नई दिल्ली- दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि अनुसूचित जनजाति (SC/ST) अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 3(1)(f) और (g) बैंक के वैध मॉर्टगेज अधिकारों को रोकने या बाधित करने के लिए लागू नहीं की जा सकती। इस मामले में एक्सिस बैंक ने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें आयोग द्वारा जारी समन और जांच को चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने न केवल आयोग की कार्यवाही पर स्टे लगा दिया, बल्कि बैंक के प्रबंध निदेशक (एमडी) और सीईओ को व्यक्तिगत रूप से हाजिर होने के आदेश को भी रद्द कर दिया। जस्टिस सचिन दत्ता की एकलपीठ ने 16 अक्टूबर 2025 को यह फैसला सुनाया, जो बैंकिंग क्षेत्र में SC/ST एक्ट के दुरुपयोग को रोकने के संदर्भ में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
मामला एक पुराने ऋण विवाद से जुड़ा है, जो 2013 में शुरू हुआ। एक्सिस बैंक ने सुंदेव अप्लायंसेज लिमिटेड नामक कंपनी को 16 करोड़ 68 लाख रुपये का क्रेडिट सुविधा प्रदान की थी। इस ऋण के बदले कंपनी के प्रमोटरों ने महाराष्ट्र के ठाणे जिले के वसई स्थित संपत्ति पर इक्विटेबल मॉर्टगेज (समझौता आधारित गिरवी) रखी थी। लेकिन कंपनी द्वारा ऋण चुकाने में चूक होने पर 28 अक्टूबर 2017 को बैंक ने खाते को नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (NPA) घोषित कर दिया। इसके बाद बैंक ने सिक्योरिटाइजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट, 2002 (SARFAESI एक्ट) की धारा 13(4) के तहत अपनी सिक्योरिटी को लागू करने की प्रक्रिया शुरू की।
SARFAESI एक्ट के तहत पालघर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कोर्ट ने 19 जनवरी 2024 को एक्सिस बैंक को संपत्ति का कब्जा लेने की अनुमति दी। इसके बाद तहसीलदार और एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट, वसई ने 11 जुलाई 2024 को नोटिस जारी कर संपत्ति का कब्जा 8 और 9 अगस्त 2024 के बीच बैंक को सौंपने का आदेश दिया। लेकिन इसी बीच, एक व्यक्ति (रिस्पॉन्डेंट नंबर 2) ने दावा किया कि 27 जुलाई 2016 के एक सेल एग्रीमेंट के तहत संपत्ति का मालिकाना हक उसके पास है। इस आधार पर उसने वसई सिविल जज कोर्ट में सिविल सूट नंबर 4/2025 दायर किया, जिसमें बैंक को संपत्ति से निपटने से रोकने की मांग की गई। सूट में कहा गया कि बैंक ने उधारकर्ताओं और गिरवी रखने वालों के मालिकाना हक की जांच किए बिना संपत्ति को सिक्योरिटी के रूप में स्वीकार किया, जो अवैध है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस सिविल सूट में अभी तक कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं हुआ है।
सिविल सूट के साथ-साथ रिस्पॉन्डेंट नंबर 2 ने 10 फरवरी 2025 को SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 3(1)(f) और (g) के तहत NCST में शिकायत दर्ज की। इसमें बैंक पर कथित तौर पर जनजातीय व्यक्ति के खिलाफ अत्याचार का आरोप लगाया गया। NCST ने इस शिकायत पर 18 जुलाई को सिटिंग नोटिस जारी किया, जिसमें बैंक के एमडी और सीईओ को 22 जुलाई को व्यक्तिगत रूप से हाजिर होने का आदेश दिया गया। लेकिन बैंक को यह नोटिस तीन दिन देरी से, यानी 25 जुलाई को मिला। इसके बाद NCST ने 29 जुलाई को समन जारी किया, जिसमें एमडी और सीईओ को 18 अगस्त को हाजिर होने या सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के ऑर्डर XVI रूल 12 के तहत कार्रवाई की चेतावनी दी गई।
बैंक ने 1 अगस्त को NCST को पत्र लिखकर नोटिस और समन को रद्द करने की मांग की। 18 अगस्त को बैंक के प्रतिनिधि NCST के समक्ष हाजिर हुए और स्पष्ट किया कि (i) शिकायत की प्रति बैंक को नहीं दी गई; (ii) मॉर्टगेज वैध था और डिफॉल्ट पर बैंक को SARFAESI के तहत सिक्योरिटी लागू करने का अधिकार है; (iii) शिकायती व्यक्ति का संपत्ति पर कोई लॉकस स्टैंडी (हक) नहीं है, क्योंकि वह न तो मालिक है और न ही कब्जे में; (iv) शिकायत में दो सिविल सूट लंबित होने जैसे महत्वपूर्ण तथ्यों का दमन किया गया, इसलिए जांच NCST के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। लेकिन NCST ने इन तर्कों को नजरअंदाज करते हुए 18 अगस्त को पालघर के कलेक्टर, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को स्टेटस रिपोर्ट जमा करने का निर्देश दिया।
इसके बाद NCST ने 22 सितंबरको एक आदेश जारी किया, जिसमें 15 दिनों के अंदर एक्शन रिपोर्ट मांगी गई और कहा गया कि संपत्ति की नीलामी तक कोई कार्रवाई न की जाए, जब तक जनजातीय व्यक्तियों के मालिकाना हक पर पूर्ण स्पष्टता न आ जाए। 6 अक्टूबर को फिर से समन जारी कर एमडी और सीईओ को 16 अक्टूबर की सुनवाई के लिए हाजिर होने का आदेश दिया गया। बैंक ने इन सभी कार्यवाहियों को अधिकार क्षेत्र से बाहर बताते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें NCST को शिकायत के आधार पर जांच, पूछताछ या कार्रवाई से रोकने, 29 जुलाई और 6 अक्टूबर के समन तथा 22 सितंबर के आदेश को रद्द करने की मांग की गई।
हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए नोटिस जारी किया और रिस्पॉन्डेंट्स को चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया। लेकिन प्रथम दृष्टया आधार पर कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। जस्टिस दत्ता ने कहा, "प्राइमा फेशी, वर्तमान मामले के तथ्यों के संदर्भ में SC/ST अत्याचार अधिनियम की धारा 3(1)(f) और (g) लागू नहीं होतीं, क्योंकि इन्हें याचिकाकर्ता के मॉर्टगेज अधिकार/सिक्योरिटी इंटरेस्ट के प्रयोग को रोकने या बाधित करने के लिए लागू नहीं किया जा सकता।" कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि NCST की कार्यवाही, विशेष रूप से समन जो एमडी और सीईओ को व्यक्तिगत हाजिरी के लिए बाध्य करता है , अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
कोर्ट ने आगे कहा, "याचिकाकर्ता के वरिष्ठ अधिकारियों को NCST के समक्ष व्यक्तिगत रूप से हाजिर होने की आवश्यकता के लिए कोई तर्कसंगत कारण दर्ज नहीं किया गया है।" इस फैसले में कोर्ट ने 2017 के एक समन्वित बेंच केस स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के 2011 के फैसले स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम जसवीर सिंह (2011) 4 SCC 288 का संदर्भ लिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वरिष्ठ अधिकारियों को रूटीन रूप से समन जारी करना उचित नहीं, बल्कि केवल जांच के लिए आवश्यक होने पर ही। कोर्ट ने उद्धृत करते हुए कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में अदालतों और ट्रिब्यूनलों द्वारा वरिष्ठ अधिकारियों को बिना आवश्यकता जांचे समन जारी करने की प्रथा की निंदा की है... वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत हाजिरी अंतिम उपाय के रूप में होनी चाहिए, दुर्लभ और असाधारण मामलों में, जहां यह पूर्णतः आवश्यक हो।"
इस फैसले के परिणामस्वरूप, कोर्ट ने 29 जुलाई और 6 अक्टूबर के समन तथा संबंधित कार्यवाही पर अगली सुनवाई (5 फरवरी 2026) तक स्टे लगा दिया। यह आदेश न केवल एक्सिस बैंक को तत्काल राहत प्रदान करता है, बल्कि बैंकिंग क्षेत्र में SC/ST एक्ट के संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिए एक उदाहरण स्थापित करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला SARFAESI एक्ट और संवैधानिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखने में सहायक होगा। मामले की अगली सुनवाई में रिस्पॉन्डेंट्स का जवाब और रिजॉइंडर दाखिल होने के बाद ही अंतिम फैसला होगा।