समाज सुधारक: महेश चंद्र के बारे में
फरहान सिद्दीकी और प्रियंक मणि
हर दिन बाबू महेश चंद्र, जो कि एक सेवानिवृत्त अध्यापक हैं, अपनी दिनचर्या से मुक्त हो कर अपनी साइकिल से निकल जाते हैं मुजफ्फरपुर,बिहार के विभिन्न गांवों में. इस सफर में उनके साथ होते हैं दहेज विरोधी नारे लिखे हुए कुछ पोस्टर और बैनर. रास्तों में रुकते हुए, दहेज विरोधी नारे लगाते हैं और हमारे समाज में फैली हुई दहेज नामक कुप्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करते हैं. जब उनसे पूछा जाता है कि क्या आप भी दहेज प्रथा के पीड़ित हैं? तब उनका सहज जवाब होता है "हम सब हैं बाबू".
अपनी दिनचर्या के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, "हिंदी अखबार के उत्साही पाठक होने के नाते वह दहेज के लिए उत्पीड़न, हत्या और आत्महत्या से लेकर प्रतिदिन होने वाले अपराधों के बारे में पढ़ते हैं", "मैं खुद को असहाय महसूस कर रहा था। लेकिन एक दिन इस कुप्रथा ने मेरे पड़ोसी की बेटी को उसकी शादी के एक महीने के अंदर ही निगल लिया. हमने उस बेचारी की चिता को उसके ससुराल वालों के घर के सामने ही अग्नि दी, लेकिन वो लोग पहले ही गांव छोड़ के जा चुके थे. लोग गुस्से में उसके ससुराल वालों का घर ही जला देने पर तुले थे. उस समय मुझे एहसास हुआ कि घर जलाना कोई उपाय नहीं है. बस फिर क्या था, उसके अगले ही दिन मैंने अपनी साइकिल निकली और अलग अलग इलाकों में घूम–घूम कर लोगों को इस बुराई के प्रति जागृत करने निकल पड़ा. चन्द्र जी मुस्कुराते हुए कहते हैं, "अब लगभग दो साल हो गए हैं और बाईस अन्य व्यक्ति मेरे साथ जुड़ गए हैं। ये सभी किसी न किसी रूप में दहेज के शिकार हैं। पूर्वी चंपारण तक के लोग हमारे समूह का हिस्सा हैं। जैसे-जैसे हमारे समूह का विस्तार हुआ, सभी ने हमें समाज सुधारक (समाज सुधारक) के रूप में संबोधित करना शुरू कर दिया, और बस यही हम हर दिन बनने के लिए प्रयासरत रहते हैं। "
अपनी इस संस्था के कार्य शैली के बारे में बताते हुए महेश चंद्र जी कहते हैं कि ना ही वो किसी एनजीओ के रूप में पंजीकृत हैं ना ही किसी ट्रस्ट के रूप में. हम बस मुठ्ठी भर लोग हैं जो इस दहेज रूपी बुराई को जड़ से मिटाना चाहते हैं। हर महीने के अंत में सभी सदस्य मेरे मुजफ्फरपुर के खबरा स्थित आवास पर जुटते हैं। हम योजना बनाते हैं कि आगे कौन से गांव/कस्बों को शामिल किया जाना है। कभी-कभी हम दहेज के खिलाफ अलग-अलग जगहों पर नियमित रूप से छोटी-छोटी सभाएं भी करते हैं। हमारे दल के सभी 23 सदस्य अपने साथ बेनर और पोस्टर लेकर चलते हैं जिसमें हम दहेज प्रथा से होने वाली त्रासदी को बयान करते हैं। ये लोग पर्चियां और पत्र भी बांटते हैं, जिसका खर्च सब सदस्य आपसी सहयोग और अपने इच्छा अनुसार करते हैं।
महेश जी आगे कहते हैं कि "हम इस बात को मानते हैं कि हम सभी का अपना निजी जीवन है और हम सब इसमें चौबीस घंटे नहीं शामिल हो सकते हैं, इसलिए हम सबने ये प्रतिज्ञा ली है कि कम से कम दिन में एक घंटा इस पुण्य काम में जरूर लगाएंगे। मुझे पता है कि दहेज के खिलाफ कानून भी है। फिर भी दहेज हत्या एक सामान्य घटना है। हो सकता है कि दहेज के खिलाफ कानून हमारे देश के अन्य कानूनों की तरह ही हो, जो समाज की भलाई के लिए बनाए गए थे, लेकिन केवल कागजों पर ही सिमट कर रह गएं है। मुझे पता है कि यह एक कठिन लड़ाई है, और हम उसी कठिनाई भरे रास्ते में निकल चुके हैं।"
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, भारत में साल 2020 में प्रति दिन 19 दहेज से संबंधित मौतें दर्ज हुईं। हम अपराधों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि ये केवल ऐसी मौतें हैं जो इस देश में प्रतिदिन महिलाओं के साथ होने वाले भयावह स्थिति को दर्शाती हैं। एनसीआरबी के एक अन्य डेटा के अनुसार साल 2018,2019 एवं 2020 में क्रमशः 7167, 7141 और 6966 दहेज से संबंधित
हत्याएं हुईं.
घोर संकट के हालात में भी यदि देखा जाए तो 2020 में दहेज संबंधी अपराधों में मामूली गिरावट का कारण महामारी और उससे उतपन्न परिस्थितियों थीं, तब शायद हमारा समाज तात्कालिक एवं जीवन-मरण के प्रश्नों में उलझा हुआ था। हालाँकि हम उन विकट परिस्थितियों में भी महिलाओं के खिलाफ खराब वातावरण और दुर्व्यवहार को नकार नहीं सकते हैं।
दहेज निषेध अधिनियम 1961 में पारित होता है फिर भी छह दशक के बाद दहेज (कु)प्रथा एक सामाजिक रूप से स्वीकृत रिवाज है और महिलाओं की रक्षा के लिए बने कानून, इस संदर्भ में हाथी के दांत दिखाने और खाने के अलग-अलग के मुहावरे को सार्थक करने के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं पाएं है। दहेज को केवल ग्रामीण परिघटना समझना एक गैरजिम्मेदार विचार हैं। यह खतरा महानगरीय अभिजात वर्ग और शहरी मध्यम जाति/वर्ग परिवारों को अलग-अलग रुप एवं मात्रा में प्रभावित करता है। यह भारतीय समाज की प्रकृति की ओर इशारा करता है, जहां शिक्षा, सभ्यता और समाजीकरण इस तरह की कुरीतियों में भाग लेने में एक रुकावट के रूप में कार्य नहीं करता है, बल्कि, वे किसी के जातीय गौरव, सामाजिक स्थिति और महिलाओं के खिलाफ पितृसत्तात्मक हिंसा के विभिन्न रूपों को मजबूत करते हैं। साल 2020 में, राजधानी दिल्ली में दहेज से जुड़ी 109 मौतों की एक चौंका देने वाली संख्या दर्ज की गई। इसके अलावा, भारत के सबसे अधिक साक्षर राज्य, यानी केरल में दहेज संबंधी सबसे अधिक अपराध किए गए। ये आँकड़े आधुनिक भारत और हमारे समाज में महिलाओं के लिए आरक्षित स्थिति की एक धुंधली तस्वीर पेश करते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या को खत्म करने के लिए आगे का रास्ता क्या है? कानून तो हैं ही, और जागरूकता भी धीरे-धीरे बढ़ रही है। फिर भी, वे सभी तब तक बेमानी लगते हैं जब तक कि पितृसत्तात्मक जीवन शैली से उत्पन्न पुरुषवादी दृष्टिकोण को चुनौती नहीं दी जाती।
जैसा कि महेश चंद्र जी ने कहा कि,
"यह एक कठिन लड़ाई है, और हम अपने रास्ते पर हैं।"
एक समाधान खोजने के लिए, हम सभी को उनके साथ रहना होगा। सभी को एक ही टीम में होना चाहिए। तो शायद एक दिन हम इसका समाधान जानेंगे और इसे खत्म करने की दिशा में काम करेंगे।
फरहान सिद्दीकी विधि के छात्र हैं, और प्रियंक मणि एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.