नेल्सन मंडेला का यह कथन केवल औपनिवेशिक दमन की प्रक्रिया पर लागू नहीं होता, बल्कि हर उस व्यवस्था पर लागू होता है, जो किसी समुदाय को उसकी बौद्धिक शक्ति से वंचित कर देती है। शिक्षा का छिन जाना केवल स्कूलों और पाठ्यक्रमों से बाहर होना नहीं है — यह उस सामूहिक चेतना को नष्ट करना है जो अन्याय को पहचानती है, प्रश्न करती है और विरोध करती है।
आज के दौर में यह कथन न केवल अशिक्षित समाजों पर, बल्कि उन शिक्षित लेकिन विवेकहीन वर्गों पर भी पूरी तरह लागू होता है — विशेषतः उन दलित समुदायों पर, जो तथाकथित आधुनिक शिक्षा के बावजूद मानसिक दासता से मुक्त नहीं हो सके हैं। विडम्बना यह है कि आज अशिक्षित व्यक्ति से अधिक ख़तरनाक वह शिक्षित मूर्ख है, जो तर्क नहीं करता, विवेक का प्रयोग नहीं करता, और किसी भी बात को बस यूँ ही मान लेता है — क्योंकि “फलाने ने कहा था” या “फलाने को करने से लाभ हो गया।”
वह समुदाय जिसका एक हिस्सा आज भी स्वयं को ‘हिंदू दलित’ कहता है — वह दरअसल एक गहरे विरोधाभास में जी रहा है। जिस व्यवस्था ने उसे सदियों तक अपवित्र, अस्पृश्य और अधम ठहराया, उसी के प्रतीकों, कर्मकांडों और मिथकों को आज भी यह वर्ग आँख मूंदकर अपनाए हुए है। यह स्थिति उस 'पिंजरे में बंद बंदरों के झुंड की जैसी हो जाती है, जो बस दूसरों को देखकर अनुकरण करता है — यह जाने बिना कि वह क्यों और किसके लिए ऐसा कर रहा है।
ऐसे लोग बिना सोचे-समझे परंपराओं, धर्मों और रीति-रिवाजों को स्वीकार करते हैं, यह विचार किए बिना कि ये व्यवस्थाएं किसने बनाईं, किस उद्देश्य से बनाई गईं, और किसे लाभ पहुँचा रही हैं। यह अंधानुकरण एक प्रकार की बौद्धिक जड़ता है, जो अंततः मानसिक ग़ुलामी की ओर धकेलता है — ठीक वैसा ही जैसा मंडेला ने चेताया था : जब चेतना से कटी हुई शिक्षा दी जाती है, तब व्यक्ति स्वयं को ग़ुलाम बना लेता है।
यह संकट केवल सामाजिक नहीं, बल्कि गहरा राजनीतिक भी है। यह उस परिस्थिति को जन्म देता है, जहाँ एक समुदाय अपने ही दमन में अनजाने या जानबूझकर सहभागी बन जाता है — कभी इस कारण कि उसे यह बताया ही नहीं गया कि स्वतंत्र रूप से सोचने और सवाल उठाने का अधिकार उसका भी है, और कभी इसलिए कि वह जानता तो है, लेकिन उस अधिकार का प्रयोग नहीं करना चाहता। वह केवल इसलिए मौन रहता है, क्योंकि चेतना को जगाने वाला प्रयास सुविधा से बाहर है। वह जानता है कि उसे सोचने, प्रश्न करने और प्रतिरोध करने का अधिकार है — लेकिन न तो वह तर्क करना चाहता है, न अपनी आवाज़ उठाना चाहता है, और न ही सामाजिक असुविधा को स्वीकारने के लिए खुद को तैयार करता है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने तो स्पष्ट रूप से यह अधिकार दिया — बताया भी, और रास्ता भी दिखाया। जिस व्यक्ति को वह 14 अप्रैल को गाजे-बाजे, फूल-मालाओं और जयंतियों के साथ पूजता है, उसी बाबासाहेब ने उसे चेतना, तर्क और आत्मसम्मान का संदेश दिया था। फिर भी जब वह केवल पूजा करता है, पर तर्क नहीं करता; जब वह नारे तो लगाता है, लेकिन सवाल नहीं उठाता; जब वह सामाजिक बदलाव की बात तो करता है, लेकिन अपने सुविधा-क्षेत्र से बाहर नहीं निकलता — तो वह उसी व्यवस्था का मौन सहचर बन जाता है, जो उसकी चेतना को कुंद करती रही है।
यह दृश्य विडंबना से भरा है। एक ओर व्यक्ति बाबासाहेब को पूजता है, दूसरी ओर उन्हीं के मूल्यों को अपनाने से कतराता है जिनके लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किया। अम्बेडकर ने सिर्फ एक विचार नहीं दिया, बल्कि चेतना का निर्माण किया — वह चेतना जो मुक्ति की राह पर ले जाती है, जो यह सिखाती है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था को आंख मूंदकर स्वीकारना ही परतंत्रता है।
बाबासाहेब ने दलितों को केवल साक्षर नहीं, सजग बनाना चाहा। उन्होंने 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो' का नारा देकर दलित समाज को यह बताया कि शिक्षा केवल नौकरी पाने या प्रमाणपत्र लेने का साधन नहीं है, बल्कि यह सामाजिक मुक्ति का सबसे बड़ा औज़ार है। उन्होंने चेताया कि शिक्षा वही सार्थक है, जो व्यक्ति में आत्मगौरव, विवेक और असहमति की क्षमता पैदा करे।
हालाँकि यह भी उतना ही सच है कि पूरे दलित समुदाय को एक ही दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। आज एक बड़ा तबका ऐसा भी है जिसने बाबासाहेब के विचारों को आत्मसात कर लिया है — जो बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर ब्राह्मणवादी ढाँचों से पूरी तरह बाहर निकल आया है। यह वर्ग धार्मिक प्रतीकों के अंधानुकरण से हटकर समता, तर्क और करुणा पर आधारित जीवन प्रणाली में विश्वास करता है। वह केवल मूर्तियों की नहीं, विचारों की पूजा करता है — और यही वह चेतना है जो मंडेला की चेतावनी का सबसे ठोस प्रतिकार है।
लेकिन इसके समानांतर एक बड़ा हिस्सा आज भी मानसिक दासता से ग्रसित है — जो बाबासाहेब की चेतावनी और संभावनाओं दोनों से अनभिज्ञ है। ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि हम नेल्सन मंडेला की चेतावनी को केवल उदाहरन न मानें, बल्कि उसे उस ऐतिहासिक चेतना से जोड़ें जो बाबासाहेब ने हमें दी थी।
जब तक हम शिक्षा को केवल रोज़गार का माध्यम मानते रहेंगे और उसे आत्मचेतना व प्रतिरोध का औज़ार नहीं बनाएँगे, तब तक मुक्ति अधूरी ही रहेगी। बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने जो रास्ता दिखाया — वह केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि मंडेला जैसे वैश्विक विचारकों की चेतावनियों का सबसे सशक्त और व्यावहारिक उत्तर है।
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