एडवोकेट महमूद प्राचा की 2019 अयोध्या फैसले को शून्य करार देने की अपील पर दिल्ली कोर्ट ने ठोका 6 लाख रुपये जुर्माना, क्यों माना इसे निराधार?

12:02 PM Oct 27, 2025 | Geetha Sunil Pillai

नई दिल्ली: पटियाला हाउस कोर्ट की एक अतिरिक्त जिला जज की अदालत ने अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को 'ईश्वरीय हस्तक्षेप' के आधार पर चुनौती देने वाले वकील महमूद प्राचा की अपील को खारिज करते हुए उन पर भारी जुर्माना ठोका है। अदालत ने इस मुकदमे को 'फ्रिवॉलस' (निराधार) और 'कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग' करार देते हुए प्राचा पर मूल अदालत द्वारा लगाए गए 1 लाख रुपये के जुर्माने के अलावा अतिरिक्त 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। इस तरह उन पर कुल 6 लाख रुपये का जुर्माना हुआ है।

यह मामला वकील महमूद प्राचा की उस याचिका से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस धनंजय वाई. चंद्रचूड़ के एक भाषण का हवाला देते हुए अयोध्या मामले (एम. सिद्दीक बनाम महंत सुरेश दास) के फैसले को रद्द करने की मांग की थी।

प्राचा ने दावा किया था कि पूर्व CJI चंद्रचूड़ ने एक सार्वजनिक सभा में कहा था कि अयोध्या मामले का समाधान उन्हें 'भगवान श्री राम लला विराजमान' ने बताया था। प्राचा का तर्क था कि अदालत के सामने मुकदमा लड़ रहा एक पक्ष (राम लला) यदि न्यायाधीश को फैसला लिखने का रास्ता दिखाएगा, तो यह 'धोखाधड़ी' (Fraud) है और इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला रद्द किया जाना चाहिए। उन्होंने निचली अदालत में फैसले को रद्द करने और मामले की नई सुनवाई का अनुरोध किया था।

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इस याचिका को निचली अदालत ने अप्रैल 2025 में खारिज कर दिया था और प्राचा पर 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। प्राचा ने इस फैसले के खिलाफ जिला जज की अदालत में अपील दायर की।

अपील अदालत ने क्या कहा?

अपील की सुनवाई कर रहे जिला जज धर्मेंद्र राणा ने प्राचा के सभी तर्कों का विस्तार से विश्लेषण करते हुए उन्हें खारिज कर दिया। अदालत ने अपने फैसले में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:

लोकस स्टैंडी पर सहमति, लेकिन...: अदालत ने माना कि चूंकि अयोध्या मामला एक व्यापक हिंदू और मुस्लिम समुदाय के अधिकारों से जुड़ा था, इसलिए प्राचा को मुकदमा दायर करने का अधिकार (लोकस स्टैंडी) था। इस आधार पर निचली अदालत का फैसला गलत बताया।

'कॉज ऑफ एक्शन' नहीं है: अदालत ने कहा कि प्राचा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले में 'ईश्वर' और 'कानूनी व्यक्तित्व' (ज्यूरिस्टिक पर्सन) के बीच का बुनियादी अंतर ही नहीं समझा। फैसले में साफ किया गया है कि 'राम लला' एक कानूनी व्यक्तित्व हैं, जबकि 'सर्वोच्च ईश्वर' (Supreme Being) सर्वव्यापी और निराकार हैं। एक न्यायाधीश का ईश्वर से मार्गदर्शन मांगना किसी पक्षकार के साथ अनुचित संपर्क या 'धोखाधड़ी' नहीं है। अदालत ने कहा कि याचिका में कोई वैध 'कॉज ऑफ एक्शन' (मुकदमे का आधार) नहीं है।

कानून से वर्जित: अदालत ने माना कि प्राचा ने मुकदमे का ढांचा ही गलत रखा। उन्होंने अयोध्या मामले के अन्य सभी पक्षकारों को पार्टी नहीं बनाया और सिर्फ 'राम लला' को, वह भी पूर्व CJI चंद्रचूड़ को उनका 'नेक्स्ट फ्रेंड' (संरक्षक) बनाकर केस दायर किया। अदालत ने कहा कि यह 'जजेज प्रोटेक्शन एक्ट, 1985' का उल्लंघन है और सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा ऑर्डर 1 रूल 9 के तहत भी मुकदमा खारिज होने योग्य है क्योंकि जरूरी पक्षकारों को शामिल नहीं किया गया।

'फ्रिवॉलस' मुकदमे पर भारी जुर्माना जायज: प्राचा का तर्क था कि सीपीसी की धारा 35(A) के तहत अधिकतम 3000 रुपये का ही जुर्माना लगाया जा सकता है। अदालत ने इस तर्क को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि निराधार मुकदमों पर रोक लगाने के लिए 'उदाहरणात्मक और निवारक' (Exemplary and Deterrent) जुर्माना लगाना जरूरी है। अदालत ने कहा कि एक वरिष्ठ वकील होने के नाते प्राचा को कानून की इस बारीकी की जानकारी होनी चाहिए और उनका यह कदम 'कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग' है।

अदालत ने एक गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि आजकल एक 'नकारात्मक प्रवृत्ति' देखने को मिल रही है, जहां लोग महत्वपूर्ण सार्वजनिक व्यक्तियों के पद छोड़ने के बाद उन पर द्वेषपूर्ण मुकदमे करने लगते हैं। अदालत ने कहा कि उसका यह कर्तव्य है कि वह देश की सेवा में अपना जीवन लगा देने वाले लोगों को शांतिपूर्ण जीवन जीने का अवसर सुनिश्चित करे।