नई दिल्ली- 1930 का दशक भारत के लिए एक जटिल दौर था, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ जाति व्यवस्था की गहरी जड़ें सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रही थीं। अछूतों के प्रति भेदभाव, जो सदियों पुरानी "पवित्रता" और "अपवित्रता" की धारणा पर आधारित था, ने लाखों लोगों को अमानवीय स्थिति में धकेल रखा था। उस समय के समाचार पत्रों जैसे यंग इंडिया, प्रकाश, बॉम्बे समाचार और आदि हिंदू में दर्ज घटनाएँ उस दौर की क्रूर वास्तविकता को उजागर करती हैं। ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि हिंदू समाज में मानवता, करुणा और नैतिकता से अधिक जातिगत पवित्रता को महत्व दिया जाता था।
अछूतों, जिन्हें हरिजन या दलित कहा जाता था, को मंदिरों, कुओं, स्कूलों और सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत किया जाता था। उन्हें अलग-थलग बस्तियों में रहने के लिए मजबूर किया जाता था, जाति हिंदुओं द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं को छूने से रोक दिया जाता था, और जातिगत नियमों के मामूली उल्लंघन के लिए हिंसा का शिकार बनाया जाता था। महात्मा गांधी जैसे सुधारकों ने हरिजनों के उत्थान की वकालत की, लेकिन उनके प्रयासों को अक्सर रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जो पारंपरिक पदानुक्रमों से चिपके रहे।
डॉ. अंबेडकर, जो स्वयं एक दलित थे, इस व्यवस्था के कटु आलोचक थे। उन्होंने तर्क दिया कि अछूतपन केवल एक सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि एक नैतिक और राजनीतिक विफलता भी है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित 'डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर: लेखन और भाषण : खंड संख्या 5' के अध्याय 5 में बाबासाहेब द्वारा वर्णित कुछ मार्मिक घटनाएं शामिल हैं, जो दिखाती हैं कि हिंदू अछूत को छूने से ज्यादा अमानवीय होना पसंद करेंगे। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि एक अछूत हिंदुओं के लिए कितना अशुद्ध और संगति के अयोग्य माना जाता था।
माँ और बच्चे की जान लेने वाली जातिगत संकीर्णता (काठियावाड़/गुजरात 1929)
यंग इंडिया के 12 दिसंबर 1929 के अंक में काठियावाड़ के एक गाँव के एक अछूत स्कूल शिक्षक की मार्मिक कहानी प्रकाशित हुई। 5 दिसंबर को उनकी पत्नी ने एक बच्चे को जन्म दिया, लेकिन 7 दिसंबर को वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गईं। उन्हें दस्त, सीने में सूजन और साँस लेने में तकलीफ होने लगी। शिक्षक ने स्थानीय हिंदू डॉक्टर से मदद माँगी, लेकिन डॉक्टर ने हरिजन बस्ती में आने या बच्चे की जाँच करने से साफ इनकार कर दिया।
नागरसेठ और गरासिया दरबार जैसे गणमान्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप और दो रुपये की फीस के आश्वासन के बाद, डॉक्टर ने हरिजन बस्ती के बाहर मरीज को देखने की शर्त रखी। शिक्षक को अपनी बीमार पत्नी और नवजात बच्चे को बस्ती से बाहर लाना पड़ा। डॉक्टर ने थर्मामीटर एक मुस्लिम व्यक्ति के जरिए शिक्षक को सौंपा, जिसे शिक्षक ने अपनी पत्नी को दिया और फिर उसी तरह वापस किया। रात के आठ बजे, दीये की रोशनी में थर्मामीटर देखकर डॉक्टर ने निमोनिया का निदान किया और दवा भेज दी। लेकिन, दो रुपये की फीस लेने के बावजूद, डॉक्टर ने बाद में मरीज को देखने से मना कर दिया। शिक्षक ने बाजार से अलसी लाकर पत्नी पर लगाई, लेकिन दोपहर दो बजे उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। शिक्षक ने लिखा, "मेरे जीवन का दीपक बुझ गया।"
यह घटना दिखाती है कि एक शिक्षित डॉक्टर ने अपनी पेशेवर जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर जातिगत भेदभाव को चुना, जिसके कारण एक माँ और बच्चे की जान चली गई।
बछड़े की जान बचाने की सजा (जगवाल/पंजाब 1932)
प्रकाश के 23 अगस्त 1932 के अंक में जफरवाल तहसील के जगवाल गाँव की एक घटना का जिक्र है। 6 अगस्त को एक बछड़ा कुएँ में गिर गया। पास खड़े रम्महाशय, जो डोम (अछूत) जाति के थे, ने बिना सोचे कुएँ में छलांग लगाई और बछड़े को अपनी बाहों में पकड़ लिया। तीन-चार लोगों की मदद से बछड़े को सुरक्षित निकाल लिया गया। लेकिन, गाँव के हिंदुओं ने इस साहसिक कार्य की प्रशंसा करने के बजाय, कुएँ को "अपवित्र" करने का आरोप लगाकर रम्महाशय पर हमला कर दिया।
गाँव वाले कुएँ की "पवित्रता" को लेकर इतने उग्र हो गए कि रम्महाशय की जान खतरे में पड़ गई। सौभाग्यवश, एक बैरिस्टर ने मौके पर पहुँचकर भीड़ को फटकारा और स्थिति को नियंत्रित किया। यह घटना एक गंभीर सवाल उठाती है: क्या बछड़े की जान बचाना महत्वपूर्ण था या कुएँ की "पवित्रता" बनाए रखना? हिंदुओं के लिए, एक अछूत का स्पर्श बछड़े की मृत्यु से भी बड़ा अपराध था।
बच्चे को बचाने की बड़ी कीमत (कालडी, केरल 1936)
बॉम्बे समाचार के 19 दिसंबर 1936 के अंक में केलीकट के कालडी गाँव की एक घटना दर्ज है। एक युवती का बच्चा कुएँ में गिर गया। उसकी चीख-पुकार सुनकर भी कोई ग्रामीण मदद के लिए आगे नहीं आया। एक अनजान राहगीर ने साहस दिखाते हुए कुएँ में छलांग लगाई और बच्चे को बचा लिया। जब उसने अपनी पहचान एक अछूत के रूप में बताई, तो ग्रामीणों का रवैया बदल गया। बच्चे को बचाने की कृतज्ञता व्यक्त करने के बजाय, उन्होंने कुएँ को "अपवित्र" करने के लिए उस पर गाली-गलौज और हमला किया।
यह घटना जगवाल की घटना से मिलती-जुलती है, जो दर्शाती है कि अछूतों के प्रति भेदभाव कितना गहरा था। एक बच्चे की जान बचाने वाले नायक को केवल इसलिए दंडित किया गया क्योंकि उसका स्पर्श हिंदुओं के लिए अस्वीकार्य था।
चिता को "अपवित्र" करने का दंड (लखनऊ, 1937)
लखनऊ के आदि हिंदू के जुलाई 1937 के अंक में एक चौंकाने वाली घटना का वर्णन है, जो जातिगत भेदभाव की क्रूरता को उजागर करती है। मद्रास होम्स कंपनी के एक उच्च जाति के कर्मचारी की मृत्यु के बाद, उनके अंतिम संस्कार में मित्र और रिश्तेदार चिता पर चावल डालने के लिए एकत्र हुए। इस समूह में एक आदि-द्रविड़, जो मद्रास का अछूत समुदाय था, ने भी सम्मान में चावल डाला। लेकिन इस साधारण कार्य को उच्च जाति के हिंदुओं ने चिता को "अपवित्र" करने वाला माना। इस बात पर तीखी बहस शुरू हुई, जो हिंसा में बदल गई। इस झगड़े में दो लोगों को चाकू मार दिया गया—एक की अस्पताल पहुँचते ही मृत्यु हो गई, और दूसरा गंभीर हालत में था। यह घटना दर्शाती है कि एक अछूत का शोक रस्म में शामिल होना भी इतना बड़ा अपराध माना गया कि वह हिंसा और मृत्यु का कारण बन गया, जो उस समय की जातिगत संकीर्णता की गहरी जड़ों को उजागर करता है।