं को फिर से हाईकोर्ट का रुख करना पड़ा।
जब हाईकोर्ट के आदेश की अनदेखी की गई, तब अदालत ने सख्त रुख अपनाया और 24 मार्च 2025 को शिल्पा गुप्ता के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी करने का आदेश दिया। यह आदेश जारी होते ही राज्य शासन ने आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल कर दी, जिसमें हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज करते हुए यह साफ कर दिया कि हाईकोर्ट का फैसला पूरी तरह उचित और वैधानिक है।
कोर्ट ने कहा, 'सरकार का दिशा हीन कदम'
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि यह मामला संविधान की मूल भावना, विशेष रूप से समानता और अवसर के अधिकार से जुड़ा हुआ है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इंदिरा साहनी केस (1992) में नौ जजों की संवैधानिक पीठ द्वारा जो दिशा-निर्देश दिए गए थे, उन्हीं के अनुरूप हाईकोर्ट का आदेश पारित हुआ है। ऐसे में सरकार द्वारा इस आदेश को चुनौती देना 'गैर जिम्मेदाराना' और 'दिशाहीन' कदम है।
यह पूरा घटनाक्रम मध्यप्रदेश सरकार के आरक्षण नीति को लेकर दोहरे रवैये को उजागर करता है। एक ओर सरकार सामाजिक न्याय और बहुजन हितैषी होने का दावा करती है, वहीं दूसरी ओर संविधानसम्मत आदेशों की अवहेलना कर उन प्रतिभावान अभ्यर्थियों के अधिकारों का हनन करती है जो अनारक्षित मेरिट में चयनित होने के बावजूद अपने ही गृह जिले से वंचित कर दिए जाते हैं।
द मूकनायक से बातचीत करते हुए बरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर ठाकुर ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 की व्याख्या को और मजबूत करता है। आरक्षित वर्ग के उन अभ्यर्थियों को दूरस्थ क्षेत्रों में भेजना, जो सामान्य मेरिट में चयनित हुए हैं, पूरी तरह असंवैधानिक है। यह केवल उनके साथ अन्याय नहीं, बल्कि समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन भी है।"
"हमने पहले ही हाईकोर्ट में यह साबित कर दिया था कि सरकार की नीति न केवल भेदभावपूर्ण है, बल्कि यह बहुजन वर्ग की प्रतिभा को सज़ा देने जैसा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसएलपी खारिज किया जाना इस बात का प्रमाण है कि न्यायपालिका सामाजिक न्याय के मूल्यों को बनाए रखने के प्रति प्रतिबद्ध है।"
कमिश्नर के खिलाफ सैकड़ो अवमानना लंबित
डीपीआई कमिश्नर के खिलाफ पहले से ही 200 से अधिक अवमानना याचिकाएं हाईकोर्ट में लंबित हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि प्रशासनिक स्तर पर न्यायपालिका के आदेशों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा। यह केवल प्रशासनिक असंवेदनशीलता नहीं, बल्कि एक संवैधानिक संकट का संकेत है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद को कमजोर करता है।
यह मामला उन हजारों आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की आवाज बन गया है जिन्हें बार-बार संविधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन सभी को उम्मीद देता है कि न्याय की प्रक्रिया भले ही धीमी हो, परंतु निष्पक्ष और संविधान की मर्यादा के अनुसार ही होती है। अब देखना यह होगा कि मध्यप्रदेश सरकार और उसका शिक्षा विभाग इस निर्णय के बाद संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हैं या फिर वही पुराना टालमटोल और अपीलों का खेल चलता रहेगा।