नई दिल्ली- दलित आंदोलन और वामपंथी विचारधारा के बीच की अनदेखी कड़ी को उजागर करने वाली एक महत्वपूर्ण किताब का लोकार्पण हाल ही में जनवादी लेखक संघ और वाम प्रकाशन के तत्वावधान में हुआ। "दलित मुक्ति से वर्ग संघर्ष तक: कॉमरेड आरबी मोरे का जीवन" नामक यह किताब रामचंद्र बाबाजी मोरे (आरबी मोरे) के जीवन पर आधारित है, जो एक प्रमुख दलित ट्रेड यूनियनिस्ट और मजदूर संगठनकर्ता थे। उनका बीसवीं सदी के पहले आधे भाग में बॉम्बे (अब मुंबई) में जाति-विरोधी और मजदूर सक्रियता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की गतिविधियों से गहराई से जुड़ी थी।
मोरे महाड़ सत्याग्रह के प्रमुख आयोजक थे, जहां 1927 में अंबेडकर ने छुआछूत के खिलाफ ऐतिहासिक आंदोलन चलाया। मोरे ने कोलाबा जिले के डिप्रेस्ड क्लासेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया, जिसमें अंबेडकर को आमंत्रित किया गया, और हजारों दलितों ने चावदार तालाब से पानी पीकर अपने अधिकारों की रक्षा की। यह आंदोलन दलित आंदोलन की आधारभूत घटना थी। किताब में इस सत्याग्रह का विस्तृत वर्णन है, जो मोरे की भूमिका को उजागर करती है।
मोरे अंबेडकर के दूसरे समाचार पत्र बहिष्कृत भारत के संस्थापक सदस्य थे, जनता से जुड़े रहे, वामपंथी समाचार पत्र आव्हान के संपादक बने, और बाद में सीपीआई(एम) के प्रकाशन जीवन मार्ग के संपादक भी रहे। किताब के लोकार्पण समारोह में वक्ताओं ने मोरे और अंबेडकर के बीच के गहरे संबंधों पर प्रकाश डाला, जिसमें महाड़ सत्याग्रह में मोरे की प्रमुख भूमिका, 1937 के चुनाव में अंबेडकर द्वारा उन्हें अपनी पार्टी का टिकट ऑफर करना, और ILO कांफ्रेंस के लिए पेरिस भेजने का प्रसंग शामिल था। यह किताब आज के फासीवादी और ब्राह्मणवादी हमलों के खिलाफ एकजुटता का संदेश देती है, जो दलित और वामपंथी आंदोलनों की प्रासंगिकता को रेखांकित करती है।
यह समारोह न केवल एक किताब के विमोचन का अवसर था, बल्कि दलित मुक्ति, वर्ग संघर्ष और अंबेडकर-मोरे के साझा संघर्ष पर गहन चर्चा का मंच भी बना। मुख्य अतिथियों में प्रख्यात वामपंथी नेत्री कॉमरेड सुभाषिनी अली, मोरे के पौत्र सुबोध मोरे, अंग्रेजी अनुवादक वंदना सोनलकर, नाटककार राजेश कुमार और आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी शामिल थे। किताब का हिंदी अनुवाद संध्या शैली ने किया है, जबकि भूमिका सुभाषिनी अली ने लिखी है।
मूल मराठी किताब 2003 में प्रकाशित हुई थी, जो मोरे की अधूरी आत्मकथा और उनके पुत्र सत्येंद्र मोरे द्वारा लिखी जीवनी का संयोजन है। समारोह में वक्ताओं ने जोर दिया कि मोरे का जीवन दलित और वामपंथी आंदोलनों को एकजुट करने की मिसाल है, और यह किताब हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है।

लोकार्पण चार प्रमुख वक्ताओं के हाथों हुआ। संपादक संजय ने किताब की अनूठी संरचना पर प्रकाश डाला: "यह हिंदी में शायद पहली किताब है, जिसमें आत्मकथा और जीवनी एक साथ हैं। मोरे की अधूरी आत्मकथा 1972 में उनके निधन के बाद बची रही, और सत्येंद्र मोरे ने इसे पूरा किया।" उन्होंने कहा कि वंचित तबकों पर बढ़ते हमलों के दौर में यह किताब एक मार्गदर्शक है। संजय ने संपादन प्रक्रिया बताते हुए कहा, "सुबोध के सहयोग से मराठी तासीर बरकरार रखी। न्यूनतम हस्तक्षेप किया, दस्तावेज जैसे कांग्रेस पत्र जोड़े।" उन्होंने कहा कि किताब में मोरे के आव्हान और जाति-वर्ग मुद्दों पर स्पष्ट दृष्टि है।
समारोह का केंद्र बिंदु रहा मोरे और अंबेडकर के बीच का गहरा जुड़ाव। सुबोध मोरे ने कहा, "आरबी मोरे का जीवन 'दलित मुक्ति से वर्ग संघर्ष तक' शीर्षक के अनुरूप है। वे महाड़ सत्याग्रह के सूत्रधार थे और अंबेडकर के करीबी सहयोगी। अंबेडकर ने उन्हें पेरिस भेजा, जहां मोरे ने दलित मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया। राहुल संकृत्यायन ने अपनी किताब नए भारत के नए नेता में मोरे को किसान, दलित और वामपंथी आंदोलनों को एकजुट करने वाले नेता के रूप में वर्णित किया।" सुबोध ने 1930 में मोरे द्वारा कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन करने का जिक्र किया, लेकिन अंबेडकर की अनुमति से। अंबेडकर ने 1937 के बॉम्बे चुनाव में मोरे को अपनी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) का टिकट ऑफर किया जिसे मोरे ने विनम्रता से इंकार कर दिया, लेकिन दोनों के संबंध मजबूत बने रहे।"
सुभाषिनी अली ने अध्यक्षता करते हुए कहा, "मोरे दोनों आंदोलनों के बीच पुल थे। उनकी बॉम्बे सक्रियता अंबेडकर से जुड़ी थी, और बहिष्कृत भारत से जीवन मार्ग तक का सफर दलित-वाम एकता का प्रमाण है।"
राजेश कुमार ने कहा, "मोरे की कहानी दलित रंगमंच को मजबूत करती है। मेरे नाटक रैदास, गांधी-अंबेडकर और हिंदू कोड बिल इसी से प्रेरित हैं।" बजरंग बिहारी तिवारी ने दलित विमर्श पर जोर दिया: "यह किताब विभिन्न भाषाओं के दलित लेखन को हिंदी से जोड़ेगी।" वंदना सोनलकर ने बताया कि किताब तेलुगु और कन्नड़ में भी अनुवादित है।