पटना/मोतिहारी। बिहार के मोतिहारी जिले के रुलही गाँव की महादलित मुसहर बस्ती में कदम रखते ही ऐसा लगता है मानो समय यहाँ ठहर गया हो। कच्ची झोपड़ियाँ, नंगे पाँव बच्चे, खेतों में दिन भर मेहनत कर भी भूख से जूझते चेहरे और मजबूरी में परदेस गए पुरूष का इंतजार करती घर की महिलाएं, यह सब मिलकर एक ऐसे भारत की तस्वीर खींचते हैं जो चुनावी मंचों पर किए गए वादों से कोसों दूर है। यहाँ हर गली में गरीबी की टीस, भेदभाव का बोझ और जीने की जद्दोजहद साफ दिखाई देती है।
रुलही गाँव की मुसहर बस्ती में करीब 50 परिवार रहते हैं। झोपड़ीनुमा घर और कच्ची दीवारें उनकी बेबसी की गवाही देती हैं। गाँव के ज़्यादातर पुरुष काम की तलाश में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों में पलायन कर गए हैं। घर पर महिलाएँ और बच्चे ही रह गए हैं। महिलाएँ खेतों में काम करती हैं, लेकिन हालात यह हैं कि सुबह से शाम तक 8-9 घंटे मेहनत करने के बाद भी उन्हें केवल 50 से 60 रुपये मिलते हैं।
द मूकनायक से बातचीत में गाँव की एक महिला संपति देवी कहती हैं "भूख से बड़ी कोई चीज़ नहीं। पेट भरने के लिए चाहे खेत में दिनभर झुके रहना पड़े, हम झुकते हैं। लेकिन इतनी मजदूरी से बच्चों का पेट तक नहीं भरता।" महिला की आँखों से बहते दर्द ने हालात बयां कर दिए। वह कहती हैं, "भूख से बड़ी कोई चीज़ नहीं। यह आवाज़ सिर्फ़ उनकी नहीं, बल्कि उस पूरे गाँव की है जो भूख, पलायन और उपेक्षा की मार झेल रहा है। उनके शब्द हमें झकझोरते हैं और बताते हैं कि विकास की दौड़ में कुछ लोग अब भी जीवन की सबसे बुनियादी ज़रूरत, रोटी के लिए लड़ रहे हैं।”
सरकारी राशन में कटौती
गरीबों के लिए सरकार की सबसे बड़ी सहारा योजना पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (PDS) भी इस बस्ती में पूरी तरह बेमानी साबित हो रही है। यहाँ की महिलाएँ बताती हैं कि राशन दुकानदार घोटाला करता है।
मुसहर बस्ती में भूख और बेबसी की कहानियाँ हर घर की दीवारों पर लिखी हैं। द मूकनायक से बातचीत में पूनम देवी कहती हैं, "सरकार कहती है पाँच किलो अनाज मिलेगा, लेकिन हमें केवल तीन-साढ़े तीन किलो ही दिया जाता है। बाकी का अनाज कहाँ जाता है, हम नहीं जानते।"
यह हालात बताते हैं कि सरकारी योजनाओं के बावजूद मुसहर समाज का पेट आज भी खाली रह जाता है। भूख और कुपोषण से लड़ते इन परिवारों तक मदद पूरी नहीं पहुँच पाती। ज़िंदगी की लड़ाई लड़ते हुए ये लोग सवाल करते हैं, आख़िर उनके हिस्से का अन्न रास्ते में ही क्यों गुम हो जाता है?
जातिगत भेदभाव की जिंदा तस्वीर
गरीबी से जूझते इन लोगों का दर्द सिर्फ़ खाली पेट और टूटी झोपड़ियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनके आत्मसम्मान और अस्तित्व को भी हर रोज़ चोट पहुँचाता है। इनकी ज़िंदगी आर्थिक तंगी से जितनी टूटी हुई है, उतनी ही गहरी चोट उन्हें समाज के तिरस्कार से मिलती है।
गाँव की महिलाओं ने बताया कि आज भी उन्हें जातिगत अपमान का बोझ उठाना पड़ता है। पूनम ने कहा, "हमारे गाँव का सरपंच जब बस्ती में आता है तो मुंह ढक लेता है। कहता है कि मुसहरों से बदबू आती है। हमसे दूरी बनाता है। लेकिन वोट मांगने जरूर आता है।"
समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ा मुसहर समुदाय अब भी उस सम्मान से वंचित है, जो हर इंसान का हक़ है। जब चुने हुए जनप्रतिनिधि भी इन्हें हीनभावना की नज़र से देखते हैं, तो सवाल उठता है कि फिर इनके लिए इंसाफ़ और बराबरी की उम्मीद कहाँ से आएगी?
मुसहर समाज की पहचान और पिछड़ापन
बिहार में मुसहर जाति को महादलित वर्ग में शामिल किया गया है। आबादी का लगभग 2-3 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद यह समाज अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार में सबसे पीछे है।
शासन की तमाम योजनाओं के बाद भी रुलही गाँव की बस्ती की हालत देखकर साफ होता है कि योजनाएँ केवल कागज़ों में चल रही हैं! पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है, झोपड़ियों में रहने वाले परिवारों तक न तो पोषण योजना का लाभ पहुँचता है और न ही स्वरोज़गार का कोई साधन।
गाँव के एक बुजुर्ग महिला लालमती देवी ने कहा, "योजनाओं की चर्चा तो खूब होती है, लेकिन हमारी बस्ती में न कोई अधिकारी आता है और न कोई सुविधा। हमें तो आज भी मजदूरी और अपमान ही मिला है।"
बिहार सरकार ने घोषणा की कि मनरेगा के तहत मजदूरों को साल में 100 दिन तक काम दिलाने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि रुलही गाँव जैसे इलाकों में मजदूरों को साल में मुश्किल से 30 से 40 दिन ही काम मिल पाता है। कई बार तो मनरेगा में नाम जुड़ा होने के बावजूद काम की मांग करने पर बजट नहीं है या काम उपलब्ध नहीं है कहकर लौटा दिया जाता है। इससे ग्रामीण परिवार फिर से खेतिहर मजदूरी या दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं।
गाँव के मुसहर समाज के लोग बताते हैं कि मनरेगा के तहत अगर वाकई 100 दिन का काम मिलता तो शायद उन्हें गुजरात, पंजाब-हरियाणा की तरफ मजदूरी करने न जाना पड़ता। लेकिन गाँव में रोजगार के मौके इतने सीमित हैं कि उन्हें रोज़ाना 50-60 रुपये की दिहाड़ी पर भी खेतों में काम करना पड़ता है।
गाँव के बुजुर्ग मानिक की आँखों में पीड़ा साफ झलकती है। वे द मूकनायक से बातचीत करते हुए कहते हैं, “सरकार कहती है कि हमें 200 दिन काम मिलेगा, लेकिन साल भर में सिर्फ़ 20-25 दिन ही काम मिला। बाकी दिनों में भूख और कर्ज़ ही हमारे साथी बने रहते हैं।” यह शब्द उस असलियत की गवाही हैं, जहाँ कागज़ी वादों और ज़मीनी सच्चाई के बीच गहरी खाई मौजूद है।
मनरेगा जैसे कानून को कभी गरीबों की ढाल और उनकी ज़िंदगी सँवारने वाला माना गया था। उम्मीद थी कि गाँव का मज़दूर अपने घर-गाँव में रहकर ही सम्मान के साथ रोज़ी कमा सकेगा। लेकिन हालात यह हैं कि काम की गारंटी सिर्फ़ किताबों तक सीमित रह गई है। न काम मिलता है, न मेहनत की मज़दूरी समय पर। ऐसे में पेट पालने के लिए लोग कर्ज़ में डूबते चले जाते हैं।
मानिक जैसे लाखों लोग आज भी इसी संघर्ष में जी रहे हैं। उनके चेहरे पर थकान ही नहीं, बल्कि व्यवस्था से टूटा हुआ विश्वास भी साफ दिखाई देता है। सच यही है कि जब तक योजनाओं की रोशनी सचमुच गाँव की झोपड़ियों तक नहीं पहुँचेगी, तब तक भूख और बेबसी का अंधेरा मिटना नामुमकिन है।
चुनावी वादे निकले कोरे!
बिहार चुनाव के दौरान हर दल महादलित समाज को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करता है। मुसहर समुदाय को "वोट बैंक" की तरह देखा जाता है। नेताओं के भाषणों में यह समाज गरीब-गुरबा और वंचित का प्रतीक बनकर उभरता है। लेकिन सवाल है कि चुनाव जीतने के बाद कितने नेता इन बस्तियों में लौटते हैं?
गाँव की महिलाएँ बताती हैं, "नेता केवल वोट लेने आते हैं। हमारे बच्चों के स्कूल, हमारे घर की झोपड़ी, हमारे खाली पेट, इनसे किसी को मतलब नहीं।"
जब बड़े मंचों से "गरीबी मिटाने", "रोज़गार देने" और "महादलितों को सशक्त करने" के वादे किए जाते हैं, तो रुलही गाँव की यह बस्ती उन वादों की असलियत को आईना दिखाती है।
यहाँ हर झोपड़ी, हर औरत का झुका हुआ चेहरा और हर बच्चे का अधपका पेट यही पूछता है, "क्या लोकतंत्र केवल वोट तक ही सीमित है? चुनाव जीतने के बाद हमारे हिस्से में भूख और अपमान ही क्यों आता है?"