आंध्र प्रदेश में आदिवासी बच्चों में कुपोषण का संकट: 60,000 से अधिक बच्चे प्रभावित, 62% महिलाएं एनीमिक

01:00 PM Jul 28, 2025 | Rajan Chaudhary

विशाखापत्तनम: आंध्र प्रदेश के आदिवासी समुदायों में बच्चों और महिलाओं के बीच कुपोषण एक गहरी और लगातार बनी हुई समस्या है। हाल ही में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी पोषण ट्रैकर (Poshan Tracker) के जून 2025 के आंकड़े इस गंभीर स्थिति को उजागर करते हैं।

बच्चों में कुपोषण के आंकड़े

राज्य के आदिवासी इलाकों में 5 साल से कम उम्र के 60,000 से अधिक बच्चे विभिन्न प्रकार के कुपोषण से जूझ रहे हैं:

ये आंकड़े केवल पोषण की समस्या नहीं, बल्कि स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, मातृ शिक्षा में गिरावट और खाद्य असुरक्षा जैसे ढांचागत मुद्दों की ओर भी इशारा करते हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर भी आदिवासी बच्चे पीछे

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (2019-21) की रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के आदिवासी बच्चों में:

  • 44.5% स्टंटेड

  • 20% वेस्टेड

  • 45.2% अंडरवेट

आदिवासी महिलाओं की सेहत भी गंभीर खतरे में

सिर्फ बच्चे ही नहीं, बल्कि आदिवासी महिलाएं भी पोषण की दृष्टि से कमजोर हैं। आंध्र प्रदेश में 62.6% आदिवासी महिलाएं (15-49 वर्ष) एनीमिक पाई गई हैं, जबकि 21% महिलाओं का BMI सामान्य से कम है।

सरकार की योजनाएं और हस्तक्षेप

स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के तहत RMNCAH+N रणनीति लागू की जा रही है। इसके तहत कई पहलें चलाई जा रही हैं:

  • Nutrition Rehabilitation Centres (NRCs): गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के लिए इन-पेशेंट देखभाल

  • MAA Programme: शिशु के लिए प्रारंभिक और विशेष स्तनपान को बढ़ावा देना

  • Anemia Mukt Bharat (AMB): सभी आयु समूहों में एनीमिया में कमी लाने की पहल

  • National Deworming Day (NDD): साल में दो बार बच्चों को कृमिनाशक दवा देना

  • Lactation Management Centres: अस्पतालों में स्तनपान सहायता केंद्र स्थापित करना

  • Village Health, Sanitation and Nutrition Days (VHSNDs): पोषण और स्वास्थ्य सेवाएं गांव स्तर पर उपलब्ध कराना

फिर भी क्यों बनी हुई है समस्या?

इन सभी प्रयासों के बावजूद आदिवासी समुदायों में कुपोषण एक जमीनी और बहुआयामी समस्या बनी हुई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जब तक इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जाता, और आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं, जागरूकता और पोषण सुरक्षा को बढ़ाया नहीं जाता, तब तक यह संकट बना रहेगा।