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जम्मू-कश्मीर में नए सिरे से बढ़ते टकराव के क्या मायने हैं?

पहलगाम में हमले की टाइमिंग देखिए. ये हमला उस किया गया जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति भारत में थे,और प्रधानमंत्री मोदी खुद सउदी अरब में थे,यानि हमलावर पूरे देश व पूरी दुनिया को ये मैसेज देना चाह रहे थे कि कश्मीर मसले का समाधान होना अभी बाकी है, जिसे मोदी सरकार हल कर देने का दावा कर रही थी.

एक और इत्तेफाक ये भी देखिए कि पुलवामा की तरह ही ये हमला भी ऐसे समय में हुआ है, जब मोदी सरकार चौतरफ़ा घिरी हुई है, अर्थव्यवस्था भारी संकट में है, सुप्रीम कोर्ट सरकार पर हमलावर है और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भी, मोदी सरकार पर बेहद अपमानजनक हमले कर रहे हैं, टैरिफ वार छेड़े हुए हैं,और जल्दी से जल्दी कृषि क्षेत्र को खोलने का और हथियारों को और खरीदने का दबाव बना रहे हैं.

पर जहां तक जम्मू-कश्मीर का सवाल है, असल में देश में एक बड़ा हिस्सा ऐसा ही हो गया है, या ऐसा ही एक जनमत तैयार कर दिया गया है, जो किसी भी मसले को व्यापक संदर्भ के नजरिए से देखना ही नही चाहता. हमेशा सस्ते व भ्रामक समाधान तलाशने में लगा रहता है, और जैसे संतुष्ट हो जाने के लिए हरदम आतुर सा रहता है.

सत्ता उसी तरह का समाधान थमाती भी रहती है, और ऐसे सभी लोग बहुत जल्दी ही संतुष्ट भी हो लेते हैं, और जो इन समाधानों से सहमत नही होते, उनकी लानत-मलामत तेज़ कर दी जाती है.

कभी हमें बता दिया गया की नोटबंदी चरमपंथियों की आर्थिक रूप से कमर तोड़ने वाली साबित होगी,और इस तरह से नोटबंदी को चरमपंथ के खात्मे से जोड़ दिया गया, एक बड़े हिस्से ने इस सस्ते व झूठे सामाधान को न केवल मान लिया, बल्कि इस रणनीति के प्रचार का हिस्सा भी बना रहा, और अपनी सरकार को आश्वस्त भी करता रहा कि हां हम संतुष्ट हैं, सो सरकार को वास्तविक पहल लेने की जरूरत ही नही पड़ी, व सरकार को सस्ती लोकप्रियता भी हासिल होती रही.

किसी समय सेना को और ताक़त देकर समाधान की कल्पना की गई,और फिर अफस्पा को जम्मू-कश्मीर पर भी थोप दिया गया,सेना को अबाध अधिकार देने के चलते चरमपंथ को और विस्तार मिला या समाधान, इस पर भी कभी ठहर कर सोचना ज़रूरी नही समझा गया.

यह भी नही सोचा गया की कश्मीरी आम जनता का सेना से भी टकराव क्यों बढ़ता गया है.और तो और अफस्पा की समीक्षा करने के बजाय एक और काला कानून, पब्लिक सेफ्टी कानून भी जम्मू-कश्मीर की अवाम पर लाद दिया गया.

इसी तरह यह भी बहुप्रचारित किया जाता रहा कि अनुच्छेद 370 चलते ही जम्मू-कश्मीर जल रहा है, इसे हटाकर ही घाटी को शांत क्षेत्र में बदला जा सकता है.

यानि यह खुलेआम कहा जाता रहा कि अपने वास्तविक अर्थ में हो या न हो पर स्वशासन की भावना का होना ही अशांति के लिए जिम्मेदार है, यानि दिल्ली को ज्यादा ताकत देकर ही चरमपंथ से ठीक से निपटा जा सकता है.

और इस रणनीति के ज़रिए लोकतंत्र को और सीमित करने की मांग बार-बार उठाई जाती रही व लंबे समय से संघीय ढांचे पर हमला किया जाता रहा, और इसके पक्ष में जनमत तैयार किया जाता रहा, और फिर अंततः अनुच्छेद 370, जिसको पहले ही बहुत कमजोर किया जा चुका था, को फाइनली ख़त्म कर दिया गया.

प्रचार और,जोर-जोर से किया जाने लगा, और 370 के खात्मे को चरमपंथ का अंत भी मान लिया गया, और फिर पूरे के पूरे आईटी सेल को इस प्रचार अभियान से जोड़ दिया गया, और फिर गोदी मीडिया सहित सारे तंत्र को संघ-भाजपा ने इस एक नैरेटिव को स्थापित करने में लगा दिया कि चरमपंथ नामक समस्या ख़त्म हो गई है, उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश व बिहार में तो राष्ट्रवाद उफान मारने लगा.

एक बड़े हिस्से ने सचमुच फिर से मान लिया कि मोदी ज़ी ने 370 को ख़त्म करके चरमपंथ का भी सफाया कर दिया है.

हालांकि वास्तव में अनुच्छेद 370 के खात्मे से समस्या का समाधान होना नही था, सो नही हुआ, क्योंकि 370, जितना भी बचा था वह एक भावनात्मक व सांविधानिक पुल था जो दिल्ली व देश से जम्मू-कश्मीर को जोड़ता था.

और इस पुल को तोड़कर,कश्मीरियों के भरोसे को और कमजोर करके, भला इस तरह के मसले का समाधान कहां संभव था.

पर एक तथाकथित राष्ट्रवादी जमात था जिसने फिर एक बार इस लोकप्रिय जुमले को भी मान लिया. पर इस नए हमले हमले ने इस तथाकथित समाधान की असलियत को भी सामने ला दिया है.

इतिहास के आईने में भी अगर देखे तो दिल्ली ने कभी भी, जम्मू-कश्मीर के सवाल पर कोई लोकतांत्रिक समाधान का रास्ता नही खोजा, दिल्ली को हरदम कश्मीर तो चाहिए था पर जम्मू-कश्मीर की जनता की आकांक्षाओं की हमेशा उपेक्षा की गई.

90 के दशक में भी जब चरमपंथ अपने उफ़ान पर था,तो वह भी अचानक नही हुआ, केवल उसको 1987 के चुनावों में हुई चरम धांधली से जोड़कर नही देखा जाना चाहिए.

चरमपंथ के इस उभार को ठीक-ठीक समझने के लिए 50 के दशक में जाना पड़ेगा, जब शेख अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर को वहां की जनता के तरीके से आगे ले जाना चाहते थे, जो दिल्ली को बिल्कुल पसंद नही आया, और जल्दी ही मित्रता दुश्मनी में बदल गई.

नतीजन शेख अब्दुल्ला को लंबे समय के लिए जेल में डाल दिया गया, और फिर शुरू हुआ चुनावों में धांधली के ज़रिए दिल्ली के बर्चस्व को बनाए व बचाए रखने का सिलसिला. फिर क्या था, 1962, 1967 और फिर 1972 में भी लगातार जम्मू-कश्मीर के चुनावों में भारी धांधली के आरोप लगते रहे. पर जम्मू-कश्मीर की जनता,अंत-अंत तक कोशिश करती रही कि कोई लोकतांत्रिक समाधान निकल आए. और दिल्ली ने हर बार ये योजना बनाई कि चीजें हमारे कंट्रोल में रहे.

1987 तक आते-आते कश्मीरियों के सब्र का बांध टूट गया, 1987 के चुनावों में दिल्ली द्वारा प्रायोजित चरम धांधली ने उनके लिए किसी भी तरह के लोकतांत्रिक समाधान के सारे रास्ते बंद कर दिए.

फिर शुरू होता 90 के दशक में चरमपंथ का उफ़ान,जब कि 87 के चुनाव में तो वो चरमपंथी भी चुनाव लड़ रहे थे, जिन्हें बाद में चरमपंथ की तरफ जाना पड़ा, पर उनका जाना केवल 87 के चुनाव का परिणाम नही था, 50 के दशक से जो चल रहा था,उसे भी ठीक से समझना होगा.

आज एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि दिल्ली ने हमेशा जम्मू-कश्मीर को अपने हिसाब से चलाना चाहा, और उसके लिए बार-बार वो किसी भी हद तक गये,पर जम्मू-कश्मीर की अवाम हमेशा स्वशासन व स्वायत्तता की मांग पर अड़ी रही, पहलगाम ने स्पष्ट कर दिया है कि एक बार फिर जम्मू-कश्मीर की जनता ने दिल्ली के समाधान को नकार दिया है, और अब केंद्र को फिर से सोचना है कि उसे हर हालत में जम्मू-कश्मीर चाहिए या वहां के अवाम की आकांक्षाओं के साथ रिश्तों को नया आयाम देने की तरफ बढ़ना है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति The Mooknayak उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार The Mooknayak के नहीं हैं, तथा The Mooknayak उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
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