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द कास्ट रश: जाति भेदभाव पर जारी बहस के बीच एक नई डॉक्यूमेंट्री ने खड़े किए सवाल

नई दिल्ली: लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी जहां देश और विदेश दोनों जगहों पर जातिगत असमानता के मुद्दे को लगातार उठाते रहे हैं, वहीं अमेरिका स्थित एक संगठन — जिसकी स्थापना आरएसएस के एक पूर्व सदस्य ने की थी — एक नई डॉक्यूमेंट्री के ज़रिए भारत में जाति भेदभाव के दावों को “बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया” बता रहा है।

'द कास्ट रश' नामक यह डॉक्यूमेंट्री शुक्रवार को दिल्ली में रिलीज़ होने वाली है। इसका निर्माण इंडिक डायलॉग नामक संगठन द्वारा किया गया है, और इसे राष्ट्रीय राजधानी में सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट (CSD) द्वारा प्रमोट किया जा रहा है। CSD एक ऐसा संगठन है जो दलित और आदिवासी शिक्षाविदों द्वारा संचालित है और इसका नेतृत्व भाजपा नेता राजकुमार फालवरिया कर रहे हैं।

यह डॉक्यूमेंट्री भारत में जातिगत भेदभाव पर चल रही बहस को चुनौती देती है और विभिन्न मंदिरों के पुजारियों के अनुभवों के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश करती है कि जाति को लेकर फैलाया गया नैरेटिव कितना सही है। फिल्म निर्माताओं का दावा है कि विदेशों में इस विषय को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है।

पिछले कुछ वर्षों में आरएसएस ने ‘सामाजिक समरसता’ को लेकर एक व्यापक अभियान चलाया है, जिसमें दलितों को मंदिरों और सार्वजनिक संसाधनों तक पहुंच दिलाने की पहल की गई है। यह अभियान हिंदू एकता को सार्वजनिक विमर्श में स्थापित करने का प्रयास भी है।

इंडिक डायलॉग, जिसकी स्थापना विजय सिम्हा ने की थी और जिसे अमेरिका में बसे भारतीयों द्वारा फंडिंग मिलती है, हिंदुत्व विचारधारा से जुड़े कार्यक्रमों और डॉक्यूमेंट्रीज़ का आयोजन करता है। सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के विरोध के दौरान इस संगठन ने पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू प्रवासियों की समस्याओं पर एक डॉक्यूमेंट्री जारी की थी। इसके कार्यक्रमों में आरएसएस नेता राम माधव और वकील जे. साई दीपक जैसे नाम शामिल रहे हैं।

CSD की स्थापना 2014 में फालवरिया ने की थी, जो भाजपा के प्रवक्ता भी हैं और 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में मदनपुर सीट से उम्मीदवार रह चुके हैं। उनका दावा है कि संगठन के 90% सदस्य दिल्ली विश्वविद्यालय के दलित और आदिवासी प्रोफेसर हैं। उनका कहना है कि संस्था का उद्देश्य वंचित वर्गों को "राष्ट्रवादी तरीके से" मुख्यधारा में लाना है।

डॉक्यूमेंट्री के निर्देशक निखिल सिंह हैं, जो आईआईटी के पूर्व छात्र हैं और अमेरिका से फिल्म निर्माण की पढ़ाई कर चुके हैं। वह वर्तमान में मुंबई में एक विज्ञापन निर्माण कंपनी चला रहे हैं। सिंह का कहना है कि 2021 में न्यू जर्सी स्थित स्वामीनारायण मंदिर में मजदूरों के शोषण को लेकर उठे विवाद और अमेरिका में मीडिया द्वारा जाति भेदभाव को लेकर बनाई जा रही छवि ने उन्हें यह डॉक्यूमेंट्री बनाने को प्रेरित किया।

सिंह ने बताया, “अमेरिकी मीडिया जिस तरह भारत में जाति भेदभाव को दिखा रही थी, उसने मुझे झकझोर दिया। दावा किया गया कि दलित मंदिर बनाते हैं लेकिन उन्हें प्रवेश नहीं मिलता। लेकिन हमारे अनुभव इससे अलग थे। सभी पुजारी ब्राह्मण नहीं होते, और कई मंदिर आज पहले से ज्यादा समावेशी हो चुके हैं।”

उन्होंने बताया कि डॉक्यूमेंट्री के लिए ओडिशा, हैदराबाद, कोयंबटूर और राजस्थान समेत देशभर के मंदिरों में जाकर पुजारियों से बातचीत की गई।

फालवरिया ने कहा, “भारत में जाति व्यवस्था जैसी कोई चीज़ नहीं है। यह एक कृत्रिम नैरेटिव है जिसे समाज को तोड़ने के लिए गढ़ा गया है। भारत में पश्चिमी देशों की तरह नस्लवाद नहीं है। अब इस नैरेटिव को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने का प्रयास हो रहा है, जिसे हम बेनकाब करना चाहते हैं।”

उधर अमेरिका में हाल के वर्षों में जातिगत भेदभाव का मुद्दा विश्वविद्यालयों और कॉर्पोरेट जगत में उठा है। फरवरी 2023 में सिएटल पहला ऐसा अमेरिकी शहर बना जिसने जाति भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने का क़ानून पास किया। अक्टूबर में कैलिफोर्निया राज्य ने भी ऐसा ही बिल पास किया, लेकिन गवर्नर ने बाद में इसे वीटो कर दिया। इससे पहले 2020 में, कैलिफोर्निया स्थित सिस्को कंपनी के दो इंजीनियरों पर एक दलित सहकर्मी के साथ भेदभाव का आरोप लगा था।

न्यू जर्सी का स्वामीनारायण मंदिर 2021 में एक विवाद में घिर गया था, जब उस पर मजदूरों से जबरन काम करवाने, उन्हें कम वेतन देने और खराब परिस्थितियों में काम कराने के आरोप लगे। इसमें खासतौर पर दलित श्रमिकों को निशाना बनाए जाने की बात कही गई थी।

पिछले साल सितंबर में अमेरिका दौरे के दौरान राहुल गांधी ने जातिगत असमानता का ज़िक्र करते हुए कहा था, “भारत की 90% आबादी — ओबीसी, दलित और आदिवासी — को खेल में शामिल ही नहीं किया गया… भारत की शीर्ष 200 कंपनियों में इन वर्गों की कोई हिस्सेदारी नहीं है। न्यायपालिका में भी इनकी भागीदारी लगभग शून्य है। मीडिया में भी निचली जातियों की भागीदारी नहीं के बराबर है।”

द कास्ट रश डॉक्यूमेंट्री की रिलीज़ ऐसे समय में हो रही है जब देश और विदेश दोनों ही स्तरों पर जाति पर विमर्श तेज़ है। यह फिल्म जाति को लेकर प्रचलित धारणाओं को चुनौती देने का प्रयास करती है, जबकि इसके विरोध में सामाजिक न्याय के पक्षधर इसे दबाने की कोशिश मानते हैं। यह बहस फिलहाल थमती नहीं दिख रही।

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