नई दिल्ली। दिल्ली पुलिस द्वारा फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों में छात्र कार्यकर्ता उमर खालिद (Umar Khalid) को मुख्य साजिशकर्ता के रूप में नामित किए जाने के चार साल बाद भी खालिद बिना किसी मुकदमे या जमानत के तिहाड़ जेल में कैद है।
14 सितंबर, 2020 को दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ द्वारा कठोर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किए गए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्र खालिद पर दंगों की साजिश रचने का आरोप लगाया गया है, जिसमें 53 लोग मारे गए थे, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम थे।
दोषी न होने की दलील देने और यह कहने के बावजूद कि उन्होंने केवल शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में भाग लिया था, खालिद की जमानत हासिल करने के प्रयासों को बार-बार अस्वीकार कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने अक्सर माना है कि यूएपीए जैसे विशेष कानूनों के तहत अपराधों के लिए भी ‘जमानत एक नियम है’, लेकिन खालिद को अभी भी महत्वपूर्ण कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
सोशल मीडिया पर बीते दो - तीन दिनों से उमर खालिद की रिहाई की मांग को लेकर तमाम लोगों ने टिप्पणियाँ भी हैं। वरिष्ठ पत्रकार, रवीश कुमार ने कहा कि, "बेल नियम और जेल अपवाद। उमर ख़ालिद और गुलफिशां फ़ातिमा पर कब लागू होगा ? 4 साल हो गए"
वहीं कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा कि, "मुस्लिम नौजवान बिना किसी ट्रायल के जेलों में बंद हैं उन पर कोर्ट क्यूं संज्ञान नही लेती? क्या अमित शाह और नरेन्द्र मोदी को शरजील ईमाम और उमर खालिद और शैफी के चेहरे नही पसंद हैं? उनपर भी संज्ञान लेना चाहिए।"
राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने कहा कि, "बिना किसी अपराध के उमर खालिद ने जेल में 4 साल पूरे कर लिए. यह चार साल दाग़ है हमारी न्याय व्यवस्था पर, भारत के संविधान पर..."
एक बड़ी साजिश का मामला
2020 के दंगों के बाद, दिल्ली पुलिस ने विभिन्न मामलों में 2,500 से अधिक व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। उनमें से, खालिद पर 17 अन्य लोगों के साथ एक बड़ी साजिश के मामले में आरोप लगाया गया था, जिनमें से कई को तब से जमानत मिल गई है। खालिद को पहली बार मार्च 2022 में कड़कड़डूमा कोर्ट और बाद में अक्टूबर 2022 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत देने से इनकार कर दिया था। इसके बाद, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
फरवरी 2024 तक, 11 महीनों के दौरान उनकी याचिका को 14 बार स्थगित किया जा चुका था। स्थगन को अक्सर अनुपस्थित वकीलों या अभियोजन पक्ष के अनुरोधों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था। कुछ मामलों में, बेंच की संरचना या अन्य शेड्यूलिंग संघर्षों के मुद्दों के कारण मामले को नहीं उठाया जा सका। उनकी सुनवाई आखिरी बार नवंबर 2023 में और फिर जनवरी 2024 में अलग-अलग कारणों से स्थगित की गई थी।
14 फरवरी, 2024 को खालिद ने "बदली हुई परिस्थितियों" का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट से अपनी ज़मानत याचिका वापस ले ली और देरी और अन्य आरोपियों के साथ समानता के आधार पर ट्रायल कोर्ट में फिर से याचिका दायर की। हालाँकि, 28 मई, 2024 को एक बार फिर ज़मानत खारिज कर दी गई। उनकी याचिका अब दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित है।
पीड़ा और उम्मीद
दिल्ली की शोधकर्ता और खालिद की साथी बनोज्योत्सना लाहिड़ी ने खालिद की लंबी हिरासत पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि खालिद ने हमेशा नफरत के जवाब में प्यार की वकालत की है। उन्होंने कहा, "वह बिना किसी सुनवाई के सालों से जेल में है और मुझे उम्मीद है कि कम से कम उसे जल्द ही सुनवाई का मौका मिले।"
'जमानत एक नियम है'
13 अगस्त, 2024 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस. ओका और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने दोहराया कि कानूनी सिद्धांत 'जमानत नियम है, जेल अपवाद है' यूएपीए के तहत मामलों पर भी लागू होता है। हालांकि, उन्होंने उसी आतंकवाद विरोधी कानून के तहत एक अन्य आरोपी को जमानत दी, जिसमें कहा गया कि योग्य मामलों में जमानत देने से इनकार करना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
इससे पहले, जुलाई में जस्टिस जेबी पारदीवाला और उज्जल भुयान की बेंच ने इस बात पर जोर दिया था कि अपराध की प्रकृति के बावजूद, जमानत के अधिकार को सजा के तौर पर रोका नहीं जाना चाहिए।
न्यायपालिका में अलग-अलग आवाज़ें
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने इस बात पर प्रकाश डाला कि सर्वोच्च न्यायालय, एक "बहुपक्षीय न्यायालय" होने के कारण, अक्सर एक ही मुद्दे पर अलग-अलग पीठों द्वारा अलग-अलग फैसले सुनाए जाते हैं। उन्होंने कहा, "उमर खालिद की जमानत शायद उस पीठ के समक्ष नहीं आई होगी जिसने हाल ही में स्वतंत्रता समर्थक फैसले दिए हैं," उन्होंने कहा कि लोगों को ऐसे भाषणों के लिए अनिश्चित काल तक जेल में नहीं रखा जा सकता है, जिनका अर्थ अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरीके से समझा जा सकता है।
न्याय के लिए एक टेस्ट केस
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय घोष ने इस स्थिति को "न्याय का उपहास" बताते हुए कहा कि हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के कई आरोपियों को खालिद से बहुत पहले ही जमानत दे दी गई है। उन्होंने कहा, "यह उमर नहीं, बल्कि हमारी न्याय प्रणाली है, जिस पर मुकदमा चल रहा है।"
वकील सौतिक बनर्जी ने आगे बताया कि खालिद का मामला संवैधानिक अदालतों के लिए एक परीक्षण के रूप में कार्य करता है, ताकि वे जमानत पर यूएपीए द्वारा लगाए गए वैधानिक प्रतिबंधों पर मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता की पुष्टि कर सकें।
बनर्जी ने कहा, "ऐसे मामले में, जहां मुकदमा जल्द ही समाप्त होने की संभावना नहीं है, चार साल की पूर्व-परीक्षण कैद, अनुच्छेद 21 के तहत उसके अधिकारों को गंभीर रूप से कम करती है।"