आज से लगभग एक सदी पहले का वह ऐतिहासिक दृश्य कल्पना कीजिए, जब एक विवाह समारोह में न कोई मंत्रोच्चार हो रहा था, न कोई पवित्र अग्नि के फेरे लिए जा रहे थे और न ही किसी पंडित या पुरोहित की मौजूदगी थी। इसके बजाय, वर और वधू ने केवल एक-दूसरे के गले में माला डाली और तमिल भाषा में जीवनसाथी बनने की शपथ ली।
यह था एक नई तार्किक विवाह-पद्धति का पहला स्वरूप, जिसकी नींव सामाजिक क्रांतिकारी ई.वी.रामासामी 'पेरियार' ने 1929 में रखी थी। यह विवाह पद्धति न सिर्फ धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ एक बगावत थी, बल्कि इसने जाति प्रथा, फिजूलखर्च और धार्मिक कुरीतियों पर करारी चोट की थी। इसकी अध्यक्षता कर रहे डब्ल्यू. पी.ए. सुन्दर पांडियन और पेरियार ने इसे 'आत्मसम्मान विवाह' (Self-Respect Marriage) का नाम दिया। यह नई विवाह पद्धति पेरियार के 'आत्मसम्मान आंदोलन' के तहत किए गए अनेक क्रांतिकारी प्रयासों का ही एक हिस्सा थी।
“आत्मसम्मान आंदोलन” के मुख्य कार्यक्रम पेरियार के अपने जीवनानुभवों की देन थे। अंतरजातीय विवाह का मुद्दा स्त्री-मुक्ति से जुड़ा था। उसकी प्रेरणा उन्हें अपनी युवावस्था की एक घटना से मिली थी। वेलाला जाति के एक युवक ने नौकरी की इच्छा के साथ पेरियार से संपर्क किया। पेरियार ने उसे अपनी दुकान पर मुनीम का काम सौंप दिया। कुछ अवधि के बाद उस लड़के की मां ने पेरियार से संपर्क कर, उसका विवाह कराने की प्रार्थना की।
पेरियार ने उसके लिए जिस लड़की को चुना, वह नायडू परिवार की थी। लोग उसपर अवैध संतान होने का लांछन लगाते थे। शादी पेरियार के दोस्तों, स्थानीय नेताओं तथा सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति में बड़ी धूमधाम से हुई। वह पहली शादी थी, जिसे पेरियार ने “आत्मसम्मान आंदोलन” के तहत कराया था। उसकी खूब चर्चा हुई। इससे पेरियार के विद्रोही स्वभाव की खबर दूर तक फैल गई। “स्त्री-मुक्ति” के क्षेत्र में उनका दूसरा कार्यक्रम विधवा विवाह को प्रोत्साहन देना था। बनारस सहित अन्य धर्मस्थानों पर उन्होंने ऐसी अनेक विधवाओं को देखा था, जिन्हें पति की मृत्यु के बाद घर छोड़ना पड़ा था।
क्या है आत्मसम्मान विवाह?
आत्मसम्मान विवाह पारंपरिक हिंदू विवाहों के ठीक विपरीत था। इस विवाह-समारोह के दौरान सभी धार्मिक रीति-रिवाज तथा ब्राह्मणों द्वारा मंत्रोच्चार पूरी तरह प्रतिबन्धित थे। इसमें नवविवाहित जोड़े के लिए एक-दूसरे को माला पहनाना व मातृभाषा (तमिल) में विवाह की शपथ दोहराना पर्याप्त था। इस तरह के विवाह में फिजूलखर्ची की कोई जगह नहीं थी क्योंकि इसे बहुत सादगी से निपटाना था।
इस विवाह पद्धति में विवाह के लिए सिर्फ लड़का-लड़की की रजामंदी की जरूरत थी, अभिवावकों की अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं थी। इसमें विवाह सदा के लिए पवित्र बंधन न होकर दो समकक्ष व्यक्तियों के बीच समझौता था, जिसमें दोनों में से कोई पक्ष जब चाहे समाप्त कर सकता था। विवाह स्वर्ग में या ईश्वर द्वारा नहीं, वरन धरती पर दो व्यक्तियों द्वारा परस्पर सहमति और समझौते से निर्धारित किए जाते थे। आत्माभिमान विवाह के मूल में यह बात थी कि स्त्री-पुरूष दोनों पूरी तरह समान हैं।”
पेरियार ने अपनी इस सुधरी हुई विवाह-प्रथा में इन तमाम शर्तों को शामिल किया था। इस नई वैवाहिक-व्यवस्था में उन्होंने शादी को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष बनाया। किसी भी धर्म का कोई भी व्यक्ति इस तरह की शादी करा सकता था। केवल वर एवं वधू को एक-दूसरे को माला पहनानी थी और एक-दूसरे का पति-पत्नी होने की घोषणा करनी थी।
विधवा विवाह के संदर्भ में पेरियार ने बनारस सहित अन्य धर्मस्थानों पर ऐसी अनेक विधवाओं को देखा था, जिन्हें पति की मृत्यु के बाद घर छोड़ना पड़ा था। इस अनुभव ने उन्हें विधवा विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए प्रेरित किया।

क्या है पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन/ Self Respect Movement
आत्मसम्मान आंदोलन, जिसे तमिल में "स्वयंमरियाथई इयक्कम" कहा जाता था, का नारा था – "न ईश्वर, न धर्म, न गांधी, न कांग्रेस और न ही ब्राह्मण।" इस आंदोलन का नामकरण तमिल शब्द "स्वयंमरियाथई" के आधार पर किया गया था, जिसका अर्थ है आत्मसम्मान। लेखक ओमप्रकाश कश्यप अपने लेख ' पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन : द्रविड़ अस्मिता का उद्घोष' में बताते हैं आत्मसम्मान आंदोलन की शुरुआत दिसंबर 1925 में हुई थी। मगर औपचारिक रूप से इसका आरंभ 1926 के शुरुआती महीनों में हुआ। आंदोलन का उद्देश्य, धर्म, जाति और पुरोहितवाद के विरुद्ध समाज में लोक-चेतना लाना था।
10-11 मई, 1930 को पेरियार ने इरोड में आत्मसम्मान आन्दोलन के दूसरे प्रान्तीय सम्मेलन का आयोजन मिस्टर एम.आर. जयकर की अध्यक्षता में किया। इस दौरान युवा सम्मेलन, महिला सम्मेलन, शराबबन्दी सम्मेलन, तमिल संगीत सम्मेलन आदि का आयोजन भी किया गया। पेरियार ने देवदासी प्रथा के खात्मे से सम्बन्धित विधेयक का सक्रिय समर्थन किया, जिसे मद्रास विधान परिषद् में डॉ. मुथुलक्ष्मी (रेड्डी) द्वारा पेश किया गया था।
1931 में तीसरा प्रान्तीय आत्मसम्मान सम्मेलन विरुतनगर में हुआ, जिसकी अध्यक्षता आर. के. षणमुगम ने की। पेरियार ने अपने विचारों का प्रसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी किया। 20 जून, 1932 को इंग्लैंड में उन्होंने श्रमिकों की एक विशाल सभा को संबोधित किया, जिसमें 50,000 से अधिक लोग शामिल थे। उन्होंने तार्किकता और समाजवाद पर अपने सिद्धान्तों को वहाँ स्पष्ट किया।
आत्मसम्मान आंदोलन” के मुख्य मांगों में शामिल थे –
समाज में आदमी-आदमी के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
आर्थिक विषमताओं को समाप्त किया जाना चाहिए।
भूमि और दूसरे संसाधनों का बंटवारा सामाजिक न्याय की भावना को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
स्त्री-पुरुष के बीच सभी तरह के भेदभाव को खत्म होना चाहिए।
जाति, धर्म, राष्ट्र, वर्ण और ईश्वर को लेकर जो भी भ्रम समाज में व्याप्त हैं, उन्हें पूरी तरह से समाप्त हो जाना चाहिए।
मनुष्य को उसके श्रम का पूरा लाभ मिलना चाहिए।
मनुष्य को किसी भी सूरत में किसी का भी दास नहीं होना चाहिए।
मनुष्य को अपने ज्ञान, तर्क, भावनाओं और विश्वासों के साथ जीवन जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
पत्नी का दाह-संस्कार करते ही अन्तर्धार्मिक आत्मसम्मान विवाह-समारोह के लिए तत्काल रवाना
11 मई, 1933 को पेरियार की पत्नी नगम्मल का निधन हो गया। अगले दिन अन्तिम संस्कार के तत्काल बाद वह तिरुचिरापल्ली के लिए निकल गए, जहाँ उन्होंने एक अन्तर्धार्मिक (ईसाई) आत्मसम्मान विवाह-समारोह का आयोजन किया। इस दौरान उन्होंने धारा-144 का उल्लंघन किया और गिरफ्तारी दी।
1933 में ब्रिटिश सरकार ने तमिल साप्ताहिक 'कुदी आरसु' को प्रतिबन्धित कर दिया, जिसके जवाब में पेरियार ने एक अन्य पत्रिका 'पुरातकी' (क्रान्ति) का प्रकाशन शुरू किया। 1935 में पेरियार ने जस्टिस पार्टी को और अधिक समर्थन देना शुरू कर दिया। पार्टी ने 01 जून, 1935 को तमिल साप्ताहिक पत्र 'विदुथलई' का प्रकाशन शुरू किया, जिसका भार पेरियार पर आया। उन्होंने 01 जनवरी, 1937 से विदुथलई को तमिल दैनिक के रूप में प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया।
पेरियार द्वारा शुरू किया गया आत्मसम्मान विवाह आज भी तमिलनाडु में प्रचलित है और यह समानता, तर्कसंगतता और सामाजिक न्याय के उनके दृष्टिकोण की एक स्थायी विरासत है।