गुजरात - गुजरात के अमरेली जिले के जरखिया गांव में 22 मई 2025 को 20 वर्षीय दलित युवक नीलेश राठौड़ की नृशंस हत्या ने एक बार फिर जातिगत हिंसा की गहरी जड़ों को उजागर किया है। नीलेश को कथित रूप से दूसरी जाति के किशोर को “बेटा” कहकर संबोधित करने पर बेरहमी से पीटा गया था। इस घटना ने गुजरात में ही 89 साल पहले, यानी 1936 में बोर्सद तालुका, खेडा जिला में घटी एक ऐसी ही भयावह घटना की याद दिला दी, जिसका उल्लेख डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपनी रचना Writings and Speeches, Chapter 5: Unfit for Association में किया है।
यह कहानी एक दलित युवक कालिदास शिवराम परमार की है, जो तलाटी (गांव के पटवारी) के रूप में नियुक्त होने के बाद अपमान, बहिष्कार और जानलेवा हमले का शिकार बना। उनकी सूझबूझ ने उनकी जान बचाई, लेकिन यह घटना उस समय की छुआछूत और जातिगत हिंसा की क्रूरता को उजागर करती है।
6 मार्च 1938 को कासारवाड़ी (वूलन मिल्स के पीछे), दादर-बॉम्बे में इंदुलाल यदनिक की अध्यक्षता में भंगी समुदाय की एक सभा हुई जिसमे कालिदास शिवराम ने अपनी आपबीती सुनाई। कालिदास ने 1933 में वर्नाक्यूलर फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण की थी और अंग्रेजी में चौथी कक्षा तक पढ़ाई की थी। बॉम्बे म्युनिसिपैलिटी के स्कूल कमेटी में शिक्षक की नौकरी के लिए उनका आवेदन असफल रहा, लेकिन अहमदाबाद में बैकवर्ड क्लासेस ऑफिसर के पास तलाटी की नौकरी के लिए आवेदन करने पर उन्हें सफलता मिली। 19 फरवरी 1936 को, उन्हें बोर्सद तालुका के ममलतदार कार्यालय में तलाटी नियुक्त किया गया।
कालिदास का परिवार मूल रूप से गुजरात से था, लेकिन यह उनकी पहली गुजरात यात्रा थी। उन्हें उम्मीद थी कि उनके सहकर्मी उनकी हरिजन (दलित) पहचान से अवगत होंगे, क्योंकि उन्होंने अपने आवेदन में इसका उल्लेख किया था। लेकिन ममलतदार कार्यालय में पहुंचते ही क्लर्क ने उनसे तिरस्कारपूर्ण ढंग से पूछा, "तू कौन है?" कालिदास के जवाब, "मैं हरिजन हूं," पर क्लर्क ने गुस्से में कहा, "दूर हट, थोड़ा दूर खड़ा हो। तू इतना पास कैसे खड़ा हो गया? अगर यह कार्यालय न होता, तो मैं तुझे छह लातें मारता!" क्लर्क ने उनके नियुक्ति पत्र और प्रमाणपत्र को जमीन पर फेंकने के लिए कहा और फिर उन्हें उठाया।
सुबह-शाम भजिया खाकर पेट भरा, दफ्तर के बरामदे में सोये
ममलतदार कार्यालय में कालिदास को पानी पीने के लिए एक जंग लगा टिन का बर्तन दिया गया, जिसे कोई और नहीं छूता था। पानीवाला कर्मचारी उन्हें पानी देने से बचता था और अक्सर उनके आने पर गायब हो जाता था, जिसके कारण कालिदास को कई बार प्यासा रहना पड़ता था। बोर्सद में कोई भी सवर्ण हिंदू उन्हें किराए पर मकान देने को तैयार नहीं था, और स्थानीय अछूत समुदाय ने भी सवर्णों के डर से मदद नहीं की। भोजन के लिए कालिदास सुबह-शाम भजिया खरीदते और गांव के बाहर किसी सुनसान जगह पर खा लेते। रात में वे ममलतदार कार्यालय की बरामदे के फुटपाथ पर सोते थे। चार दिन तक यह जीवन उनके लिए असहनीय हो गया।
इसके बाद, कालिदास अपने पैतृक गांव जेंट्राल चले गए, जो बोर्सद से छह मील दूर था। हर दिन उन्हें ग्यारह मील पैदल चलना पड़ता था। डेढ़ महीने तक यह सिलसिला चला। फिर ममलतदार ने उन्हें एक अन्य तलाटी के पास प्रशिक्षण के लिए भेजा, जो जेंट्राल, खापुर और साइजपुर गांवों का प्रभारी था। जेंट्राल में दो महीने तक रहने के बावजूद, कालिदास को कुछ भी सिखाया नहीं गया, और उन्हें गांव के कार्यालय में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई। जेंट्राल के मुखिया ने उन्हें धमकी दी, "तुम्हारा परिवार झाड़ू लगाता है, और तुम हमारे बराबर बैठना चाहते हो? नौकरी छोड़ दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा।"
सैजपुर में में कुर्सी पर बैठने की कीमत
घटना तब चरम पर पहुंची जब कालिदास को सैजपुर गांव में जनसंख्या तालिका तैयार करने के लिए भेजा गया। वहां पहुंचने पर उन्होंने मुखिया और तलाटी को कार्यालय में काम करते देखा। कालिदास ने दरवाजे पर खड़े होकर "गुड मॉर्निंग" कहा, लेकिन दोनों ने उनकी उपेक्षा की। थकान और अपमान से तंग आकर, कालिदास ने बाहर पड़ी एक कुर्सी पर बैठने का साहस किया। यह देखकर मुखिया और तलाटी चुपचाप चले गए। कुछ ही देर में, गांव की लाइब्रेरी के शिक्षित लाइब्रेरियन के नेतृत्व में एक भीड़ कालिदास के चारों ओर जमा हो गई। बाद में पता चला कि कुर्सी लाइब्रेरियन की थी।
लाइब्रेरियन ने गुस्से में रवानिया (गांव के नौकर) से पूछा, "इस भंगी के गंदे कुत्ते को कुर्सी पर बैठने की इजाजत किसने दी?" रवानिया ने कालिदास को कुर्सी से उतार दिया और कुर्सी हटा ली। कालिदास जमीन पर बैठ गए। इसके बाद भीड़ ने कार्यालय में घुसकर उन्हें घेर लिया। यह एक उग्र भीड़ थी, जो गालियां दे रही थी और धारिया (तलवार जैसा हथियार) से काटने की धमकी दे रही थी। कालिदास ने दया की भीख मांगी, लेकिन भीड़ पर कोई असर नहीं हुआ।
सूझबूझ से बची जान, छोडनी पड़ी नौकरी
अपनी जान बचाने के लिए, कालिदास ने एक चतुर कदम उठाया। उन्होंने रवानिया से कागज मांगा और अपने फाउंटेन पेन से ममलतदार के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा:
"ममलतदार साहब, बोर्सद तालुका को परमार कालिदास शिवराम का नम्र प्रणाम। यह सूचित करने के लिए कि आज मेरे ऊपर मौत का साया मंडरा रहा है। अगर मैंने अपने माता-पिता की बात मानी होती, तो यह नौबत न आती। कृपया मेरे माता-पिता को मेरी मृत्यु की सूचना दें।"
लाइब्रेरियन ने यह पत्र पढ़ा और तुरंत कालिदास से इसे फाड़ने को कहा, जिसे उन्होंने मान लिया। भीड़ ने उन्हें अपमानित करते हुए कहा, "तू हमारा तलाटी बनना चाहता है? तू भंगी है, और कार्यालय में बैठना चाहता है?" कालिदास ने दया की भीख मांगी और वादा किया कि वह ऐसा दोबारा नहीं करेंगे और नौकरी छोड़ देंगे। शाम सात बजे तक भीड़ उन्हें वहां रोके रही, और फिर वे चले गए। इस दौरान न तो तलाटी और न ही मुखिया वहां लौटे।
इस अपमानजनक और जानलेवा अनुभव ने कालिदास को तोड़ दिया। उन्होंने 15 दिन की छुट्टी ली और अपने माता-पिता के पास मुंबई लौट आए। 6 मार्च 1938 को कासारवाड़ी की सभा में, उन्होंने अपनी कहानी साझा की, जो उस समय की छुआछूत और जातिगत हिंसा की भयावहता को उजागर करती है। कालिदास की सूझबूझ, विशेष रूप से ममलतदार को पत्र लिखने का उनका कदम, उनकी जान बचाने में निर्णायक साबित हुआ। इस पत्र ने भीड़ को यह अहसास दिलाया कि उनकी हरकतें दर्ज हो रही हैं, जिसके कारण उन्होंने हिंसा को रोक दिया।
कालिदास की यह कहानी 2025 में नीलेश राठौड़ की हत्या के साथ एक दुखद समानता रखती है। नीलेश और उनके तीन साथियों पर केवल इसलिए हमला किया गया क्योंकि उन्होंने एक दुकानदार के बेटे को "बेटा" कहकर संबोधित किया। दुकानदार ने कुल्हाड़ी से हमला किया और 10-15 गुंडों को बुलाकर चारों दलित युवकों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, जिसके परिणामस्वरूप नीलेश की मृत्यु हो गई। दोनों घटनाएं यह दर्शाती हैं कि जातिगत भेदभाव और हिंसा आज भी समाज में गहरे जड़ें जमाए हुए हैं। कालिदास ने अपनी बुद्धिमानी से अपनी जान बचाई, लेकिन नीलेश इतने भाग्यशाली नहीं थे।