गोरखपुर – लगभग 900 वर्षों से हर साल आयोजित होने वाला ऐतिहासिक बाले मियां मेला इस वर्ष नहीं लगेगा। सैयद सालार मसूद गाज़ी की स्मृति में आयोजित यह महीनों चलने वाला मेला 18 मई से शुरू होना था, लेकिन प्रशासन से आवश्यक सुरक्षा अनुमति न मिलने के कारण इसे रद्द कर दिया गया है। यह जानकारी दरगाह के मुतवल्ली मोहम्मद इस्लाम हाशमी ने दी।
हालांकि प्रशासन ने 19 मई को बाले मियां के उर्स के अवसर पर स्थानीय अवकाश घोषित किया है।
इससे पहले, बहराइच जिला प्रशासन ने भी सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह पर आयोजित वार्षिक जेठ मेला की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। स्थानीय खुफिया इकाई (LIU) की रिपोर्ट में कानून-व्यवस्था की संभावित आशंकाओं का हवाला दिया गया था। इसके पहले सम्भल में सालार मसूद के नाम पर लगने वाले नेजा मेले की अनुमति भी राज्य सरकार ने नहीं दी थी।
इन सभी निर्णयों के बीच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान सामने आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि "आक्रांताओं का महिमामंडन राष्ट्रद्रोह के समान है, जिसे स्वतंत्र भारत बर्दाश्त नहीं करेगा।"
हर साल गोरखपुर के बहरामपुर इलाके में राप्ती नदी के किनारे फैले मैदान में यह मेला आयोजित होता था। लेकिन इस बार ना तो कोई तैयारियां दिखीं, ना ही मेलास्थल पर कोई हलचल। उल्टे, हर्बर्ट बांध के चौड़ीकरण कार्य के चलते मैदान पर निर्माण सामग्री जमा की गई है, जिससे आयोजन और भी असंभव हो गया।
मुतवल्ली हाशमी ने बताया, “हर साल प्रशासन खुद तैयारियां शुरू करता था। लेकिन इस बार जब कोई जानकारी नहीं मिली तो हमने मंडलायुक्त को 18 मार्च को पत्र भेजकर सुरक्षा व्यवस्था की मांग की। पर हमें कोई जवाब नहीं मिला।”
हाशमी के मुताबिक मेला 16 जून तक चलने वाला था। लेकिन शनिवार शाम तक वहां न तो कोई भीड़ दिखी और न ही कोई आयोजन, जिससे संकेत मिलता है कि केवल कुछ श्रद्धालु ही दरगाह पर दुआ करने पहुंचेंगे—वो भी बिना उस पारंपरिक मेले के माहौल के।
इस बीच, एडीएम (सिटी) अंजनी कुमार ने कहा, “बाले मियां मेले के लिए हमें कोई पत्र नहीं मिला है। उन्होंने सिर्फ इतना बताया कि वे दरगाह परिसर में कुछ धार्मिक अनुष्ठान, प्रसाद वितरण और चादरपोशी करेंगे। इसके अलावा, परिसर के भीतर 15 दुकानें लगाने की बात कही गई है, जिसके लिए कोई अनुमति जरूरी नहीं होती।”
सैयद सालार मसूद, जिन्हें ग़ाज़ी मियां के नाम से भी जाना जाता है, एक अर्ध-ऐतिहासिक व्यक्तित्व माने जाते हैं। उन्हें महमूद गजनवी का भांजा और सेनापति कहा जाता है। उनके जीवन से जुड़ी जानकारी मिरात-ए-मासूदी नामक फ़ारसी हज़ारगाथा में मिलती है, जिसे जहाँगीर के शासनकाल में अब्दुर रहमान चिश्ती ने लिखा था।
मिरात-ए-मासूदी के अनुसार, सालार मसूद की मृत्यु 1034 ईस्वी में श्रावस्ती के राजा सुहेलदेव से युद्ध के दौरान हुई थी। माना जाता है कि उन्हें बहराइच में दफनाया गया, जहां आज उनकी दरगाह शरीफ स्थित है। हालांकि 11वीं सदी के समकालीन ग़ज़नवी इतिहासकारों ने उनका कोई उल्लेख नहीं किया है, लेकिन 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत के दौरान उनकी दरगाह एक प्रमुख तीर्थ स्थल बन गई थी।