नई दिल्ली- सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान हाईकोर्ट के एक महत्वपूर्ण मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली पिंकी मीणा को उनकी सिविल जज की सेवाओं से बर्खास्तगी के खिलाफ बड़ी राहत प्रदान की है। सुप्रीम कोर्ट ने 22 मई 2025 को दिए गए अपने फैसले में राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा पारित 24 अगस्त 2023 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पिंकी मीणा की रिट याचिका खारिज कर दी गई थी।
इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने 17 फरवरी 2020 को जारी कारण बताओ नोटिस और 29 मई 2020 के बर्खास्तगी आदेश को भी निरस्त कर दिया। इस फैसले में पिंकी मीणा को तत्काल प्रभाव से सेवा में बहाल करने और सभी परिणामी लाभ जैसे वरिष्ठता निर्धारण और वेतन निर्धारण (पिछले वेतन को छोड़कर) प्रदान करने का निर्देश दिया गया है।
मामले की पृष्ठभूमि
पिंकी मीणा ने अपनी शैक्षिक योग्यता और कठिन परिश्रम के बल पर राजस्थान न्यायिक सेवा (आरजेएस) में सिविल जज और न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद के लिए चयन प्राप्त किया था। उनके पास कला स्नातक (बीए), शिक्षा स्नातक (बीएड), विधि स्नातक (एलएलबी) और विधि में स्नातकोत्तर (एलएलएम) की डिग्री है। उन्होंने 30 दिसंबर 2014 से राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग में द्वितीय श्रेणी शिक्षक के रूप में सेवा शुरू की थी। 18 नवंबर 2017 को राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा सिविल जज के पद के लिए विज्ञापन जारी किया गया, जिसमें पिंकी ने आवेदन किया और प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार में सफलता हासिल की।
11 फरवरी 2019 को उन्हें सिविल जज के रूप में नियुक्ति पत्र जारी किया गया, और उन्होंने 6 मार्च 2019 से प्रशिक्षण शुरू किया, जिसे उन्होंने 7 मार्च 2020 को उत्कृष्ट प्रदर्शन के साथ पूरा किया। हालांकि उनकी नियुक्ति के बाद, अभिषेक वर्मा और राम निवास मीणा नामक व्यक्तियों द्वारा उनके खिलाफ शिकायतें दर्ज की गईं, जिनके आधार पर राजस्थान हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी किया और बाद में उनकी सेवाएं समाप्त कर दीं।
हाईकोर्ट का फैसला और सुप्रीम कोर्ट में अपील
राजस्थान हाईकोर्ट ने 24 अगस्त 2023 को पिंकी मीणा की रिट याचिका को खारिज करते हुए कारण बताओ नोटिस और बर्खास्तगी आदेश को बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में माना कि पिंकी ने एक टीचर के रूप में अपनी पिछली सरकारी नौकरी और शैक्षिक योग्यताओं के संबंध में जानकारी छिपाई थी, जो राजस्थान न्यायिक सेवा नियम, 2010 के नियम 14 के तहत अनियमितता मानी गई। इसके खिलाफ पिंकी ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर की, जिसकी सुनवाई न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने की।
पिंकी मीणा के खिलाफ आरोप और उनका जवाब
राजस्थान हाईकोर्ट ने पिंकी के खिलाफ पांच मुख्य आरोप लगाए थे:
एलएलबी और बीएड एक साथ करना: हाईकोर्ट ने आरोप लगाया कि पिंकी ने एक ही वर्ष में एलएलबी और बीएड की डिग्री हासिल की, जो राजस्थान विश्वविद्यालय के अध्यादेश 168-ए के तहत अनुमति नहीं है। पिंकी ने इसका जवाब देते हुए कहा कि एलएलबी प्रथम वर्ष की परीक्षा डिग्री की मुख्य परीक्षा नहीं मानी जाती।
एलएलएम के दौरान उपस्थिति में धोखाधड़ी: हाईकोर्ट ने दावा किया कि पिंकी ने शिक्षक के रूप में सेवा करते हुए एलएलएम की डिग्री नियमित छात्र के रूप में हासिल की, जो अनुचित है। पिंकी ने स्पष्ट किया कि एलएलएम के लिए नियमित कक्षाएं आमतौर पर आयोजित नहीं होतीं।
पिछली नौकरी की जानकारी छिपाना: हाईकोर्ट ने कहा कि पिंकी ने साक्षात्कार के समय अपनी सरकारी नौकरी की जानकारी छिपाई। पिंकी ने जवाब दिया कि साक्षात्कार के समय (2 नवंबर 2018) उन्होंने पहले ही इस्तीफा दे दिया था, और चेकलिस्ट में ऐसी जानकारी देने के लिए कोई कॉलम नहीं था।
एनओसी की अनुपस्थिति: हाईकोर्ट ने आरोप लगाया कि पिंकी ने आरजेएस परीक्षा के लिए शिक्षा विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) नहीं लिया। पिंकी ने कहा कि आरजेएस नियमों में ऐसी कोई शर्त नहीं है।
नियुक्ति की जानकारी छिपाना: हाईकोर्ट ने दावा किया कि पिंकी ने अपनी आरजेएस नियुक्ति की जानकारी शिक्षा विभाग और हाईकोर्ट दोनों से छिपाई। पिंकी ने जवाब दिया कि वह नियुक्ति के समय सरकारी सेवा में नहीं थीं, इसलिए कोई जानकारी देने की आवश्यकता नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट ने इन आरोपों की जांच की और पाया कि ये सभी आरोप उस समय से संबंधित हैं, जब पिंकी न्यायिक सेवा में नहीं थीं, बल्कि शिक्षा विभाग में कार्यरत थीं। कोर्ट ने माना कि इन मामलों में कोई कार्रवाई शिक्षा विभाग द्वारा नहीं की गई, और इन्हें न्यायिक सेवा में उनकी बर्खास्तगी का आधार बनाना उचित नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 21 पेज के फैसले में न केवल पिंकी मीणा को सेवा में बहाल करने का आदेश दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि उनकी बर्खास्तगी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन करती है। कोर्ट ने अपने फैसले में कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं, जो इस मामले की गंभीरता और सामाजिक संदर्भ को रेखांकित करती हैं।
कोर्ट ने कहा, "पिंकी मीणा ने सामाजिक कलंक से लड़ते हुए और कठिन परिस्थितियों में अपनी शिक्षा पूरी करते हुए राजस्थान न्यायिक सेवा परीक्षा में अपनी योग्यता साबित की है। उनकी बर्खास्तगी एक मामूली अनियमितता (जानकारी छिपाने की चूक) के लिए दी गई 'मृत्युदंड' के समान है।" कोर्ट ने यह भी माना कि पिंकी ने अपनी पिछली सरकारी नौकरी के बारे में जानकारी नहीं दी, लेकिन यह एक गंभीर कदाचार नहीं है, क्योंकि उन्होंने 25 अक्टूबर 2018 को अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था, और साक्षात्कार के समय (2 नवंबर 2018) वह सरकारी सेवा में नहीं थीं।
कोर्ट ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन पर जोर देते हुए कहा, "पिंकी को जांच के दौरान उचित सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया। जांच अधिकारी ने उनके पीठ पीछे जांच की, और जांच रिपोर्ट उन्हें प्रदान नहीं की गई। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लंघन है।" कोर्ट ने शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974) के मामले का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि यदि किसी प्रोबेशनर की सेवा समाप्ति कदाचार के आधार पर की जाती है, तो उसे उचित जांच और सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य है, अन्यथा यह संविधान के अनुच्छेद 311(2) का उल्लंघन माना जाएगा।
सामाजिक और लैंगिक समानता पर कोर्ट की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी और लैंगिक समानता के महत्व पर विशेष जोर दिया। कोर्ट ने कहा, "न्यायपालिका में महिलाओं की अधिक भागीदारी न केवल न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता को बेहतर बनाती है, बल्कि यह लैंगिक रूढ़ियों को तोड़ने और समाज में महिलाओं के अधिकारों को लागू करने में भी मदद करती है।"
कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि पिंकी मीणा ने सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को पार करते हुए अपनी योग्यता साबित की है, और उनकी बर्खास्तगी न केवल उनके व्यक्तिगत करियर को नुकसान पहुंचाती है, बल्कि यह न्यायपालिका में विविधता और समावेशिता के व्यापक लक्ष्य को भी प्रभावित करती है।
कोर्ट ने यह भी कहा, "न्यायपालिका में विविधता और महिलाओं का प्रतिनिधित्व समाज के विभिन्न सामाजिक और व्यक्तिगत संदर्भों को बेहतर ढंग से समझने और जवाब देने में सक्षम बनाता है। यह न केवल सामान्य रूप से, बल्कि विशेष रूप से महिलाओं से संबंधित मामलों में न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करता है।"