चर्चित लेखक और दिल्ली विश्विद्यालय में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर रतन लाल द्वारा संकलित “धर्मान्तरण: आंबेडकर की धम्म यात्रा”, डॉ. भीमराव आंबेडकर के धर्म परिवर्तन करने की वजहों का एक संक्षिप्त एनसाइक्लोपीडिया है.
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित “धर्मान्तरण” किताब डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने के कारणों को विस्तार से बताती है. इससे पहले प्रो. रतन लाल द्वारा और भी कई पुस्तकों का संपादन, लेखन और अनुवादन भी किया गया है. इसमें “वंचित भारत: संशय, सवाल और संघर्ष”, “काशी प्रसाद जायसवाल संचयन”, “श्रद्धांजलि”, “समालोचना”, “भारतवर्ष का अन्धकार-युगीन इतिहास”, “एक था डॉक्टर एक था संत”, “सदन में शरद यादव: प्रतिनिधि भाषण” शामिल हैं.
डॉ. आंबेडकर के धर्म परिवर्तन से जुड़ी इस धर्मान्तरण किताब में वैसे तो कई विशेष प्रसंग मिलते हैं. लेकिन इस विस्तृत संकलन में से आज हम कुछ महत्वपूर्ण तथ्य की चर्चा करेंगे. किताब के ज्यादातर खंड बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय से लिए गए हैं. इसलिए किताब से जुड़े तथ्यों की सटीकता और सत्यता और भी बलवती हो जाती है.
डॉ. आंबेडकर का यह मत था कि, अस्पृश्यता की उत्पत्ति अपेक्षाकृत हाल में हुई थी और संभवतः वैदिक काल में या उसके उत्तर काल में शताब्दियों तक नहीं रही होगी. वेदों में कहीं भी अस्पृश्यता का निश्चय ही कोई उल्लेख नहीं है. फिर यह सवाल उठता है कि तब यह अस्तित्व में कैसे आई?
किताब के माध्यम से डॉ. आंबेडकर के धर्म परिवर्तन से जुड़े प्रमाणिक सन्दर्भों का खूब इस्तेमाल किया गया है. धर्म परिवर्तन के इस खंड में यह समझाने की कोशिश की गई है कि अस्पृश्यता का जन्म उस समय हुआ जब पूरे देश में बौद्ध धर्म का पताका लहरा रहा था. और यह भी कि, जब बुद्ध ने पशु बलि बंद की तो यह धीरे धीरे अस्तित्व में आनी शुरू हो गई थी.
आप सोच रहे होंगे कि पशु बलि पर रोक लगाने से अस्पृश्यता का क्या सम्बन्ध था? हाँ… सम्बन्ध था. हम इसे आगे पढ़ते हैं.
किताब के अनुसार, डॉ. आंबेडकर एक ऐसे युग को चित्रित करते हैं, जिसमें कुछ लोग हाल ही में खेती-बड़ी करने के लिए एक स्थान पर बस गए थे जबकि अन्य लोग अपनी भेड़-बकरियां और पशु लेकर जगह-जगह घूमते हुए खानाबदोश अवस्था में रहते थे।
खेती-बाड़ी करने वाले लोग अपनी जमीन, मकान, फसल, आदि पूंजी के साथ, खानाबदोश जनजातियों की तुलना में अधिक सभ्य अवस्था में स्वाभाविक रूप से, वे यह नहीं चाहते थे कि कोई घुमक्कड़ जनजातियां उनके शांतिपूर्ण जीवन में विघ्न पैदा करें। और ना ही उनका उन पशु चराने वाली जनजातियों से कोई मुकाबला था, जिनके पास अचल संपत्ति की कोई जिम्मेदारी नहीं थी तथा निश्चित रूप से शारीरिक दृष्टि से ज्यादा मजबूत और ज्यादा लंबे चौड़े थे।
इसलिए घुमक्कड़ जनजातियों के हमले से अपनी संपत्ति की रक्षा करने के लिए खेतिहर गांवों के लोगों ने चरागाही वर्ग के लोगों की सेवाएं हासिल कीं, जिनकी जनजातियां आपसी झगड़ों के कारण बिखर गई थीं। इन लोगों को गांव के बाहर जमीन और मकान दे दिए गए तथा उनका मुख्य काम था कानून और व्यवस्था कायम रखना, जैसा कि आज भी उनका मुख्य कार्य है।
चारागाही जनजातियों से गांवों की रक्षा करने का यह कार्य वे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहे। मुख्य ग्राम वासियों और गांव की सीमा पर रहने वाले ग्रामीणों के रक्षकों के बीच संबंध सामान्य मानव संबंध थे। उनमें अस्पृश्यता की कोई संकल्पना नहीं थी।
तब यह कुरीति कैसे पैदा हुई?
डॉ. आंबेडकर के अनुसार इसके लिए हमें भारत में बौद्ध धर्म के उद्भव पर दृष्टिपात करना होगा।
डॉ. अंबेडकर का कहना है, बौद्ध धर्म पूरे देश में ऐसे छा गया जैसे कोई भी मनुष्य विजेता भारत के इतिहास में कभी नहीं रहा। कुछ पीढ़ियों में ही प्रायः समूचे देश ने विशेषकर जनसाधारण और व्यापारी वर्ग ने बौद्ध धर्म अपना लिया।
ब्राह्मणवाद मृत्यु से भयाक्रांत था। वास्तव में, यदि ब्राह्मणों में चतुर अनुकूलनीयता ना रही होती तो ब्राह्मणवाद समाप्त हो जाता। ब्राह्मण हर सामाजिक और धार्मिक संस्था को पूरी तरह छोड़ने को तैयार थे, जिसके वे शताब्दियों से समर्थन रहे थे और जिसके बल पर वे युगों तक समृद्ध रहे। तभी ब्राह्मणवाद को बचाया जा सका।
फिर ब्राह्मणों ने क्या किया?
बुद्ध के तीन सौहार्दपूर्ण उपदेश थे, जो जनसाधारण को प्रिय थे। सामाजिक समता का उनके उपदेश, चातुर्वर्ण्य प्रणाली समाप्त करने की उनकी मांग, उनका अहिंसा सिद्धांत और विशाल धार्मिक समारोह तथा बलियों के लिए उनकी निंदा, क्योंकि उन चीजों के कारण आम जनता निर्धन हो गई थी और उनमें धार्मिक समारोह के प्रति विरोध पैदा हो गया था।
डॉ. आंबेडकर के अनुसार इस युग में ब्राह्मण शाकाहारी बिल्कुल भी नहीं थे। वे तो सबसे बड़े मांसाहारी थे, संभवतः देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, लेकिन यथार्थ में वे अपनी स्वयं की मांसाहार की लालसा पूरी करने के लिए हजारों गायों और अन्य पशुओं की बलि देते थे।
इतनी भारी मात्रा में ब्राह्मणों की मांस की मांग ने किसानों को निर्धन बना दिया। वे बलि के लिए गाय खोजकर लाते थे और परिणाम स्वरुप दूध एवं अन्य दूध उत्पादों से वंचित रह जाते थे जो उनकी आजीविका के मुख्य साधन थे।
इन पशु बलियों की मात्रा के सबूत वेदों में समारोह के भयंकर वर्णनों में आज भी देखा जा सकता है, जिससे पता चलता है कि उनमें मानवीय तत्व तनिक भी विद्यमान नहीं था। इस प्रकार जब बुद्ध ने पशु बलि की समाप्ति और धार्मिक अनुष्ठानों की समाप्ति का उपदेश उपदेश दिया तो जनसाधारण ने उनका उत्कट भाव से स्वागत किया और ब्राह्मणवादी उपदेशों को मानने से इनकार कर दिया। उन्हें नई विचारधारा आर्थिक और नैतिक दोनों दृष्टि से अच्छी लगी।
बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव से ब्राह्मण धर्म कैसे बचा पाया?
उसने हिंदू धर्म के बलि और धार्मिक अनुष्ठानों वाले भाग को एकदम छोड़ दिया। उन्होंने बुद्ध को पछाड़ने की दृष्टि से, अब तक काटी जाने वाली गाय को पूज्य बना दिया।
मांसाहारी ब्राह्मण कट्टर शाकाहारी बन गए। मदिरापान बंद हो गया। हिंदू धर्म ने विशुद्धतापरक आवरण धारण कर लिया।
इतना ही नहीं, क्षत्रियों को बौद्ध धर्म अपनाने से रोकने के लिए ब्राह्मणों ने उन्हें अपने समकक्ष स्थान दे दिया। डॉ. अंबेडकर ने कहा कि अन्य सैकड़ों संदर्भों के अलावा एक धार्मिक ग्रंथ में वास्तव में एक पद्य रचना है, जिसमें कहा गया है कि जैसे एक कैदी को भागने से रोकने के लिए उसके दोनों दोनों तरफ दो सिपाही तैनात रहते हैं, ठीक उसी प्रकार वैश्यों और शूद्रों को अपने हाथ से न निकलने देने के लिए ब्राह्मण और क्षत्रिय एक साथ सक्रिय रहते हैं।
गाय को पूज्य मानने तथा बलि समारोह का अंत हो जाने के कारण और असंख्य अन्य बौद्ध उपदेशों के हिंदू धर्म में समाविष्ट हो जाने पर,बजो जन समूह बौद्ध धर्म की तरफ चला गया था, वह धीरे-धीरे वापस लौटने लगा। महान उपदेश जिसे ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं किया, वह समता का सिद्धांत और चातुर्वर्ण्य जाति प्रथा का अंत थे। लेकिन उन्होंने एक काम किया। उन्होंने उस समय क्षत्रियों को अपने समकक्ष स्तर पर रखा, जन्म से ब्राह्मण देवताओं को पृष्ठभूमि में पहुंचा दिया, उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को रख दिया और समय के अनुकूल अन्य समझौते किए।
एक अत्यंत अप्रत्याशित घटना, जो बुद्ध के लिए सर्वथा घृणास्पद होती, ब्राह्मणों के सहयोग और समझौते के अभियान की प्रक्रिया में घटित हुई। गाय की बलि बुद्ध द्वारा बंद की गई। गाय को ब्राह्मणों द्वारा पूज्य बना दिया गया। सामान्य हिंदू समाज ने यह पवित्रता स्वीकार कर ली और गायों की हत्या बंद कर दी। ऐसे ही वर्तमान युग के अछूतों द्वारा भी किया गया। लेकिन अछूत इतने गरीब थे कि वे ताजा मांस या गाय का मांस किसी भी समय इस्तेमाल नहीं कर सकते थे, इसलिए वे मृत गायों की लाश को खाने की युगों पुरानी परिपाटी चलाते रहे।
बुद्ध या ब्राह्मणों ने लाश खाना मना नहीं किया था। निषेध केवल जिंदा गाय को काटने पर था। लेकिन आधुनिक अछूतों ने एक बहुत बड़ा अपराध किया। चूंकि वह सबसे गरीब थे, सामाजिक दृष्टि से सबसे निचले स्तर पर थे, इसलिए वे बौद्ध धर्म में सबसे लंबे समय तक रहे। उन्हें वापस लाने के लिए एक शक्तिशाली बड़ी ताकत का सैकड़ों वर्ष तक काम करना आवश्यक था। जब दूसरी किसी चीज ने काम नहीं किया तो सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता का इस्तेमाल किया गया।
मृत गाय खाने की उनकी परिपाटी का शोषण उनके खिलाफ किया गया। यह एक ऐसी चीज थी जो संभवतः हिंदू मन को अस्वीकार थी। यह घिनौनी थी। ब्राह्मण कठिनाई के बिना इस स्थिति को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकते थे।
इस प्रकार पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गई। जब दूसरे लोगों ने बौद्ध धर्म छोड़ दिया था तब भी उस पर डटे रहने का यह, वास्तव में, एक दंड था। इस प्रकार अस्पृश्यता, शिक्षा तथा स्वतंत्रता और सामाजिक समता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज भी जारी है।