भोपाल/पन्ना। भारत को आज़ाद हुए 76 साल हो चुके हैं, लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास के दावे अभी भी अधूरे ही साबित हो रहे हैं। मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के करीब एक दर्जन गाँव, जो केन-बेतवा लिंक परियोजना से प्रभावित हैं, न केवल बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, बल्कि अब विस्थापन के संकट से भी जूझ रहे हैं। यह संकट सिर्फ जमीन छोड़ने का नहीं, बल्कि उनके जीवन, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के मिट जाने का है। द मूकनायक ने विस्थापित गाँव में पहुचकर ग्रामीणों की समस्याएं जानी.
पन्ना जिले के गहदरा, रकसेहा, खमरी और मझौली जैसे प्रभावित गाँवों की हालत बेहद खराब है। इन गाँवों में पक्की सड़कें नहीं हैं। गाँव के अंदर पहुँचने के लिए कच्चे रास्तों पर घंटों का सफर तय करना पड़ता है। यहाँ बिजली का नामोनिशान नहीं है। स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था इतनी खराब है कि महिलाओं और बच्चों को दूर-दूर तक जाकर पानी लाना पड़ता है।
गहदरा गाँव की 70 वर्षीय शोभारानी, जिनकी झुर्रियों में संघर्ष की कहानियाँ दर्ज हैं, विस्थापन की त्रासदी को लेकर बेहद आहत हैं। उनकी आवाज़ में दर्द और नाराज़गी दोनों साफ झलकते हैं। वह द मूकनायक को बताती हैं, "यह जमीन हमारे पूर्वजों की धरोहर है। हम इसे कैसे छोड़ सकते हैं? पानी लाने के लिए हमारे बच्चे कई किलोमीटर दूर जाते हैं। इतनी छोटी उम्र में ही वे अपने वजन से दोगुना पानी उठाकर लाते हैं। सरकार को इन बच्चों की तकलीफें क्यों नहीं दिखाई देतीं? अगर कोई बीमार पड़ जाए, तो अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस तक यहाँ नहीं पहुँचती। अक्सर लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं।"
शोभारानी की यह पीड़ा सिर्फ व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि पूरे समुदाय का दर्द है। उनका कहना है कि विस्थापन के नाम पर सरकार ने उनसे उनकी जमीन, उनकी पहचान और उनका जीवन छीन रही है। उनका सरकार से सवाल है, "क्या हमारे जीवन की कोई कीमत नहीं?"
विस्थापन का दर्द
केन-बेतवा लिंक परियोजना के तहत पन्ना जिले के आठ गाँवों—कूड़ान, गहदरा, रकसेहा, कोनी, मझौली, खमरी, बिल्हटा, और कटारी—के आदिवासी निवासियों को विस्थापित किया जाना तय है। यह परियोजना केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा है। इसका उद्देश्य सूखा प्रभावित क्षेत्रों में सिंचाई और जल उपलब्धता बढ़ाना है। लेकिन इस परियोजना का सबसे बड़ा नुकसान इन आदिवासी परिवारों को उठाना पड़ रहा है।
ग्रामीणों का कहना है कि विस्थापन की प्रक्रिया में न तो उनकी राय ली गई, न ही उन्हें पूरी जानकारी दी गई। उन्हें यह तक नहीं बताया गया कि कब उनकी जमीनों का सर्वे हुआ और कब मुआवजा तय किया गया।
खमरी गाँव के तीरथ सिंह द मूकनायक प्रतिनिधि से कहते हैं, “मुआवजा इतना कम दिया जा रहा है कि उससे कोई दूसरी जमीन खरीद पाना नामुमकिन है। हम कहें कि सरकार हमें धोखा दे रही है, तो यह गलत नहीं होगा। यह जमीन हमारे पूर्वजों की निशानी है। इसे छोड़कर जाने का मतलब है अपनी संस्कृति और अस्तित्व को मिटाना। हम यहाँ से नहीं जाएंगे।”
तीरथ सिंह आगे कहते हैं,- “हमारी आजीविका खेती और पशुपालन पर निर्भर है। विस्थापन के बाद हमारे पास कुछ नहीं बचेगा। सरकार को हमारी समस्याओं की परवाह ही नहीं है।”
विस्थापन प्रक्रिया में यह हैं खामियां
1. मुआवजा राशि इतनी कम है कि विस्थापित परिवार इसके जरिए दूसरी जमीन नहीं खरीद सकते।
2. 18 वर्ष से ऊपर के युवाओं को मुआवजा सूची में शामिल नहीं किया गया।
3. पशुधन, जो आदिवासियों की आजीविका का मुख्य स्रोत है, के उसके लिए भी उचित मुआवजा नहीं दिया जा रहा।
4. पुनर्वास की प्रक्रिया पूरी तरह अधूरी है।
आदिवासी संस्कृति और अस्तित्व पर खतरा
यह क्षेत्र कभी गोंडवाना साम्राज्य का हिस्सा था, जहाँ गोंड आदिवासियों का शासन था। पीढ़ियों से ये आदिवासी यहाँ खेती, पशुपालन, और वन उत्पादों से अपनी आजीविका चलाते आ रहे हैं। अब विस्थापन की वजह से उनकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान खतरे में है।
ग्रामीणों की मुख्य मांगे
1. जमीन के बदले जमीन। ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें ऐसी जमीन दी जाए, जहाँ वे खेती कर सकें।
2. मुआवजा बढ़ाया जाए। वर्तमान मुआवजा राशि से नई जमीन खरीदना असंभव है।
3. 18 वर्ष से अधिक उम्र के युवाओं को मुआवजा दिया जाए। यह उनके भविष्य के लिए जरूरी है।
4. पुनर्वास योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
ग्रामीणों ने दी आंदोलन की चेतावनी
ग्रामीणों ने साफ कर दिया है कि जब तक उनकी माँगें पूरी नहीं होंगी, वे अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने प्रशासन को चेतावनी दी है कि अगर उनकी माँगों को अनसुना किया गया, तो वे बड़े पैमाने पर आंदोलन करेंगे।
70 वर्षीय ग्रामीण शोभारानी कहती हैं, “हम अपनी जमीन उचित मुआवजे और जमीन के बदले जमीन मिलने पर ही छोड़ेंगे, अगर सरकार हमारी बात नहीं मानेगी, तो हम आंदोलन करने को तैयार हैं।”
ग्रामीणों का आरोप है कि सरकार आदिवासियों को विस्थापित कर उनकी संस्कृति और अस्तित्व को खत्म करना चाहती है। जनपद सदस्य दयाराम मरावी कहते हैं,“यह एक साजिश है। सरकार हमें हमारे जंगलों और जमीनों से अलग कर हमें खत्म करना चाहती है। लेकिन हम चुप नहीं बैठेंगे। हम अपनी जमीन और अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे।”
जयस ने दी आंदोलन की चेतावनी।
जयस संगठन के जिला अध्यक्ष मुकेश कुमार गौंड ने द मूकनायक से बातचीत में कहा, "केन-बेतवा लिंक परियोजना के नाम पर आदिवासी समुदाय को उनकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल करना अन्याय है। यह न केवल उनके आजीविका के साधनों को खत्म करेगा, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान को भी मिटा देगा। हमने सरकार से कई बार मांग की है कि मुआवजा और पुनर्वास की प्रक्रिया पारदर्शी और न्यायसंगत हो, लेकिन हमारी बातों को अनसुना किया जा रहा है। यदि सरकार हमारी मांगों को जल्द पूरा नहीं करती, तो जयस बड़े स्तर पर आंदोलन करेगा और पूरे प्रदेश में इसका विरोध तेज होगा।"
इस मामले में प्रशासन का पक्ष जानने के लिए द मूकनायक ने पन्ना कलेक्टर सुरेश कुमार के फोन पर पर कॉल किया पर उनसे बात नहीं हो सकी।