नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सेवानिवृत्त समाजशास्त्री प्रोफेसर सतीश देशपांडे ने भारत में जाति व्यवस्था पर चौंकाने वाला खुलासा किया है। उन्होंने बताया कि कैसे उच्च जातियों के लोग अपनी सफलता को "मेरिट" बताते हैं, जबकि वास्तव में यह सैकड़ों सालों से मिली जातिगत विशेषाधिकारों की देन है।
कॉमेडियन-कमेंटेटर कुणाल कामरा के पॉडकास्ट 'नोप' में समाजशास्त्री प्रोफेसर सतीश देशपांडे ने भारत की जाति व्यवस्था पर विस्फोटक चर्चा में उस मूलभूत विरोधाभास को उजागर किया जहां एक ओर संविधान ने जाति को समाप्त घोषित किया, लेकिन व्यवहार में यह आज भी भारतीय समाज की हर परत में गहराई से समाई हुई है।
प्रोफेसर देशपांडे ने अपने ही परिवार के उदाहरण से समझाया कि कैसे उच्च जातीय विशेषाधिकार पीढ़ियों तक संचरित होते हैं। उन्होंने कहा, "मेरे दादा को पेशवा शासन में ब्राह्मण होने के नाते 200 एकड़ जमीन मिली थी। कुछ और जाति होती तो ये जमीन उनकी नहीं होती, आजादी के बाद भूमि सुधारों से यह घटकर रह गई, लेकिन उसी जमीन को बेचकर मेरे पिता को इंजीनियर बनाया गया"। यह स्वीकारोक्ति इस मिथक को तोड़ती है कि उच्च जातियों की सफलता शुद्ध रूप से व्यक्तिगत योग्यता का परिणाम होती है।
देशपांडे ने बेबाकी से कहा, " मेरे दादाजी कुछ ज्यादा होशियार नहीं थे। तो नए कानून जब आए आजादी के बाद तो बहुत सारी जमीन उसमें से चली गई। लेकिन फिर भी जो कुछ भी बचा था उसमें से कुछ जमीन बेच के मेरे पिताजी को और मेरे एक चाचा को इंजीनियर- डॉक्टर बनाया। तो इंजीनियर का बेटा हूँ मैं तो मुझे लगता है कि मेरा जाति से क्या लेना देना? मैं तो मेरिट का पुतला हूं लेकिन मैं मेरिट कैसे पा सका ? महंगे स्कूल और अच्छे कॉलेज में मैं कैसे जा पाया? क्योंकि मेरे पिताजी इंजीनियर थे। मेरे पिताजी इंजीनियर कैसे बने? क्यों कि मेरे दादा के पास जमीन थी। मेरे दादा के पास जमीन क्यों थी? क्योंकि उनकी जाति फलानी थी। कुछ और जाति होती तो उनके पास कोई जमीन नहीं होती और मैं यहां नहीं बैठा होता। लेकिन मेरी पीढ़ी तक आते-आते ये जो मेरिट की भाषा है ये इतनी सुदृढ़ हो गई और लोग वाकई ये मुझ जैसे लोग वाकई ये मानने लगे कि ये वो कुछ जो कुछ भी है वो केवल और केवल मेरिट के कारण उनका जाति से कुछ लेना देना नहीं है।
देशपांडे ने सबसे पहले उस नैरेटिव को खारिज किया कि जाति एक औपनिवेशिक रचना थी। उन्होंने माना ब्रिटिश शासन ने प्रशासनिक नियंत्रण के लिए जातिगत विभाजनों को निश्चित रूप से बढ़ावा दिया लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि जाति एक स्वदेशी पदानुक्रम प्रणाली थी और है। "हम ब्रिटिशों को कई चीजों के लिए दोषी ठहरा सकते हैं, लेकिन जाति उनमें से एक नहीं है"।
देशपांडे ने कहा आजादी के बाद भारत के संविधान ने औपचारिक रूप से जातिगत भेदभाव को समाप्त कर दिया और देश को एक जातिविहीन गणराज्य घोषित किया। लेकिन उसी संविधान ने आरक्षण भी शुरू किया, यह मानते हुए कि सदियों के उत्पीड़न के लिए निवारण की आवश्यकता थी। जाति को गैरकानूनी घोषित करने के साथ ही जाति-आधारित कोटा को संस्थागत बनाने की इस दोहरी नीति ने एक मौलिक तनाव पैदा किया जिसका समाधान भारत को अभी तक नहीं मिला है।
योग्यता का भ्रम और विशेषाधिकार की अदृश्यता
देशपांडे ने जो सबसे चौंकाने वाला बिंदु उठाया, वह यह था कि कैसे उच्च जाति के भारतीय यह दावा करते हुए अक्सर जाति से इनकार करते हैं कि उनकी सफलता पूरी तरह से योग्यता-आधारित है। उन्होंने इसे एक व्यक्तिगत उदाहरण से समझाया: उनके दादा, एक ब्राह्मण, पेशवा शासन में जाति-आधारित अधिकारों के कारण पर्याप्त भूमि के मालिक थे। भूमि सुधारों के बाद घटी हुई वह जमीन भी उनके पिता की शिक्षा का वित्तपोषण करती रही, जिससे उनकी स्वयं की उन्नति संभव हुई। उन्होंने स्वीकार किया, "मैं जहां हूं वह पीढ़ियों के जातिगत विशेषाधिकार के कारण है फिर भी मेरी शिक्षा और सामाजिक स्थिति मुझे यह दिखावा करने का अवसर देती है कि जाति मुझे प्रभावित नहीं करती।"
उन्होंने तर्क दिया कि यह selective blindness ( चयनात्मक अंधत्व) केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का विलास है। वंचित जातियों के लिए, जाति एक अनिवार्य वास्तविकता है - पहचान का एक मार्कर जिसे उन्हें अपने अधिकारों की मांग करने के लिए लगातार प्रस्तुत करना पड़ता है। "उत्पीड़ितों को अपनी जाति को एक बैज की तरह पहनना पड़ता है; विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को इसे भूल जाने का विशेषाधिकार होता है।" देशपांडे ने कहा, " जाति में एक बहुत बड़ी दरार आ गई है। जिनको जाति से सबसे ज्यादा फायदा हुआ है उनको लगता है कि आज जाति का मतलब केवल निम्न जाति है। हम जैसे लोगों का जाति से कोई लेना देना नहीं है। और दूसरी तरफ उन लोगों को लगता है जो इन कथित निम्न जातियों से हैं कि बिना जाति का नारा लगाए बिना हमें कुछ नहीं मिलेगा। तो एक तबका वो हाइपर विज़िबल हो गया। उनकी जाति हाइपरविज़िबल हो गई। जाति के बिना वो कुछ भी नहीं पाएंगे। और एक तबके का की जाति इनविज़िबल हो गई, तो ऐसा होने से संवाद नामुमकिन हो गया है।
जिन्हें जाति से सबसे अधिक क्षति पहुँची, उन्हें हर बार जाति का झंडा उठाना पड़ा
प्रो देशपांडे ने समाज की गहराईयों तक व्याप्त जातिवाद को लेकर कहा, " हम उस संस्था को कैसे खत्म कर सकते हैं जो रोजमर्रा के जीवन को संचालित करती है? इस सवाल ने हमेशा हमें दुविधा में डाला है - एक ऐसी शर्म और संकोच जिसे हमने अलग-अलग तरीकों से व्यक्त किया है। यह एक दमित सच्चाई है जो हमारे अवचेतन में रहती आई है।
आजादी के बाद हमने सबसे पहले संविधान में जाति के उन्मूलन की घोषणा की। परंतु उसी जाति व्यवस्था ने हमें यह स्वीकार करने को मजबूर किया कि देश का एक बड़ा वर्ग सदियों से दबाया गया है - न सिर्फ सामाजिक रूप से बल्कि नैतिक और कानूनी तौर पर भी। इस ऐतिहासिक अन्याय के मुआवजे के रूप में हमने आरक्षण की व्यवस्था बनाई।
यहाँ विरोधाभास स्पष्ट है: एक ओर संविधान जाति के अंत की घोषणा करता है कि अब हम एक गणतंत्र हैं, जातिगत भेद समाप्त, वहीं दूसरी ओर कुछ जातियों के लिए विशेष प्रावधान बनाता है। सतही तौर पर यह प्रगतिशील लगता है, पर यह दोहरी मानसिकता को दर्शाता है - जाति को समाप्त करने की आकांक्षा और साथ ही ऐतिहासिक क्षतिपूर्ति की आवश्यकता।
वे कहते हैं कि 1932 के पूना पैक्ट ने इसकी नींव रखी, जब गांधीजी के अनशन के बाद दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल के बजाय हिंदू मतदाताओं के भीतर आरक्षण स्वीकार किया गया। " हमने सोचा कि इससे जाति की समस्या सुलझ गई, कि ऐतिहासिक ऋण चुका दिया गया लेकिन विडंबना यह है: जिन्हें जाति से सर्वाधिक लाभ मिला था, वे स्वतंत्रता के बाद अपने जातिगत पूंजी को 'धर्मनिरपेक्ष पूंजी' में बदलने में सफल रहे। जबकि जिन्हें जाति से सबसे अधिक क्षति पहुँची, उन्हें राज्य से कुछ पाने के लिए हर बार जाति का झंडा उठाना पड़ा। क्योंकि बाजार में प्रवेश के लिए उनके पास कोई जातिगत पूंजी नहीं थी जिसे वे 'योग्यता' में बदल सकें।"
उन्होंने तर्क दिया कि वास्तविक प्रगति के लिए, भारत को आरक्षण से अधिक की आवश्यकता भूमि सुधार, समतामूलक शिक्षा, और सबसे महत्वपूर्ण, विशेषाधिकार के साथ एक ईमानदार समझौते की है। "उच्च जातियों को स्वीकार करना होगा कि उनकी सफलता केवल कड़ी मेहनत नहीं है, बल्कि सदियों की बढ़त भी है। तब तक, जाति भारत की दमित शर्म बनी रहेगी - आधिकारिक तौर पर समाप्त, सामाजिक रूप से जड़ित, और स्थायी रूप से अनसुलझी।"
आपको बता दें प्रोफेसर देशपांडे ने जाति और वर्ग असमानताएं, समकालीन सामाजिक सिद्धांत, सामाजिक विज्ञानों का राजनीति और इतिहास, और दक्षिण-दक्षिण अंतःक्रियाएं आदि विषयों पर शोध अध्ययन किये हैं। वह समकालीन भारत: एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण (2003) के लेखक हैं और ग्रामीण भारत में अस्पृश्यता (2006) घनश्याम शाह, हर्ष मंदर, सुखदेव थोरात और अमिता भविस्कर के साथ सह-लेखक हैं।