मुस्लिम पुरुष की दूसरी शादी को लेकर पहली पत्नी का पक्ष जानना केरल हाईकोर्ट ने माना ज़रूरी, कहा- ऐसे मामलों में धर्म गौण और संवैधानिक अधिकार सर्वोच्च

03:42 PM Nov 05, 2025 | Geetha Sunil Pillai

कोच्चि: केरल उच्च न्यायालय ने केरल विवाह पंजीकरण (सामान्य) नियम, 2008 के तहत मुस्लिम पुरुष की दूसरी शादी के पंजीकरण के संबंध में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्हिकृष्णन ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि जब तक पहली शादी कानूनी रूप से कायम है, तब तक दूसरी शादी का पंजीकरण पहली पत्नी को सूचित किए बिना और उसकी सुनवाई किए बिना नहीं किया जा सकता है।

यह फैसला एक मुस्लिम व्यक्ति और उसकी दूसरी पत्नी द्वारा दायर एक रिट याचिका (WP(C) NO. 26010 OF 2025) पर आया, जिसमें स्थानीय निकाय द्वारा विवाह पंजीकरण से इनकार करने को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत पुरुष को चार पत्नियाँ रखने का अधिकार है।

न्यायालय ने मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत बहुविवाह की अनुमति को स्वीकार किया, लेकिन जोर दिया कि जब राज्य की मशीनरी के माध्यम से पंजीकरण की बात आती है, तो कानून का राज सर्वोपरि होगा। जस्टिस कुन्हिकृष्णन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि "ऐसी स्थितियों में, धर्म गौण हो जाता है और संवैधानिक अधिकार सर्वोच्च हैं।" उन्होंने इंगित किया कि पवित्र कुरान भी न्याय सुनिश्चित करने पर जोर देता है, और यह धारणा कि कोई पुरुष पहली पत्नी की जानकारी के बिना दूसरी शादी कर सकता है, अस्वीकार्य है। अदालत ने यह भी कहा कि वह पहली पत्नी की भावनाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती जब उसका पति राज्य के कानून के तहत अपनी दूसरी शादी को पंजीकृत करने का प्रयास कर रहा हो।

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मुस्लिम पर्सनल लॉ की बारीकियों पर विश्लेषण

जस्टिस कुन्हीकृष्णन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ की बारीकियों पर गहराई से विचार किया और स्पष्ट किया कि भले ही बहुपत्नी विवाह की अनुमति हो, लेकिन यह कोई असीमित अधिकार नहीं है। कुरान की आयतों का हवाला देते हुए अदालत ने एकपत्नीत्व को आदर्श बताया और बहुपत्नी प्रथा को केवल अपवाद माना। जज ने कहा, "यह एक भ्रांति है कि मुस्लिम पुरुष अपनी इच्छा से किसी भी स्थिति में एक से अधिक महिलाओं से शादी कर सकता है" और कुरान के अध्याय 4, आयत 3 का उल्लेख किया: "और यदि तुम अनाथ लड़कियों के साथ न्याय न कर सको तो जो महिलाएं तुम्हें पसंद हों उनसे शादी कर लो, दो, तीन या चार। लेकिन यदि तुम्हें डर हो कि न्याय न कर सकोगे तो केवल एक ही या जो तुम्हारे दाहिने हाथ के अधीन हों। यही अधिक उचित है ताकि तुम अन्याय की ओर न झुक सको।"

उन्होंने आगे आयत 129 का हवाला दिया: "और तुम कभी भी पत्नियों के बीच पूर्ण समानता (भावनाओं में) स्थापित नहीं कर सकोगे, भले ही तुम प्रयास करो। अतः एक की ओर पूरी तरह झुककर दूसरी को लटकाकर न छोड़ो। और यदि तुम सुधार करो और अल्लाह से डरो तो निश्चय ही अल्लाह अत्यंत क्षमाशील और दयालु है।" फैसले में कहा गया कि "इन आयतों का भाव और उद्देश्य एकपत्नीत्व है, और बहुपत्नी प्रथा केवल एक अपवाद है। पवित्र कुरान न्याय पर बहुत जोर देता है।" अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोग एकपत्नीत्व का पालन करते हैं, और धार्मिक नेताओं को अनियंत्रित बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैलानी चाहिए।

आपत्ति होने पर पंजीकरण नहीं, कोर्ट भेजा जाएगा

अदालत ने यह महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक निर्देश दिया है कि विवाह रजिस्ट्रार को दूसरी शादी के आवेदन पर पहली पत्नी को नोटिस जारी करना होगा। यदि पहली पत्नी पंजीकरण पर आपत्ति जताती है और यह दावा करती है कि दूसरी शादी अवैध है, तो रजिस्ट्रार को पंजीकरण नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, पक्षकारों को "सक्षम न्यायालय के पास भेजा जाना चाहिए" ताकि वे अपने धार्मिक रीति-रिवाज के अनुसार दूसरी शादी की वैधता स्थापित कर सकें। हालाँकि, चूंकि इस मामले में पहली पत्नी याचिका में पक्षकार नहीं थीं, इसलिए याचिका खारिज कर दी गई। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि "मुस्लिम महिलाओं को भी कम से कम दूसरी शादी के पंजीकरण के चरण में, सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए जब उनके पति पुनर्विवाह करते हैं।"