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पटना पुस्तक मेला भगवा विचार प्रसार का एजेंडा!

प्रसिद्ध नाट्यकर्मी सफदर हाशमी अपनी एक कविता ‘किताबें कुछ कहना चाहती है’ में लिखते हैं:

किताबों में रॉकेट का राज है, किताबों में साइंस की आवाज है.

किताबों का कितना बड़ा संसार है, किताबों में ज्ञान की भरमार है.

क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे ?

पटना- किताबों की जिस व्यापकता की ओर इस कविता में सफदर ने ध्यान खींचा है वह हमारी वैज्ञानिक चिंतन प्रक्रिया और मानव जीवन की एक व्यापक गतिशीलता की ओर उन्मुख होता है। यह कविता सवाल उठाती है कि व्यापक सवालों से भरे ‘क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे?’ लेकिन सवाल यह है कि जाना चाहने भर से क्या कोई अपनी इच्छित जगह पर जा सकता है, जब तक हमारा परिवेश और उनपर नियामक बने लोग चाहें नहीं? सवाल यह भी है कि वर्चस्व प्राप्त जमातें क्यों चाहेंगी कि दूसरे का जो स्पेस उन्होंने अपने लिए हड़पा है वह उनसे बाहर जाएं ? इससे तो उनका ही बना-बनाया अभेद्य दुर्ग तिरोहित होगा, जिसे वह किसी भी स्थिति में टूटने न देना चाहेंगे? सी.आर.डी. द्वारा आयोजित पटना पुस्तक मेला के संदर्भ में ये बातें आजकल कुछ ज्यादा ही मौजूं हो गई हैं, क्योंकि इस मेले को पटना के जिस कल्चरल इवेंट्स के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है, वह किस तरह यहां की खास वर्चस्व प्राप्त जातियों के अवसरवादी लेखक, संस्कृतिकर्मियों का मंच रहा है यह बात मेले के आयोजनों और उसपर काबिज लोगों की गतिविधियों से ही साबित होता रहा है। हर वर्ष की भांति इसबार भी यह मेला बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में लगा है। इस बार यह 6 दिसम्बर को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कर कमलों से उद्घाटित हुआ जो 17 दिसम्बर तक चलेगा।

मेले की पूरी गतिविधियों पर अगर आप नजर दौड़ाएं तो यह बात आप सही तौर पर देख पाएंगे कि किस तरह यह पुस्तक मेला पुस्तक संस्कृति और बिहार की सांस्कृतिक बहुलता का वाहक कम है और संघी जातिवादी सवर्ण समाज का उत्सव ज्यादा है, फिर भी इसे अगर बिहार की कल्चरल गतिविधि का पर्याय बतलाया जा रहा है तो हमें यह देखना चाहिए कि ऐसा कौन लोग कह रहे हैं, और क्यों कह रहे हैं?

यह विडम्बनापूर्ण है कि एक किस्म के निर्लज्ज जातिवादी लोगों की भीड़ को हम महत्वपूर्ण घटना क तौर पर क्यों प्रचरित कर रहे हैं और हमारी मीडिया भी इसी कोरस का हिस्सा क्यों बनी हुई है? एक खास जाति विचारधारा का इसके आयोजन में बाहुल्य है, जिसे कोई भी लक्षित कर सकता है। मेला जिन शारदा सिंन्हा और उषा किरण खान को समर्पित किया गया है उसपर भी सवाल है कि उन्हें यह समर्पित क्यों किया गया। क्या ये कर्पूरी ठाकुर से बड़े योगदान वाली शख्सियत हैं?

मेला आयोजकों का यह निर्लज्ज जातिवाद नहीं तो क्या है कि उषा किरण खान पर मेले में दो-दो कार्यक्रम किये जा रहे हैं और जन्मशताब्दी वर्ष होने के बावजूद यहां कर्पूरी ठाकुर पूरे आयोजन से ही गायब हैं। महेन्द्र नारायण पंकज जैसे बहुजन समाज को समर्पित लेखक संस्कृतिकर्मी का अभी हाल ही में निधन हुआ, उनपर कोई आयोजन या मेले के मंच से कोई चर्चा क्यों नहीं की गई। क्या इस कारण से नहीं की गई कि वे आयोजकों की जाति समूह और उनके इंटरेस्ट की चीज नहीं थे। हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े सम्मान से सम्मनित चंद्रकिशोर जायसवाल के श्रीलाल इफको सम्मान और रणेंद्र के कथाक्रम सम्मान को मेला आयोजकों ने इसलिए सेलिब्रेट नहीं किया क्योंकि यह पिछड़े वर्ग समूह से आते हैं। अगर यही सम्मान आलोकधन्वा और अरुण कमल को मिला होता तो मेले की ओर से इसपर विशेष कार्यक्रम किये जाते। ये प्रक्ररण बतलाते हैं कि मेला आयोजन के पीछे आयोजकों का उद्वेश्य अपने चंद हितों को साधन भर का ही है उन्हें दूर-दूर तक बिहार और बिहारीयत से कोई लेना देना नहीं है।

सवर्ण लेखकों का अंतरसंघर्ष

मेले के मुख्य कार्यक्रमों को भी देखें तो उसमें 90 प्रतिशत भागीदारी सवर्ण लेखकों की है। और स्त्रियों की भी अतिअल्प भागीदारी है। मेला आयोजन समिति के मुख्य कार्यक्रमों में जिन लेखक संस्कृतिकर्मी को शामिल किया गया है उसमें नाममात्र के दलित लेखक हैं ओबीसी और महिलाएं तो लगभग नदारद ही हैं।

मेले में बहुजन समाज की तो छोड़िये सवर्णों में भी भूमिहार समाज का ही बोलबाला है और उसमें भी अंदरूनी रस्साकसी है। एक समूह संघ और भाजपा के प्रिय पत्रकार अनंत विजय को बड़ा लेखक संस्कृतिकर्मी के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहा है तो दूसरा प्रगतिशील खेमे में सक्रिय अनीश अंकुर को, दोनो ही जाति से हैं। मेले की ओर से एक विज्ञापन जारी हुआ है, जिसमें अनंत विजय की फोटो के साथ उनकी किताबों की बिेक्री पर फ्री पेप्सी कोला देने की बात है। वहीं अनीश अंकुर समर्थित एक पाठक लिखता है, 'पुष्पा 2 के ट्रेलर रिलीज के बाद ये दूसरी सबसे बड़ी भीड़ है गांधी मैदान में। इसबार अनीश अंकुर की किताब का विमोचन है बिना फ्री पेप्सी के लोग आये हैं, मंच पर दर्जनों बैठे हैं ,नीचे सैंकड़ों खड़े हैं।' अब देखिय कि दोनों भूमिहार हैं और उनके समर्थक किस तरह बिना नाम लिये दूसरे को हिट कर रहे हैं। यह विमर्शों के संघर्ष की भी जाति रजामंदी में बंटवारे का मामला नहीं है ?

वर्षों पहले रत्नेश्वर कुछ इससे भी बड़े प्रोपेगेंडा के लिए चर्चित रहे हैं, जब उन्होंने यह खबर चलवाई थी कि उनको लेखन के लिए नॉवेल्टी प्रकाशन की ओर से करोड़ रुपये का एडवांस चेक दिया गया। मेले में एक और भूमिहार तरूण कुमार वरुण भी लगातार कार्यक्रम के मंच पर विराजमान रहे हैं। सवाल यह उठता है कि मेला में क्या सिर्फ भूमिहार लेखक सेस्कृतिकर्मी ही हैं, दूसरे जाति समूह के लेखक संस्कृतिकर्मी नहीं हैं, जिनकी सेवाएं ली जातीं। एक सवाल और कि आखिर अनंत विजय में ऐसा क्या है कि हर वर्ष मेला उन्हें अपने कार्यक्रमों के लिए बुलाती है। इसका सीधा मतलब यह है कि अनंत इस देश के ऐसे मीडियाकर्मी हैं जो आजकल, जागरण से लेकर विभिन्न साहित्यक आयोजनों में रत्नेश्वर को जगह दिलवाते रहे हैं और उसकी एवज में उन्हें मेले में उनके साथ के लोगोे द्वारा बुलवाकर उपकृत किया जाता है।

बिहार में एक खास जाति के लेखक संस्कृतिकर्मी के इर्द गिर्द थिरक रहे इस मेले को नाचते देख ग्राम्शी याद आते हैं। ग्राम्शी ने नागरिक समाज को नागरिक क्षेत्र के रूप में देखा। जहां ट्रेड यूनियनों और राजनीतिक दलों को बुर्जुआ राज से रियायतें मिलती थीं और वे क्षेत्र जिनमें विरचरों और विश्वासों को आकार दिया जाता था, जहां मीडिया, विश्वविद्यालय और धार्मिक संस्थानों के माध्यम से सांस्कृतिक जीवन में बुर्जुआ वर्चस्व को स्थापित किया जाता है, पुनर्जीिवित किया जाता है और इससे शासितों की सहमति हासिल की जाती है और अपने आधिपत्य रूप लेता है इसलिए वह मुख्यतः उंची जाति के हिन्दू खासकर ब्राह्मण पुरूष के वर्चस्व वाला समाज है।

पटना पुस्तक मेला में जारी यह जातिवाद बतलाता हे कि बिहार में 3 प्रतिशत की आबादी वाला यह जाति समूह किस तरह फर्जी नैरेटिव के सहारे अपना बौद्धिक औरा खड़ा करता रहा है जो कहीं से भी न तो जनतांत्रिक है, न मानवीय। क्या यह अपेक्षा बिहार के नागरिक समाज से की जाएगी कि वह इस फर्जी नैरेटिव के समानांतर कोई वास्तविक कल्चरल गतिविधि खड़ा कर पाएगा?

एक समय था जब पुस्तक मेले मे अलग-अलग विचारों और धाराओं से जुड़े लोगों को इकट्ठा किया जाता था, जिससे सार्थक चर्चाओं का स्पेस बनता था। यह सब इस कारण था कि मेला आयोजन में विभिन्न जाति समूह के अनुभवी लोग थे। जब से इस समूह में एक खास जाति का बाहुल्य कायम हुआ, मेले की जनतांत्रिकता भी तिरोहित होती गई। एक समय था जब मेले के मंच से लालू प्रसाद, नीतीश कुमार सरीखे नेताओं से बिहार पर संवाद होता था आज यह सब नहीं है। अब तो हाल यह है कि जिस मेले में अपने समय की बिहार की राजनीति के दिग्गज लोग हस्तक्षेप करते थे, वहां शांभवी चैधरी की चर्चा होती है और मोदी नीतीश के प्रचार का भोंपू बजता है। तब मेले में आज के जागरण जैसे प्रछन्न हिन्दूवादी अखबार के साथ हिन्दुस्तान और प्रभात खबर की भी भाागीदारी होती थी। अब तो हालत यहां तक पहुँच गई है कि यह मेला हिन्दूवादी काॅरपोरेट और सरकार का भोंपू बनकर रह गया है।

सांकेतिक चित्र

उपेक्षा का दंश: सवर्ण स्पेस पर बहुजन सेंधमारी

बहुजन और जनचेतना को समर्पित जो प्रकाशक यहां शामिल हुए हैं उनमें सम्यक प्रकाशन, फारवर्ड प्रेस, जन चेतना और गार्गी मुख्य हैं। सम्यक के निदेशक कपिल की मानें तो उनके यहां सबसे अधिक भारतीय संविधान पुस्तक की बिक्री हो रही है। उन्होंने भारतीय संविधान को 5 आवृतियों में प्रस्तुत किया है,सस्ते संस्करण से लेकर कलात्मक डिजाइन की थोड़े ज्यादा मूल्य के संस्करण । बहुजन साहित्येतिहास, समाज, संस्कृति और जीवनी की सैकड़ों पुस्तकें यहां हैं। यद्यपि मुख्यधारा की मीडिया में इनकी कोई नोटिस नहीं है लेकिन कपिल को अपने बहुजन समाज के लोगों पर भरोसा है, वह सोशल मीडिया के माध्यम से रोज लगभग हजार लोगों को संबोधित करते हैं और उनके पाठक पटना पुस्तक मेला में आकर यहां से अपनी पसंद की किताबें ले जाते हैं।

बिहार से राजेंद्र प्रसाद सिंह, जगदेव प्रसाद, रामअवधेश सिंह, राजीव पटेल, नवलकिशोर कुमार और जीतेंद्र वर्मा सरीखे दर्जनों लेखकों के साथ ही जोतीराव गोविंद राव फुले, सावित्रीवाई फुले, के साथ ही रामस्वरूप वर्मा, बुद्ध, आंबेडर वाग्मय और बौद्ध साहित्य के साथ ही विभिन्न जातियों के इतिहास और संस्कृति की दुर्लभ पुस्तकें इनके स्टॉल पर पेपर बैक संस्करण में उपलब्ध हैं। कपिल ने कर्पूरी ठाकुर से लेकर बहुजन नायकों की तस्वीर भी साया की है जो उनके स्टाॅल की शोभा बढ़ा रही है। ये तस्वीरें बिक्री के लिए भी सहज उपलब्ध हैं। उन्होंने बहुजन कैलेंडर का भी प्रकाशन किया है जो 50 रुपये में उपलब्ध है।

पटना पुस्तक मेले में फारवर्ड प्रेस का भी एक स्टॉल लगा है जिसमें फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित लगभग आधा दर्जन पुस्तक पेपर बैक संस्करण में पाठकों को उपलब्ध करवाई जा रही हैं। जाति के प्रश्न पर कबीर, कंवल भारती की आर.एस.एस. और बहुजन चिंतन, कैथरीन मेयो की मदर इंडिया अनुवाद: कंवल भारती, कबीर की जीवनी, संजय कुमार लिखित बिहार और प्रेमकु मार मणि लिखित बहुजन चिंतन के जनसरोकार इनके यहां बिक्री के लिए रखी गई है। पुस्तक मेले में सही जगह नहीं मिलने और मुख्यधारा की मीडिया का सपोर्ट नहीं होने के कारण ये लोग .निराश हैं लेकिन हताश नहीं।

मंहगा मेला

सस्ता साहित्य के पटना प्रतिनिधि विजय शर्मा की मानें तो यह मेला नहीं व्यावसायिक हितों को साधने का असली खेला है। पुस्तक और पाठकीयता की आड़ मं आयोजकों ने जितनी कड़ी दरों पर प्रकाशकों को स्टाल उपलब्ध करवाई है, उसमें छोटे प्रकाशकों को लाभ की कोई गुंजाइश संभव ही नहीं है। विजय मानते हैं कि अन्य पुस्तक मेला के आयोजक चाहें चंद्रभूषण हों या सुनील, के बनिस्बत सी.आर.डी की दर पांच-छह गुना ज्यादा होती है। इसमें हमारे जैसे प्रकाशक भी, जो सस्ती दरों पर किताब उपलब्ध कराने की भावना से काम करते रहे हैं, यहां से घाटा सहकर ही जाएंगे।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बिहार की अस्मिता की दुहाई देनेवाले नीतीश कुमार ने मेले में सिर्फ अपने एनडीए गठबंधन को तरजीह है अपितु बिहार के छोटे प्रकाशकों को यहां कोई स्पेस नहीं दिया गया है। यहां सरकारी प्रचार और खाद्य पदार्थों के स्टाल प्रकाशकों से ज्यादा हैं इससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मेला के नाम पर किस चीज को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। यहां जिन प्रकाशकों की उपस्थिति है उसमें राजकमल, प्रभात, वाणी प्रकाशन, प्रकाशन संस्थान और नोवेल्टी मुख्य हैं। जो छोटे प्रकाशन गृह हैं उनमें जनचेतना, हिन्दी युग्म, खास हैं। लेकिन इनकी न कोई खास रौनक है न चहल-पहल।

-लेखक आदित्य अभि एक प्रखर बहुजन चिंतक और साहित्य प्रेमी हैं। वे सामाजिक न्याय, समता और बहुजन चेतना के मुद्दों पर गहराई से चिंतन करते हैं।

(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार पूरी तरह से लेखक के निजी विचार हैं और इससे संबंधित संस्थान या प्लेटफॉर्म के विचारों से आवश्यक रूप से मेल नहीं खाते)

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