महाराष्ट्र के चर्चित कहानीकार अशोक वटकर की आत्मकथात्मक उपन्यास “72 मील” उन रचनाओं में गिना जाना चाहिए जिसे पढ़ने के बाद पाठक कुछ हफ़्तों या महीनों तक भूल नहीं पाता है. अशोक की इस रचना को पाठक न सिर्फ उपन्यास कह पाता है और न ही सिर्फ़ आत्मकथा — असल में यह दोनों का कॉम्बो है. वटकल की यह रचना मूल रूप से तो मराठी में “बहत्तर मैल” नमक शीर्षक से प्रकाशित हुई है, लेकिन इसे सुलभा कोरे ने हिंदी में अनुवादित कर एक हाशिए के समाज से आने वाले कहानीकार के बचपन की दर्दनाक दास्तान को हिंदी भाषी पाठकों से जोड़ने का काम किया है.
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह 'बहत्तर मील' उपन्यास, लेखक की अपनी खुद की बचपन में 3 दिनों में गुजारी गईं यात्राओं का मार्मिक वर्णन है. बिना लाग लपेट के लेखक ने वह सब कुछ कह डाला है, जो उसके साथ बचपन में उन तीन दिनों की बहत्तर मील की यात्रा में बीता था. पाठक इस उपन्यास में, ढोर समाज के एक लड़के को मिलने वाली गालियां, दुत्कार, अपमान, मासूमों की निर्मम मौतें, पल-पल एक के बाद एक यातनाओं को झेलती एक महार महिला राधाक्का से मुखातिब होता है. इसे पढ़ते हुए पाठक दुःख, पीड़ा, वेदना, करुणा से भरे कई अनुभव महसूस कराता है।
कहानी के केंद्र में खुद लेखक - अशोक, जो उपन्यास में ‘आस्सुक्या’ के नाम से जाने जाते हैं, शामिल हैं. पूरे उपन्यास में एक ढोर जाति का लड़का आस्सुक्या और, 'महार' जाति की एक औरत और उसके बच्चे हैं। हालांकि, उपन्यास की शुरुआत से लेकर अंत तक लेखक दुनियाभर की लगभग बड़ी से बड़ी यातनाओं को सहने वाली, बार-बार संयोग से टूट-टूटकर बिखरने वाली आस्सुक्या को सबसे श्रेष्ठ, महान जगह देते हैं. जिसे वह आज भी याद करते हैं, और बचपन में उस महिला द्वारा लादे गए कर्ज को हल्का करने की नीयत से इस आत्मकथात्मक उपन्यास की रचना कर बैठते हैं.
लेखक ने उपन्यास की शुरुआत ख़ुद के पिता से की है। वह पिता को लापरवाह मानते हैं। और कहीं न कहीं पाठक को यह किताब पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष मिलता है कि, अगर आस्सुक्या के पिता एक अच्छे पिता होते तो शायद न 'बहत्तर मील' जैसी कोई रचना होती, न लेखक उन तीन दिनों की नारकीय जिंदगी की तीस पूरे जीवन लेकर जीता. आप इस बात का अंदाजा किताब की कुछ पंक्तियों को पढ़कर ही लगा सकते हैं. लेखक बताते हैं:
"मेरा बाप मुंबई में रहता था और हम सब कोल्हापुर में, उस बंजर माने जाने वाले जवाहरनगर में! हमारा बाप छह-छह महीनों के अंतराल से घर आया करता था। घर में सबसे बड़ा बच्चा मैं ही था। मां बाप के झगड़े सुनने के मौके मुझे हरदम मिलते थे। बाप कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी था। पुराना बी.ए. पास और उसे बीवी मिली थी, अनपढ़! थोड़ा सा नाम होने के बाद मेरे बाप को अपनी अनपढ़ बीवी, बेमेल लगने लगी और वह मुंबई से किसी पढ़ी-लिखी औरत के अधीन होकर बड़े-बड़े कारनामे करने के डींग हांकता रहा। उसने नाटक लिखे, फिल्म बनाई, बड़े-बड़े कारोबार किये, बहुत मजा किया, पानी की तरह पैसा बहाया उसे बिन ब्याही औरत के साथ, और फिर अंततः गिर गया बड़े से गड्ढे में..! इसी वजह से जब भी बाप घर आता था घर में मां-बाप के बीच धुआं उठाना शुरू हो जाता था। शायद उसका मानना था कि अनपढ़ पत्नी की वजह से उसकी प्रगति नहीं हो रही है। कुछ सालों के लिए तो मां-बाप दोनों ने ही हम बच्चों को यूं ही छोड़ दिया था। मां ने अपने मायके में पराश्रय लिया। दो-ढाई सालों तक वड़गांव में मां ने बड़े ही अपमानजनक ढंग से दिन बिताए। हमने उस वक्त जाना की मां-बाप के बीच दरार आई है। पति द्वारा छोड़ी हुई बहन के बच्चों को हमारे मामा लोग हरदम गुनहगार मानते थे।"
लेखक कुछ इस तरह अपने पिता के बारे में बताते हैं. जिसे कभी पिता का भरपूर प्यार नसीब नहीं हुआ. इन्हीं कारणों से माँ भी कुछ ज्यादा ख्याल नहीं करती थीं उसका. हालांकि, उपन्यास में बड़ी तटस्थता से लेखक ने अपने अन्दर की बुराइयों और बचपन की शरारतों के बारे में भी बताया है, जो उनके माँ-बाप के नाराज रहने का एक कारण हो सकता है. आस्सुक्या के माँ-बाप के बीच दरार आने के बाद आप यह कह सकते हैं कि, अंततः पिता अपने बेटे आस्सुक्या से पीछा छुड़ाने के लिए उसे बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा देते हैं. जो उसके घर से काफी दूर बॉम्बे की पहाड़ियों में कहीं है.
एक बारह साल का वह बालक आस्सुक्या, जिसे उसकी मर्जी के बगैर बोर्डिंग स्कूल में भर्ती कर दिया जाता है, नतीजन वह वहां से भाग जाता है। वहां से निकलने के बाद अपमान, भय, असहायता, विह्वलता और घर पहुंचने की व्यग्रता के बीच 72 मील की उसकी यात्रा — महाराष्ट्र के सतारा से कोल्हापुर — इस उपन्यास की मार्मिक कथा होती है।
उपन्यास कई मौकों पर बेहद गंभीर सस्पेंस तो बनाती है, लेकिन लेखक अगली ही लाइनों में उस सस्पेंस को ख़त्म कर देता है, और आगे की कहानी की मूल बातों को जाहिर कर देता है. पाठक इसे लेखक की भावुकता कह सकते हैं या और कुछ. हालांकि, कहानी आपको जाने नहीं देती, जोड़े रखती है.
बोर्डिंग स्कूल से भागने के बाद, बहत्तर मील की यात्रा में उस आस्सुक्या को एक महार जाति (अनुसूचित जाति) की एक गरीब, असहाय महिला का साथ मिलता है। पूरी यात्रा के ख़त्म होने तक महिला के कुल 6 बच्चों में से 3 बच्चों की असामयिक और दुखदाई मौत हो जाती है - [सबसे छोटे बच्चे, जो गोद में होता है, की मौत बीमारी की वजह से हो जाती है, सबसे बड़े बेटे की मौत नागिन के डंसने से हो जाती है. अंत में एक और बेटे की निर्मम मौत एक मवेशी के खुरों से कुचलने के कुछ दिनों हो जाती है.]

आस्सुक्या की यह तीन दिनों की 72 मील की यात्रा बेहद दुःखद, सतही और मार्मिक होती है। कहानी में जहां एक ओर वेदना है, असीम दया, मामत्व है। वहीं दूसरी ओर इस निर्दयी, क्रूर दुनिया के बारे में एक दहशत, खौफनाक डर है... खुद को इंसान कहलवाने को लेकर शर्म भी मौजूद है। गरीबी, दुख, भूख और असहाय, बीमारियों से घुनी हुई हड्डियों के ढांचे बनकर मर गए उसके तीन बच्चों की यादें भी हैं।
उपन्यास की कहानी पाठक को यह समझाने की कोशिश करती है कि कैसे जब दलित समाज के लोगों के पास इतने पैसे नहीं होते की वह किसी बस की मदद से एक शहर से दूसरे शहर की सुगम और सुरक्षित यात्रा कर सके तब वह अपने बाल-बच्चों के साथ लंबी दूरी तक पैदल की यात्रा करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इस असुरक्षित यात्रा के दौरान उनके साथ जो घटित होता है, वह किसी के भी दिल को चीर देने के लिए काफी होता है.
सतारा के हॉस्टल से भागा हुआ एक लड़का, सतारा से कोल्हापुर तक की 'बहत्तर मील' की यात्रा इसी परिवार के साथ करता है। रास्ते में भीख मांगने के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं होता। उस अजीबोगरीब औरत के वे छह बच्चे जो नंगे पैर, दूर तक, खत्म न होने वाले रास्ते पर चलते-चलते, गिरते-पड़ते, रोते, झिझकते चले जा रहे थे। इसी तरह मांगते-खाते, समाज की अवहेलना झेलते यह लोग अपनी 'बहत्तर मील' की यात्रा करते हैं। इस तीन दिनों की यात्रा में तीन छोटे बच्चे अपनी जान गवा देते हैं। मरे हुए बच्चों को यह लोग रास्ते में गड्ढे खोदकर गाड़ देते हैं और आगे चल पड़ते हैं। हर एक मौत के बाद पाठक के मनोमस्तिष्क पर एक शोक का अदृश्य भार बढ़ता चला जाता है.
उपन्यास के मध्य में अशोक कई बार एस.टी. बस में चढ़कर अपने घर कोल्हापुर जाने का असफल प्रयास करता है। आख़िरी बार जब वह असफल होता है तब राधाक्का और उसके बच्चे उसके साथ होते हैं। वह एक दिन पहले ही अपना बोर्डिंग स्कूल छोड़ चुका होता है। शाम होते ही उसे चिंता सताने लगती है कि सतारा से बोर्डिंग के लोग आकर उसे पकड़ न ले जायें। उस समय राधाक्का उसे कुछ इस तरह, स्थानीय बोली में समझाती है: "आने दे, भाड़ों को! देकती हूं, तेरे कू कौन हात लगाता है। फाड़ के खा जाऊंगी उनको। राधी कहते हैं मुजे! तुम कह दो, तुमारा नाम 'आस्सुकया' नय है! तुम महार (हरिजन) जाति के हो — तुम्हारे बाप का नाम - हारळया महार है- कहना, कोल्हापुर मेरा गांव नय। मैं सतारा कैसा हय, ये बी जानता नय- बता देना...!
यहां एक चीज आपको स्पष्ट कर दूँ कि लेखक ने अपने इस आत्मकथात्मक उपन्यास में अपना नाम नहीं बदला है. लेकिन वह औरत जो उसके साथ 72 मीलों तक उसके सफ़र की साथी बनती है, वह उसे अशोक की जगह “आस्सुक्या” बुलाती है. इसलिए पूरे कहानी में अशोक, आस्सुक्या के रूप में जाने जाते हैं.
रास्ते में चलते चलते वह एक बस स्टैंड पर रुककर भीख भी मांगते हैं, क्योंकि वह भूख ज्वाला में जल रहे होते हैं। आस्सुक्या के लिए यह पहली बार था, जब उसने पेट की भूख शांत करने के लिए भीख मांगी थी। हालांकि, वहां भीख मांगते समय उन्हें गालियां, अपमान, दुत्कार भी खूब मिलती हैं। इन सब को देखती हुई राधाक्का कहती है, "आस्सुक्या, आज हमारे साथ तुमको भी भीक मांगनी पड़ी। लेकिन भीक का खाना जहर है और कष्ट से मिला खाना अमरूत (अमृत) है। हमारा जल्म (जन्म) ही जहर खाने के वास्ते है। तुमारा अईसा नय हय।"
रास्ते में चलते हुए दूसरी रात सभी को खाने के लिए कुछ भी नहीं मिलता। सभी एक गुमटीनुमा होटल के पास ठहरे हुए होते हैं। वहां कुछ पुरुष शराब के नशे में और एक दो ट्रक ड्राइवर होते हैं। वहां राधाक्का को अपने भूखे बच्चों और आस्सुक्या को सिर्फ एक मुट्ठी नमकीन के लिए उसे अपनी अस्मिता तक को दांव पर लगाना पड़ता है। अब तक राधाक्का की देह ने कौन-से संकटों को नहीं झेला था, भोगा था? और इतने मुसीबतों में भी सहेजे गए अपने सतीत्व को भी वह उस दिन दांव पर लगा रही थी, सिर्फ मुट्ठीभर नमकीन की ख़ातिर!
उस मर्द के साथ जाने से पहले वह कहती है, "आस्सुक्या, मयने सिरफ बच्चों का बोजा (भार) ढोया रे, उनकी बीमारियों का बोजा नय ढो पाई। अब तुम लोगों की भूक (भूख) का बोजा मय ले रही हूं...तुम दिमाग वाले हो, समजदार हो... मुजे दोस मत देना..."

लेखक यह बात आजीवन कभी नहीं भूल पाता है कि एक औरत, जिसका उससे खून का भी रिश्ता नहीं होता फिर भी किसी ढोर जाति के बच्चे की भूख मिटाने के लिए अपने जिस्म को किसी मर्द के सामने परोस देती है. शायद तभी आस्सुक्या राधाक्का को अपनी माँ मान बैठता है. उपन्यास में कई बार आस्सुक्या राधाक्का से तो कुछ बार राधाक्का आस्सुक्या से लिपटकर फूट-फूटकर रोते हैं. ऐसा हो भी क्यों न, आस्सुक्या को कभी उसे अपने असली माँ-बाप से माता-पिता का वह प्यार जो नहीं मिला था, जो राधाक्का से उसे मिला. और राधाक्का को भी अपने बेटों जैसा एक और आज्ञाकारी बेटा मिल गया था जिससे वह आखिरी में दूर नहीं होना चाह रही थी.
इस तरह दो बच्चों को खो चुकी राधाक्का अब अन्दर से भी खुद एक जिन्दा लाश हो चुकी होती है. हालांकि, अगले दिन उसके तीसरे बच्चे की मौत भी हो जाती है. फिर वह पहाड़ियों, पथरीले रास्तों से होते हुए, रास्ते में पानी पी-पीकर भूख की ज्वाला को शांत करते हुए उस जगह पहुंचते हैं जहां से राधाक्का और आस्सुक्या एक दूसरे से अलग होने वाले होते हैं. क्योंकि आस्सुक्या कुछ ही दूरी की यात्रा के बाद अपने घर पहुंचने वाला होता है.
वह उस पल को याद करता है जब वह अंतिम बार राधाक्का से विदा लेता है. राधाक्का कहती है:
"बाईं ओर से जा...बाबा... बाईं ओर से... रास्ते पर बाईं ओर से जाना बाबा... तू ऐसा करना, रास्ते के एक ओर से किनारे-किनारे से जा... आस्सुक्या... इस रास्ते पर डायवर (ड्राइवर) लोग बड़े कमीने होते हैं रे.... बकरी की तरह तुजे पीस जाएंगे".
इन शब्दों के साथ पीछे से कोई धकेल रहा हो मानों। बाद में राधाक्का की आवाज आनी बंद हो जाती है। जब वह लड़का पीछे मुड़कर देखा तो देखता है कि धूल में वह (राधाक्का) और घागरे में लपेटी उसकी दो बेटियां तथा उसके पीछे फटे पुराने तौलिए जैसा चिथड़ा कपड़ा कमर में लपेटकर खड़ा था, सात-आठ साल का बच्चा। ये सभी बार-बार आस्सुक्या को देखते हुए धीरे-धीरे चले जा रहे थे।
स्पष्ट शब्दों में इस उपन्यास को पढ़कर समझ बनती है कि, 1947 के दौरान बॉम्बे (अब महाराष्ट्र) में एक दलित होना क्या होता है, असल में उपन्यास यह बात बखूबी बताती है. 20 अक्टूबर, 1947 में कोल्हापुर, महाराष्ट्र के वड़गांव में जन्मे अशोक नामदेव वटकल की इस रचना — ‘72 मील’ पर एक मराठी फिल्म भी बन चुकी है. उनका एक अन्य उपन्यास ‘मेलेलं पाणी’ को महाराष्ट्र शासन का उत्कृष्ट उपन्यास लेखन पुरस्कार प्राप्त हुआ है.