नई-दिल्ली। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित बांसा गांव अब शिक्षा की एक नयी मिसाल बन रहा है। दलित और पिछड़े समाज के बच्चों को जहां एक समय बेहतर पढ़ाई के लिए बाहर जाना मजबूरी लगती थी, वहीं अब यही बच्चे अपने गांव में, बनी ‘बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी’ में मुफ्त में पढ़ रहे हैं, सीख रहे हैं, और अपने सपनों को आकार दे रहे हैं।
बांसा की कुल आबादी करीब 11 हजार है, जिसमें सर्वाधिक संख्या अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों की है। शिक्षा और संसाधनों की कमी के चलते यहां के बच्चे अक्सर पढ़ाई से दूर रह जाते थे। लेकिन साल 2018 में जब जतिन ललित ने अपने गांव में एक लाइब्रेरी खोलने का सपना देखा, तब इस तस्वीर में बदलाव आने लगा।
गांव के मंदिर समिति ने इस सामाजिक कार्य के लिए मंदिर परिसर से जुड़ी जगह दी। इसके बाद जतिन और बाहर के लोगों से जुटाए गए क्राउड फंडिंग के माध्यम से लाइब्रेरी की नींव वर्ष 2020 दिसंबर में रखी गई। धीरे-धीरे यह पहल ‘बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी’ के रूप में विकसित हुई।
दिल्ली से प्रेरणा, गांव में बदलाव
जतिन ने स्कूली पढ़ाई पूरी कर दिल्ली जाकर वकालत की पढ़ाई की। लेकिन दिल्ली में पढ़ते हुए वे एक कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट से जुड़ गए, जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। इस लाइब्रेरी में उन्होंने देखा कि किस तरह एक जगह, जहां जाति, धर्म या लिंग की कोई दीवार न हो—लोग सिर्फ सीखने के लिए जुटते हैं।
जतिन को लगा कि ऐसा ही कुछ उनके गांव के लिए भी जरूरी है। कोविड के समय वे गाँव लौटे, और अपने गांव के बच्चों को किताबें थमाने का फैसला किया।
आज बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी में करीब 2600 बच्चे पंजीकृत हैं। रोजाना 100 से 120 बच्चे यहां आकर पढ़ते हैं, वह भी बिना किसी शुल्क के। यह लाइब्रेरी सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं है। यहां बच्चों के लिए निःशुल्क कंप्यूटर शिक्षा, करियर काउंसलिंग, और सामाजिक न्याय पर आधारित चर्चा सत्र भी आयोजित होते हैं।
दलित और पिछड़े समाज के लिए बना रास्ता
बांसा गांव के अधिकतर लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्ग से आते हैं। यहां के कई बच्चे बाहर जाकर पढ़ाई करने की स्थिति में नहीं हैं—न पैसे हैं, न संसाधन। बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी उन बच्चों के लिए एक अवसर बनकर सामने आई है, जो अपने हक की शिक्षा से अब तक वंचित रहे हैं।
द मूकनायक से बातचीत में लाइब्रेरी के संस्थापक सदस्य जतिन कहते हैं, "हमारे गांव में पहले कच्ची शराब का बोलबाला था। शिक्षा को लेकर कोई जागरूकता नहीं थी। लेकिन अब बच्चे किताबें पढ़ रहे हैं, गांव में पढ़ाई की बात हो रही है, और यह बदलाव उम्मीद से कहीं ज्यादा बड़ा है।"
महिलाओं के लिए पॉपअप लाइब्रेरी की शुरुआत
बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी ने महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से एक नई पहल की शुरुआत की है। लाइब्रेरी ने एक सर्वे के जरिए पाया कि 14 से 16 वर्ष की किशोरियां लाइब्रेरी नहीं आ पा रही हैं। इसका मुख्य कारण घर से अनुमति न मिलना और शादी के बाद लड़कियों का घर से बाहर कम निकलना है।
लाइब्रेरी की डायरेक्टर निहारिका ने द मूकनायक से बातचीत में बताया कि उन्होंने इस समस्या का समाधान निकालते हुए ‘पॉपअप लाइब्रेरी’ की शुरुआत की। इसके तहत उनकी टीम हर सप्ताह गाँव के किसी एक स्थान पर अस्थायी लाइब्रेरी लगाती है। इस लाइब्रेरी में किताबों के अलावा कहानियों का सत्र और ओपन माइक जैसी रोचक गतिविधियाँ भी होती हैं।
निहारिका बताती हैं कि इस पहल से अब महिलाएं खुद से जुड़ रही हैं। पॉपअप लाइब्रेरी में 14 साल की किशोरी से लेकर 60 वर्ष तक की महिलाएं हिस्सा ले रही हैं। उन्हें किताबें पढ़ने का अवसर मिल रहा है और एक-दूसरे से संवाद करने का भी मंच। यह पहल गाँव की महिलाओं को आत्मविश्वास से भरने का काम कर रही है।
चुनौतियां भी थीं, लेकिन इरादा मजबूत था
जतिन और उनकी टीम को लाइब्रेरी शुरू करना आसान नहीं था। संसाधनों की कमी, गांव के कुछ लोगों की उदासीनता और सीमित अनुभव—इन सबके बावजूद जतिन और उनकी टीम ने हार नहीं मानी। धीरे-धीरे लोगों का भरोसा जुड़ता गया और आज यह लाइब्रेरी एक सामुदायिक आंदोलन की शक्ल ले चुकी है।