नई दिल्ली- इसी वर्ष पहली अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने एससी/एसटी रिजर्वेशन के संदर्भ में निर्देश दिया कि आरक्षण के लिए सब कैटोगरी किया जा सकता है। बेला त्रिवेदी के डिसेंटिंग नोट के बाद 6 : 1 के निर्णय से पारित इस फैसले के बाद से अब राज्य सरकारें इसे लागू करने के लिए स्वतंत्र होंगी ताकि इन जाति समूह में व्याप्त असमानता की खाई को पाटा जा सके। यह सच है कि दलित समाज के अंदर वर्षों से लागू आरक्षण के बाद भी कुछ ऐसी वंचित जातियां हैं जिनको इसका लाभ नहीं मिला। इसको लेकर इस समूह के बीच से कई बार आवाजें उठाई गईं, कई बार न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया लेकिन 2004 तक इस तरह की कोशिशों को कोर्ट द्वारा असंवैधानिक ठहराया जाता रहा।
इस बार जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया तो उनके सामने पूर्व के- ई.वी चिनैया बनाम आंध्र प्रदेश और पंजाब में वाल्मीकि और मजहबी सिख को सब कोटा दिये जाने संबंधी मामले सामने थे। आंध्र सरकार ने 57 अनुसूचित जातियों को मिलाकर एक सब कैटोगरी बनाई थी और 15 प्रतिशत कोटा निर्धारित किया था। इसी प्रकार पंजाब सरकार ने वाल्मीकि और मजहबी सिख के मध्य 50 प्रतिशत सब कोटा दिये जाने का निर्णय लिया था। इन दोनों ही निर्णयों को दोनों राज्यों की हाईकोर्ट ने खारिज किया। आंध्र मामले को सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया लेकिन पंजाब मामले पर सरकार जब सुप्रीम कोर्ट पहुंची तो 5 जजों की बेंच ने सुनवाई की और इसे 7 जजों की बेंच के पास भेज दिया। लंबी सुनवाई के बाद 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने इस प्रसंग में पुराने फैसले को पलटते हुए कोटा के अंदर कोटा को सही ठहराया।
अब जबकि वर्षों से लंबित सब कोटे पर सुप्रीम कोर्ट ने 6 : 1 की बहुमत से बंटवारे को हरी झंडी दे दी है, राज्य सरकारें भी तथ्य और साक्ष्य के आधार पर सब कोटा बना सकती हैं, अगर उनके पास इसके लिए तर्कसंगत आधार हों। कोटे के अंदर कोटा का यह आधार ओबीसी आरक्षण में कई राज्यों में हमने देखा है। बिहार में 55 साल पहले पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग की एनेक्सर-1 और एनेक्सर-2 दो श्रेणियां बनाई गई थीं। लेकिन जिन परस्थितियों में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने यह श्रेणियां बनाई थीं, परवतीं सरकारों में दांगी, तेली और ततमा जाति को जिस तरह से इस श्रेणीक्रम में शामिल किया गया, उसमें जातियों की वास्तविक स्थिति से ज्यादा उनके वोट बैंक हासिल करने की प्रेरणा ज्यादा हावी रही।
यह कहीं-न-कहीं आरक्षण की जी मूल अवधारणा है, उससे छेड़छाड़ थी, जो किसी भी सरकार के द्वारा इस सब कोटा प्रणाली में भी आजमाया जा सकता है। बहुजन बुद्धिजीवियों में इसके विरोध का एक बड़ा आधार इसके इसी दुरुपयोग की आशंका के कारण पैदा हुआ है। राज्य और उसपर हावी द्विज नौकरशाही आरक्षण को लेकर हमेशा पूर्वाग्रहग्रस्त रही है। बहुत संभव है कोटे के अंदर दो हिस्सा करने से यू.पी.एस.सी, डॉक्टर्स, इंजीनियर्स सरीखी नौकरियों में नीचले हिस्से के उम्मीदवार न मिलें और उन्हें नॉट फार सूटेबल करके उस आरक्षित सीट को अनरिजर्व कोटे में ले आएं। आरक्षण के मामले में अपने यहां अब तक यही होता आया है। अतः कोशिश यह होनी चाहिए कि इसका यह जो दुरुपयोग अबतक होता आया है उसपर अंकुश लगे। कोर्ट के इस फैसले का दक्षिण भारत के लगभग सभी राजनीतिज्ञों ने समर्थन किया है। वहीं उतर भारत में कई पार्टियों और लगभग सभी दलित नेताओं ने इसका जोरदार खंडन किया है। भाजपा इसपर मौन है, वहीं एनडीए के अंदर में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। जहां टीडीपी इसके पक्ष में खड़ी है वहीं एलजेपी ठीक इसके विरोध में। बसपा और आजाद समाज पार्टी भी इसके विरोध में है।
यह सच है कि समाज के जो अति पिछड़े दलित आदिवासी हैं, उनके लिए अलग से सब कोटा की जरूरत थी, जिसपर कोर्ट ने अपनी मुहर लगाई है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला म्बेडकरवादी आंदोलन, ब्राह्मणवाद के विरूद्ध संघर्ष और दलित राजनीति इन सब के लिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें समाज के सबसे नीचले पायदान पर खड़े व्यक्ति और समूह को ऊपर उठाने का जरूरी और आवश्यक कार्यभार छिपा है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तर भारत की दलित राजनीति इसे दलित राजनीति की एक विभाजनकारी रेखा के रूप में देख रही है। जिस समाज में असमानता की खाई गहरी होगी वहां किसी भी तरह की एकता बनाने की कोशिश अंततः असंतोष को ही जन्म देगा।
अगर किसी समाज में ऊंच-नीच की खाई है तो उस खाई को पाटने से एकता कायम होगी या उस खाई को दबाये रखने से? दलित नेताओं और संगठनकर्ताओं के एक समूह का यह तर्क है कि इससे दलित जातियों के बीच की एकता खंडित होगी। यह अजीव तर्क है जो किसी भी स्थिति में तर्कसम्मत नहीं। बहुत सारे लोग यह तर्क रख रहे हैं कि जाति जनगणना के बगैर यह संभव नहीं लेकिन सच तो यह है कि आम जनगणना रिपोर्ट में दलित समाज के बारे में यह डाटा मौजूद रहा है और तमाम सूचक यह स्पष्ट करते हैं कि इनमें सब कोटा की जरूरत है, आज अगर हम यूं ही इस वास्तविक मांग को नहीं समझेंगे तो प्रकारांतर से आरक्षण विरोध का हमारा स्टैंड वही होगा जो द्विज लोगों ने अबतक हमारे मामले में किया है।
सच तो यह है कि दलित राजनीति के लिए यह घटनाक्रम एक अवसर की तरह आया है। उन्हें आगे बढ़कर यह इस अवसर को अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने में लगाना चाहिए ताकि उनके अंदर की विभाजकारी रेखा पाटी जाए। यह तभी होगा जब हमारी दलित राजनीति अपने अंदर की असमानता की का जो खाई है उसको स्वीकर करे, और निडरता के साथ यह कहने वा का माद्दा अपने अंदर पैदा करे कि हां, हमारे अपने ही लोग जो पीछे छूट गए हैं, हम उनके साथ खड़े हैं, इसके बाद उनके अंदर के से एकता की जो ताकत पनपेगी वह वास्तविक ताकत होगी और बाबा साहब अंबेडकर के सपनों के अनुकूल होगी। जातियों के मामले में विमर्श करते वक्त हमें अम्बेडकर के इस वाक्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि जातियों के बीच सोपानिक असमानता जाति प्रथा की आत्मा है और हमारा अंतिम ध्येय जाति प्रथा का उन्मूलन होना चाहिए। सब कोटा इसी ध्येय को पूरा करता है।अतः हर हाल में हमें इसका समर्थन करना चाहिए।