भाजपा हमेशा वही काम करती रही है जो इस देश के संघीय ढांचे और इसकी सामाजिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक - बहुलता को क्षतिग्रस्त करे। 'एक देश एक चुनाव' के द्वारा जो नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की जा रही है उसके पीछे भी इनका मकसद यही है। अगर ऐसा करने में उन्हें कामयाबी मिल गई तो इस देश का संघीय स्वरूप लड़खड़ा जाएगा और लोकतंत्र की थोड़ी-बहुत उम्मीद जिन क्षेत्रीय पार्टियों की वजह से बची हुई है उनका भी पूरी तरह से सफाया हो जाएगा।
भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा जारी इस प्रस्ताव की मंजूरी के बाद पक्ष और विपक्ष दोनों अपने-अपने तर्कों के साथ बहस में कूद पड़े हैं। इसके पक्षकार चुनाव खर्चे पर अंकुश लगाने, विकास कार्य में तेजी लाने, काले धन पर नकेल कसने और प्रशासनिक कार्यकलाप सुनिश्चित होने को मुख्य आधार बतला रहे हैं, लेकिन ये ऐसे ठोस तथ्य नहीं हैं जो 'एक देश एक चुनाव' अभियान को युक्तिसंगत ठहरायें और उसे सर्वसम्मति प्रदान करे।
इंडिया गठबंधन में शामिल लगभग सभी दलों ने एक स्वर से सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध किया है। एनडीए के घटक रहे चंद्रबाबू नायडू ने भी पहले इसका विरोध किया था, लेकिन बाद में उनका रुख बदल गया था। भाजपा के हर विभाजनकारी एजेंडे के साथ रहे नीतीश कुमार ने इस बार भी कुर्सी के लिए वैचारिक आत्मसमर्पण कर दिया है।
हर वह नैरेटिव जो बहुलतापूर्ण भारतीयता को पलीते लगाता हो, यहां की सांस्कृतिक बहुलता की अवधारणा को खंडित करता हो, भाजपा को प्रिय रहा है। नागरिकता कानून की तरह ही 'एक देश एक चुनाव' के माध्यम से वह इसी बहुलता को चुनौती पेश करने के लिए मैदान में कूदी है। इसके पीछे उसका हिडेन एजेंडा एक देश एक भाषा, एक देश एक धर्म, एक देश एक कानून और एक देश एक पार्टी थोपने का है।
यह भारत जैसे विविधतापूर्ण भाषाई, सांस्कृतिक और अलग-अलगअस्मिताओं और वैचारिक धाराओं से भरे-पूरे मुल्क के लिए मृत्यु वारंट लिखने के समान है। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन को अपनी हर झूठी बात बहुप्रचारित शोर के साथ खड़ा करने में महारथ हासिल है ताकि लोग भ्रमित हों, उनकी बातों को ही एकमात्र सत्य मान लें।
लेकिन आज भाजपा के पास केंद्र में न तो 2014 वाली सांसदों की संख्या है, न 2019 जैसा संख्या बल, जिसकी बदौलत वे इसे पास करवा पायें। 'एक देश एक चुनाव' के माध्यम से कोविद समिति ने जो 18 सिफारिशें की हैं उनमें 50 प्रतिशत विधानसभाओं की मंजूरी भी ली जानी है। जब संसद में ही दो तिहाई सदस्यों की मंजूरी संभव नहीं, तो ये इसे किस भरोसे खींच रहे हैं यह समझ से परे है।
कहा जा रहा है कि इस विधेयक के पास हो जाने के बाद लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव तो साथ होंगे, लेकिन पंचायती राज और नगर निकायों का चुनाव इसके एक माह के अंदर कराये जाएंगे। अगर सभी चुनाव एक साथ संभव ही नहीं होंगे तो फिर यह एक देश एक चुनाव कैसे हुआ? भारत के संसदीय इतिहास का अनुभव भी इस बात की तस्दीक करता है कि यह भारत जैसे देश के लिए संभव नहीं है।
माना जा रहा है कि संसद के आगामी सत्र में इसे अधिसूचित करने के लिए एक तारीख तय होगी तत्पश्चात होनेवाले राज्य चुनावों से बनने वाली सभी विधानसभाएं केवल 2029 में होनेवाले लोकसभा चुनाव तक की अवधि तक के लिए ही वैध होंगी। जिन राज्यों में चुनाव होंगे उनका कार्यकाल आम चुनावों के साथ तालमेल बिठाने के लिए कम कर दिया जाएगा।
2024 और 2028 के बीच बनने वाली राज्य सरकारों का कार्यकाल 2029 के लोकसभा चुनावों तक ही होगा। इसके बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव का क्रम साथ-साथ हो जाएगा। त्रिशंकु संसद या विधानसभाओं की स्थिति में चुनाव होंगे तो उसके फलस्वरूप जी सरकार बनेगी उसकी अवधि 5 साल की न होकर अगले आम चुनाव तक ही रहेगी। इस पूरे प्रकरण में राज्य की स्वायत्तता केंद्र के सम्मुख बाघ और मेमने सरीखे हो जाएगी।
सच तो यह है कि अगर यह कानून बनता है तो इससे भारत का संघीय ढांचा कमजोर होगा। हमारी संविधान सभा ने भारत के संघीय स्वरूप को स्वीकृति दी थी। लंबे संघर्ष के बाद प्रांतीय सरकारों को यह अधिकार मिला। संघवाद की इस मजबूती में क्षेत्रीय दलों का बड़ा योगदान रहा है जिसे यह विधेयक पूरी तरह से खत्म करने के इरादे से लाया गया है। इससे क्षेत्रीय पार्टियों का लोप हो जाएगा। क्योंकि राष्ट्रीय चुनाव का नैरेटिव प्रांतीय नैरेटिव को प्रभावित करेगा ही।
गत लोकसभा चुनाव के साथ ओड़िशा विधानसभा के चुनाव परिणाम में जो कुछ हुआ वह हमारे सामने है। इसका एक दूसरा खतरा इस रूप में दिखलाई दे रहा है कि भाजपा इसके जरिये सत्ता का केंद्रीकरण करना चाहती है ताकि, जनता राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों और नेताओं के आभामंडल में अपने स्थानीय दलों और नेताओं को भूल जाए। ऐसी स्थिति में भाजपा के अंदर तानाशाही का जो स्वरूप अभी दिख रहा है उससे कई गुना ज्यादा बढ़ जाएगा। आज अगर उनपर थोड़ी-बहुत अंकुश लगी है तो वह इन छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के ही कारण।
भारत में अबतक तीन स्तरीय संघीय, प्रांतीय और स्थानीय चुनावों की जो प्रक्रिया रही है वह अलग-अलग अवधि में सम्पन्न होती रही है। इसमें जनता के अपने राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय मुद्दे तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल स्पेस पाते रहे हैं। जाहिर है, इस प्रक्रिया में उन्हें किसी एक तरह के मुद्दे या विचाराधारा की पार्टी को वोट देने का अतिरिक्त दवाब नहीं होता। अगर यह कानून का रूप लेगा तो इससे उनकी इस स्वतंत्रता का हनन होगा।
जनता के पास इस तरह के लोकतांत्रिक विवेक के इस्तेमाल के अवसर, जो उन्हें अलग-अलग चुनावों के जरिये मिलते रहे हैं, वह उनसे छिन जाएगा और पार्टियां ज्यादा निरंकुश हो जाएंगी, यह किसी भी सूरत में भारतीय लोकतंत्र के लिए सही नहीं होगा। सच तो यह है कि भाजपा अपने बुनियादी चरित्र में ही समता, स्वतंत्रता और बंधुता विरोधी रही है।
भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 'एक देश एक चुनाव' पर रामनाथ कोविद पैनल की सिफारिशों को मंजूरी दिये जाने के पीछे उनका यही इरादा रहा है। देश के संघीय ढांचे पर कुठाराघात का इससे वीभत्स उदाहरण कोई दूसरा हो नहीं सकता। यह इसकी मूल संवैधानिक स्वायत्तत्ता को ही खत्म करने की सजिश है। भाजपा के इस अभियान की पुरजोर मुखालफत होनी चाहिए ताकि उनकी इस तरह की संविधान विरोधी हरकतों पर अंकुश लगे।
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