चंद्रपुर,महाराष्ट्र - भारत को अनोखी धान की किस्में देने वाले एक दलित किसान, जिसने उच्च उपज वाली लोकप्रिय 'एचएमटी' चावल विकसित की, उसके परिवार को सरकार की उपेक्षा और आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है। यह कहानी है महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के नांदेड़ गांव निवासी स्व. दादाजी रामाजी खोब्रागड़े के परिवार की, जिनके पौत्र दीपक खोब्रागड़े की बेटी रुहाणी एक गंभीर बीमारी से जूझ रही है।
2010 में Forbes पत्रिका ने दादाजी रामाजी खोब्रागड़े को भारत के सात सबसे प्रभावशाली उद्यमियों में शामिल किया था लेकिन केवल सम्मान से क्या परिवार का पेट भरता है? 2018 में इलाज के अभाव में दादाजी चल बसे।
उनके बाद आज भी मुफलिसी के हाल में जी रहे उनके परिवार और पोते के लिए अपनी नन्ही बच्ची का इलाज करवाना मुश्किल हो गया है और बेबस पिता को हारकर अपने दादा का वास्ता देते हुए सोशल मीडिया के जरिये सरकार और समाज जनों से मदद की गुहार लगानी पड़ी है- "एचएमटी चावल के आविष्कारक व दलित किसान स्व. दादाजी रामाजी खोब्रागड़े मेरे दादाजी थे। वे इलाज के अभाव में दुनिया से चले गए थे। मैं आपसे हाथ जोड़कर अपील करता हूं कि कृपया अपनी सामर्थ्यानुसार मदद करें। हमें बेटी रुहाणी के इलाज के लिए ₹5 लाख की आवश्यकता है। आपकी थोड़ी सी मदद उसकी जिंदगी को बचा सकती है।"

एचएमटी चावल के जनक की पीढ़ी आर्थिक संकट में
दादाजी रामाजी खोब्रागड़े (1939 - 3 जून 2018) ने 1983 में अपने खेत में 'पटेल 3' किस्म के धान में एक अनोखा पौधा देखा, जो अन्य पौधों से भिन्न था। उन्होंने इस पर प्रयोग किए और 1990 तक इसे 'एचएमटी' नाम दिया।
एचएमटी नाम के पीछे भी एक कहानी है- जब रामाजी अपने ममेरे भाई भीमराव शिंदे के साथ कृषि मंडी में 90 क्विंटल चावल की फसल बेचने पहुंचे तो अलग से दिखने वाले इस चावल को लेकर व्यापारियों की कौतुकता जगी और उनसे इसका नाम पूछा. उस दौर में 'एचएमटी' घड़ियों का जबरदस्त क्रेज था तो नाम पूछते ही भीमराव के जुबान पर नाम आया 'एचएमटी' और वही दादाजी रामाजी द्वारा विकसित चावल का नाम पड गया. ग्राहकों को चावल खूब पसंद आया और अपने दौर में एचएमटी-सोना' चावल अन्य किस्मों की तुलना में दोगुना दाम में बिकने लगा.
यह किस्म अधिक उपज देने वाली साबित हुई, लेकिन सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों ने उनकी उपलब्धि को अपनाने में रुचि नहीं दिखाई।
दादाजी रामाजी का नाम तब सुर्खियों में आया जब उन्होंने पंजाबराव कृषि विद्यापीठ (पीकेवी) पर आरोप लगाया कि उन्होंने उनकी विकसित की हुई चावल की किस्म का श्रेय ले लिया।
हुआ यूँ कि 1994 मेंपीकेवी के एक अधिकारी ने खोबरागड़े के खेत का दौरा किया और 'प्रयोग के लिए' पांच किलो एचएमटी बीज लेकर लौटे, जिसकी रसीद पर हस्ताक्षर किए। 1998 में, पीकेवी ने पीकेवी-एचएमटी चावल जारी किया। इसने पहले की किस्म को "शुद्ध" करने का दावा किया - लेकिन इसने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार नहीं किया कि इसने मूल किसान-प्रजनक, जो खुद खोबरागड़े हैं, से बीज प्राप्त किए थे।
2004 में द हिंदू में छपे एक लेख के नाद खोबरागड़े और उनके चावल प्रजनन कार्य को सार्वजनिक मान्यता मिली। दुनिया के अग्रणी चावल वैज्ञानिकों में से एक और चावल की विविधता को संरक्षित करने में योगदान देने वाले आर.एच. रिछारिया की स्मृति में स्थापित पहला रिछारिया सम्मान पुरस्कार, एचएमटी और कई अन्य चावल किस्मों को विकसित करने के लिए खोबरागड़े को सम्मानित किया गया।
2010 में Forbes पत्रिका ने उन्हें भारत के सात सबसे प्रभावशाली उद्यमियों में शामिल किया। महाराष्ट्र सरकार ने भी उन्हें 'कृषि भूषण' और 'कृषि रत्न' जैसे पुरस्कार दिए। हालांकि, सम्मान मिलने के बावजूद, वे जीवन भर आर्थिक संकट से जूझते रहे और 2018 में लकवे के बाद इलाज के अभाव में उनका निधन हो गया।
दीपक खोब्रागड़े अपने परिवार के साथ बेहद कठिनाई में जी रहे हैं। उनकी एक वर्षीय बेटी रुहाणी Hypothermia नामक गंभीर बीमारी से ग्रसित है, जिसके कारण उसका शरीर सामान्य तापमान से काफी नीचे चला जाता है।
दीपक बताते हैं, "रुहाणी का इलाज पिछले एक साल से चल रहा है और अब तक करीब 3.5 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं। यह पैसा रिश्तेदारों और दोस्तों से उधार लिया गया था। लेकिन अब हम पूरी तरह से कर्ज में डूब चुके हैं। रोजाना की फिजियोथेरेपी पर ₹1000 प्रतिदिन का खर्च आ रहा है, जिसे वहन करना अब संभव नहीं है। रुहाणी का नागपुर में मस्तिष्क से संबंधित उपचार भी चल रहा है."
दीपक, जिन्होंने ऑटोमोबाइल में बीएससी किया है और बड़ी कंपनियों में काम कर चुके हैं, को बेटी की बीमारी के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी। उनकी पत्नी पूनम एमए पास हैं, और रुहाणी के इलाज के लिए अपने पति के साथ चंद्रपुर में अस्थायी रूप से रह रही हैं।

दीपक के बड़े भाई मनीष कृषि में पोस्ट ग्रेजुएट हैं, मंझला भाई विजय ऑटोमोबाइल में स्नातक हैं। दोनों ही प्राइवेट नौकरियां करते हैं.
उनके पिता मित्रजीत खोब्रागड़े, जो खेतीबाड़ी करते हैं, बताते हैं, "पहले हमारे पास 3 एकड़ जमीन थी, लेकिन मेरे इलाज के लिए बाबा को 1.5 एकड़ गिरवी रखनी पड़ी। उस जमीन को हम आज तक वापस नहीं ले पाए। बाद में मेरे ससुर ने अपनी बेटी के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए 1.5 एकड़ जमीन खरीदी, जो आज भी हमारे पास है।"
परिवार इसी जमीन पर खरीफ सीजन में चावल की फसल पैदा कर बड़ी मुश्किल से अपना गुजर बसर कर रहा है। पिता के साथ हुए कपट की बात बताते हुए मित्रजीत कहते हैं कि 2005 में, राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन (एनआईएफ) ने उनके पिता को एचएमटी धान किस्म विकसित करने के लिए सम्मानित किया। इसने उनसे एचएमटी, डीआरके और सात अन्य चावल किस्मों के बीज भी एकत्र किए, जिन्हें उन्होंने तब तक विकसित किया था, साथ ही उन्हें पीपीवीएफआर अधिनियम, 2001 के तहत पौध किस्मों और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण (पीपीवीएफआरए) के साथ पंजीकृत करने का अधिकार भी दिया। खोबरागड़े अधिक पढ़े लिखे नहीं थे. बेटे ने बताया कि एनआईएफ ने इलेक्ट्रॉनिक स्टाम्प पेपर दस्तावेज़ पर खोबरागड़े के हस्ताक्षर प्राप्त किए, जिसमें एचएमटी और डीआरके धान के लिए पीपीवीएफआरए प्रमाणीकरण के तहत उनके सभी अधिकार (बौद्धिक संपदा अधिकार सहित) एनआईएफ को 1,00,000 रुपये की राशि में हस्तांतरित कर दिए गए।
दादाजी खोब्रागड़े को भारत और महाराष्ट्र सरकार ने सम्मानित किया था, लेकिन उनके परिवार को कभी कोई वित्तीय सहायता नहीं मिली। बौद्धिक संपदा अधिकार के सबधित विवाद भी चल रहा है जो अभी तक सुलझा नहीं है.
दीपक कहते हैं, "यह कितना दुखद है कि जिस व्यक्ति ने भारत को एक नहीं कई अनोखी धान की किस्में दी, उसके परिवार को चिकित्सा और रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए और हमारे परिवार को आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए।"
रुहाणी की स्थिति बेहद गंभीर है। वह न तो अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है और न ही अन्य बच्चों की तरह करवट बदल सकती है। डॉक्टरों के अनुसार, यदि नियमित फिजियोथेरेपी जारी नहीं रखी गई तो उसकी हालत और बिगड़ सकती है।