भोपाल। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय जबलपुर ने राज्य सरकार द्वारा मंदिरों में केवल एक विशेष जाति (ब्राह्मण) को पुजारी नियुक्त करने की नीति को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से जवाब तलब किया है। यह याचिका मध्य प्रदेश अनुसूचित जाति-जनजाति अधिकारी एवं कर्मचारी संघ (अजाक्स) द्वारा दायर की गई है, जिसमें कहा गया है कि यह नीति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 21 का उल्लंघन करती है।
क्या है मामला?
अजाक्स संघ द्वारा दायर जनहित याचिका में मध्य प्रदेश शासन के अध्यात्म (धर्मस) विभाग, भोपाल द्वारा जारी की गई दो नीतियों — 04 अक्टूबर 2018 और 04 फरवरी 2019 के आदेश — एवं मध्य प्रदेश विनिर्दिष्ट मंदिर विधेयक 2019 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार ने इस कानून के तहत राज्य नियंत्रित मंदिरों में केवल ब्राह्मण जाति के लोगों को ही पुजारी नियुक्त करने की व्यवस्था की है और नियुक्त पुजारियों को राज्य कोष से वेतन देने का प्रावधान भी किया गया है।
संविधान के खिलाफ है नीति
मुख्य न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत एवं न्यायमूर्ति विवेक जैन की खंडपीठ के समक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर एवं पुष्पेंद्र शाह ने याचिकाकर्ता की ओर से तर्क देते हुए कहा कि यह नीति संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (विभेद का निषेध), 16 (समान अवसर) और 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन करती है।
अधिवक्ताओं ने कहा कि हिंदू धर्म में ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग के लोग भी शामिल हैं, लेकिन मंदिरों में पुजारी नियुक्ति के लिए सिर्फ ब्राह्मणों को पात्र मानना, एक प्रकार की वैधानिक असमानता है। यह व्यवस्था जातीय वर्चस्व को बढ़ावा देती है और सामाजिक समानता के अधिकार को बाधित करती है।
राज्य सरकार की आपत्ति
राज्य सरकार की ओर से डिप्टी एडवोकेट जनरल अभीजीत अवस्थी ने यह आपत्ति उठाई कि अजाक्स एक कर्मचारी संगठन है, जिसे इस प्रकार की याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं है। इस पर वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर ने जवाब देते हुए कहा कि:
ठाकुर ने यह भी बताया कि हिंदू समुदाय में एक आम धारणा बनी हुई है कि केवल ब्राह्मण ही मंदिर में पूजा कर सकते हैं, जबकि यह मान्यता न केवल वैज्ञानिक रूप से गलत है बल्कि सामाजिक समानता के विरुद्ध भी है।
बी.पी. मंडल आयोग और रामजी महाजन आयोग का हवाला
याचिकाकर्ता की ओर से बी.पी. मंडल आयोग और रामजी महाजन आयोग की रिपोर्टों का हवाला भी दिया गया। रिपोर्टों के अनुसार, ओबीसी समुदाय की अधिकतर जातियों को शूद्र वर्ण, एससी-एसटी समुदाय को पंचज (अस्पृश्य शूद्र) के रूप में वर्णित किया गया है।
लेकिन संविधान के लागू होने के बाद से अनुच्छेद 13, 14 और 17 के तहत छुआछूत और वर्ण व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है। अब सभी नागरिक समान हैं और किसी भी सार्वजनिक पद या अवसर पर समान रूप से दावा कर सकते हैं।
अधिवक्ताओं ने यह भी तर्क रखा कि जब किसी पद के लिए वेतन का भुगतान राज्य कोष से किया जा रहा हो, तो उस पद पर आरक्षण के प्रावधान भी लागू होते हैं। अतः पुजारियों की नियुक्ति में भी आरक्षण का पालन होना चाहिए।
हाईकोर्ट ने नोटिस जारी कर मांगा जवाब
सभी तर्कों पर विचार करते हुए हाईकोर्ट की खंडपीठ ने याचिका को विचार योग्य मानते हुए राज्य सरकार के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव (GAD), सामाजिक न्याय मंत्रालय, धार्मिक एवं धर्मस्व विभाग तथा लोक निर्माण विभाग को नोटिस जारी करते हुए चार सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है।
इस याचिका की पैरवी वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर, विनायक प्रसाद शाह, पुष्पेंद्र शाह, रमेश प्रजापति और अखलेश प्रजापति द्वारा की गई।
द मूकनायक से बातचीत में वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर ने कहा कि मंदिरों में सिर्फ एक जाति के लोगों को पुजारी बनाना न केवल भेदभावपूर्ण है, बल्कि यह संविधान के खिलाफ भी है। उन्होंने कहा कि जब मंदिर राज्य सरकार के नियंत्रण में हैं और पुजारियों को वेतन राज्य कोष से दिया जाता है, तो सभी वर्गों को इस पद के लिए समान अवसर मिलना चाहिए।
ठाकुर ने कहा कि संविधान के लागू होने के बाद भारत में छुआछूत और वर्ण व्यवस्था को खत्म कर दिया गया है। ऐसे में सिर्फ ब्राह्मणों को पूजा का अधिकार देना सामाजिक समानता और न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है। मंदिरों में पुजारी बनने का अधिकार हर नागरिक को होना चाहिए, चाहे वो किसी भी जाति या वर्ग से क्यों न हो।