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75 साल बाद भी दलितों को मंदिर में जाने से रोका जा रहा है? डीएमके सरकार पर उसके अपने सहयोगियों ने ही उठाए बड़े सवाल!

नई दिल्ली: तमिलनाडु में 2026 विधानसभा चुनाव से पहले डीएमके सामाजिक न्याय और समानता को चुनावी मुद्दा बना रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर दलितों से जुड़े मामलों को लेकर प्रशासन की असंवेदनशीलता पर उसके सहयोगी दल नाराज़ हैं।

हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में अधिकारियों को चेतावनी दी है कि अगर वे अरियालुर जिले के पुथुकुडी अय्यनार मंदिर के वार्षिक रथ उत्सव (16 से 31 जुलाई) में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं करते हैं, तो उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

यह आदेश ए. वेंकटेशन द्वारा दायर एक याचिका पर आया, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि 2019 में प्रभुत्वशाली जाति समूहों ने दलितों को मंदिर में प्रवेश से रोक दिया था। न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश ने कहा कि अधिकारियों का कर्तव्य है कि वे अदालत के आदेश का अक्षरशः और आत्मा के साथ पालन करें।

मंदिरों में अब भी दलितों का बहिष्कार

कानूनों के बावजूद कई गांवों में दलितों को मंदिरों में प्रवेश से वंचित किया जा रहा है। जनवरी 2023 में ही दलितों ने कल्लकुरिची जिले के श्री वरदराज पेरुमल मंदिर और तिरुवन्नामलाई जिले के श्री मुथालम्मन मंदिर में पहली बार प्रवेश किया — वह भी पुलिस सुरक्षा और अदालत के आदेश के बाद।

दलित अधिकार कार्यकर्ता ए. काधिर ने बताया, “पिछले तीन वर्षों में 35 मंदिर प्रवेश से जुड़ी याचिकाएं तमिलनाडु की अदालतों में दायर की गईं। प्रशासन कई बार ‘शांति समिति बैठक’ के नाम पर सिर्फ देरी करता है।”

वीसीके ने डीएमके सरकार पर कसा तंज

विदुथलाई चिरुथैगल काच्ची (VCK) के महासचिव और डीएमके के सहयोगी डी. रविकुमार ने सरकार की निष्क्रियता पर नाराज़गी जताई।

उन्होंने कहा, “75 साल की आज़ादी के बाद भी दलितों को मंदिरों में प्रवेश के लिए कोर्ट जाना पड़ता है। क्या अधिकारी केवल झंडे हटाने के लिए ही तेजी से काम करते हैं? छुआछूत एक अपराध है, लेकिन प्रशासन कार्रवाई करने में हिचकता है।”

उन्होंने कहा कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 के तहत दोषियों को पांच साल तक की सजा हो सकती है। उन्होंने कहा, “लेकिन आज तक मैंने किसी को मंदिर प्रवेश रोकने के लिए जेल जाते नहीं देखा।”

वामपंथी दलों ने भी जताई चिंता

डीएमके के अन्य सहयोगी दलों — भाकपा और माकपा — ने भी सरकार के रवैये की आलोचना की। भाकपा राज्य सचिव आर. मुथरासन ने कहा कि जातिवादी सोच रखने वाले अधिकारियों की पहचान कर उन्हें पुनःप्रशिक्षित किया जाना चाहिए। वहीं माकपा राज्य सचिव पी. शन्मुगम ने कहा कि कई मामलों में अधिकारी उन लोगों के खिलाफ मामला तक दर्ज नहीं करते जो दलितों को पूजा स्थलों में जाने से रोकते हैं।

डीएमके का जवाब

इस मुद्दे पर डीएमके प्रवक्ता टी. के. एस. इलंगोवन ने मीडिया के हवाले से कहा कि अरियालुर जिले के अधिकारियों को दलितों की भागीदारी सुनिश्चित करने के निर्देश दे दिए गए हैं।

उन्होंने कहा, “डीएमके सरकार ने हमेशा सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दी है। हमने सभी जातियों के लोगों को मंदिर पुजारी बनने की अनुमति देने के लिए विशेष कानून भी बनाए हैं। लेकिन कुछ घटनाएं अब भी पीछे की सोच रखने वाले जातीय समूहों की वजह से हो जाती हैं।”

अधिकारियों की निष्क्रियता पर पूछे गए सवाल पर इलंगोवन ने कहा, “ऐसे कई मामले हैं जहां प्रशासन ने दलितों को समर्थन देने के लिए हस्तक्षेप किया है। कुछ मामलों में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत हो सकती है, लेकिन समग्र रूप में सरकार जातीय भेदभाव के मुद्दों को गंभीरता से लेती है और उसे नजरअंदाज नहीं करती।”

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