रामगढ़/झारखण्ड- सुप्रीम कोर्ट ने जनपक्षीय पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की जमानत याचिका को खारिज कर दिया है। 27 जनवरी को हुई सुनवाई में शीर्ष अदालत ने झारखण्ड हाई कोर्ट द्वारा 6 दिसंबर 2023 के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा, "हम अपील किए गए आदेश में हस्तक्षेप करने के इच्छुक नहीं हैं।"
इस निर्णय से रूपेश की पत्नी 39 वर्षीया ईप्सा शताक्षी बेहद निराश और चिंतित हैं। उन्होंने द मूकनायक से बातचीत में कहा, "रूपेश को जेल में रहते हुए 2.5 साल हो चुके हैं। मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद डर लग रहा है कि क्या वह कभी जेल से बाहर आ भी पाएंगे या नहीं।"
रूपेश कुमार सिंह को 17 जुलाई 2022 को झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के कांड्रा थाना अंतर्गत केस संख्या 67/21 में गिरफ्तार किया गया था। उन पर सीपीआई (माओवादी) संगठन से जुड़े होने का आरोप लगाया गया, हालांकि मूल एफआईआर में उनका नाम नहीं था। गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने दावा किया कि मुख्य अभियुक्त से पूछताछ के दौरान कुछ एसएसडी कार्ड मिले, जिनमें रूपेश के खिलाफ कथित आपत्तिजनक सामग्री पाई गई। इसी आधार पर उनके खिलाफ सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की गई और तब से वे न्यायिक हिरासत में हैं।
पत्नी ईप्सा की आशंकाएं हुईं सच?
ईप्सा शताक्षी, जो झारखंड के रामगढ़ की निवासी हैं, ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका खारिज होने के बाद उनका डर और बढ़ गया है। उन्होंने कहा, "जब रूपेश को गिरफ्तार किया गया था, तब उन्हें पूछताछ के लिए उच्च अधिकारियों के पास ले जाया गया था। वहां पुलिसवालों ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था- 'चाहे कपिल सिब्बल को लाओ या प्रशांत भूषण को, कोई तुम्हें बाहर नहीं निकाल सकता। ' आज उनकी यह चेतावनी सच होती दिख रही है।"
ईप्सा कहती हैं, उन्हें भारी अंदेशा है कि रुपेश को किसी बड़े षड़यंत्र में फंसाया जा सकता है ताकि वे जेल से बाहर नहीं निकल सकें. वे बोली , " सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बहुत ज्यादा निराश हूँ क्योंकि हमारा पक्ष बहुत मजबूत था, इस मामले में रूपेश नामजद नहीं हैं, जबकि मामले में नामजद 3-4 सह आरोपियों को बेल मिल चुकी है, ऐसे मैं हम आशान्वित थे कि सुप्रीम कोर्ट जरूर बेल ग्रांट करेगा लेकिन जिस तरह सुनवाई हुई और मौखिक रूप से बोला गया कि इतने मामले चल रहे हैं, ऐसे में बेल दिया जाना ठीक नहीं लगता. कोर्ट ने बेल खारिज करने में भूल की है क्योंकि रूपेश जाने माने पत्रकार हैं जो सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं, वे गुमनाम व्यक्ति नहीं कि उन्हें कोई नहीं पहचानता हो, ऐसे में जब वो कहीं भाग नहीं सकते तो बेल देने में क्या हर्ज है?" इन बातों और परिस्थिति को देखते हुए ईप्सा रूपेश की रिहाई को लेकर आशंकित है और निकट भविष्य में अपने पति के घर लौटने की आस खो चुकी है.
2019 से संघर्ष, 2022 में दोबारा गिरफ्तारी
जून 2019 में, रूपेश को खुफिया ब्यूरो और आंध्र प्रदेश पुलिस ने यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया और अवैध रूप से दो दिनों तक हिरासत में रखा, इसके बाद 06.06.2019 को बिहार के गया पुलिस को सौंप दिया गया। पुलिस ने याचिकाकर्ता पर प्रतिबंधित संगठन, यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का सदस्य होने का आरोप लगाया। बाद में, पुलिस चार्जशीट दाखिल करने में विफल रही, जिसके चलते दिसंबर 2019 में उन्हें डिफॉल्ट जमानत पर रिहा कर दिया गया। तब से यह मामला स्थगित पड़ा हुआ है।
सरायकेला-खरसावां जिले में एक अन्य मामले में 17 जुलाई 2022 को उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और उसके बाद खिलाफ तीन नए मामले दर्ज किए गए। वतर्मान में रूपेश के विरुद्ध 5 मामले विचाराधीन हैं जिसमे से बोकारो केस में हाई कोर्ट से मिली है और चाईबासा वाले मामले में निचली अदालत ने उन्हें बेल ग्रांट की.
2019: डोभी, गया (बिहार)
2022: कांड्रा, सरायकेला-खरसावां (झारखंड)
2022: जगेश्वर विहार, बोकारो (झारखंड)
2022: टोकलो, चाईबासा (झारखंड)
2023: रोहतास (बिहार), एनआईए मामला
ईप्सा टीचर थीं लेकिन रूपेश की गिरफ्तारी के बाद से उन्हें अपनी निजी नौकरी छोड़नी पड़ी और पूरी तरह से उनके कानूनी संघर्ष में जुट गईं। 2016 में इस युगल का प्रेम विवाह हुआ था। लेकिन 2019 में गिरफ्तारी के बाद मुश्किलें आनी शुरू हुई। इप्सा कहती हैं," फिर 2022 में उनकी दोबारा गिरफ्तारी से हमारी पूरी दुनिया ही बदल गई। "
लीगल खर्चों के साथ परिवार चलाने की जिम्मेदारी और अपने 7 वर्षीय बेटे अग्रिम के स्कूली शिक्षा के व्यय के लिए उन्हें बहुत तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है, उसके साथ ही वह स्वयं एलएलबी और जर्नलिज्म की पढाई भी कर रही हैं. दोनों ही परिवारों का संबल होने से उसे राहत मिलती है.
ईप्सा कंटेंट राइटिंग और बतौर फ्री लांसर काम करती हैं, ईप्सा ने पत्रकार समुदाय से रूपेश के लिए एकजुट होकर रिहाई के लिए उसका साथ देने की अपील की.
ईप्सा कहती हैं, " कानून की पढाई रूपेश के लिए कर रही हूँ, साथ ही उसके जैसे अनेक निर्दोष लोग जिन्हें सिस्टम झूठे मामलों में फंसा कर सज़ा काटने को मजबूर करता है. " रूपेश वतर्मान में भागलपुर जेल में हैं. जेल से उन्हें अपने परिवार से 8 दिन में एक बार विडियो कॉल और महीने में 6 बार फोन पर बात करने की अनुमति है. रामगढ़ से भागलपुर के बीच 350 किलोमीटर की दूरी होने से परिवार रूपेश से नियमित रूप से मिलने में असमर्थ है, आखिरी बार मुलाकात तीन माह पहले अक्टूबर में हुई थी.
पत्रकारिता की कीमत चुका रहे हैं रूपेश?
रूपेश कुमार सिंह को झारखंड और बिहार में आदिवासी, दलित, शोषित, पीड़ित और गरीब जनता के अधिकारों के लिए लिखने वाले एक निर्भीक पत्रकार के रूप में जाना जाता है, जिनका पत्रकारिता में सात से अधिक वर्षों का अनुभव है। उन्होंने विस्थापन, विस्थापित लोगों के विरोध प्रदर्शन, राज्य में सुरक्षा बलों द्वारा की गई मुठभेड़ों और झारखंड में माओवादी करार देकर गिरफ्तार किए गए आदिवासियों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर रिपोर्टिंग और सक्रिय भागीदारी की है। वे विभिन्न मासिक हिंदी पत्रिकाओं और ऑनलाइन समाचार पोर्टलों में योगदान देते रहे हैं, जिनमें मीडिया विजिल, गौरी लंकेश न्यूज़, द वायर और जनचौक शामिल हैं।
उनकी रिपोर्टिंग सरकारों की नीतियों और पुलिस की ज्यादतियों को उजागर करती रही है। उनकी पत्नी ईप्सा का कहना है कि उनकी पत्रकारिता ही उनके खिलाफ किए गए मुकदमों की असली वजह है।
द वायर की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, पेगासस मालवेयर के जरिए रूपेश के कम से कम तीन फोन नंबरों को संभावित रूप से निशाना बनाया गया था। इसके परिणामस्वरूप, रूपेश ने न्यायालय में रिट याचिका (C) संख्या 850/2021 दायर की, जिसमें पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के लिए सरकार द्वारा पेगासस के कथित उपयोग का मुद्दा उठाया गया।
"उन्होंने कभी अपनी कलम को सत्ता का गुलाम नहीं बनने दिया। यही कारण है कि आज वे सलाखों के पीछे हैं," ईप्सा ने कहा। सुप्रीम कोर्ट से राहत न मिलने के बावजूद ईप्सा ने कहा कि वे न्याय की लड़ाई जारी रखेंगी।
रूपेश के मामले में झामुमो और हेमंत सोरेन की तरफ से कोई मदद या आश्वासन नहीं मिला है. ईप्सा ने बताया कि 2 साल पहले उन्होने हेमंत सोरेन को पत्र लिखा था और आदिवासी वर्ग के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाले रूपेश की मदद की गुहार लगाई लेकिन उनके पत्र का कोई जवाब नहीं मिला. " राजनीति में नेताओ के दो चेहरे होते हैं, जब वे विपक्ष में होते हैं वे शोषण और सिस्टम के खिलाफ बोलते हैं लेकिन कुर्सी हासिल करते ही बोलती बंद हो जाती है" पहले तो वे (सोरेन) रूपेश के पोस्ट को ट्वीट भी करते थे लेकिन अब बिलकुल खामोश हो गए हैं।
क्या है रूपेश पर आरोप ?
रूपेश कुमार सिंह को मूल एफआईआर में नामजद नहीं किया गया था। उन्हें 7 मई 2022 की पूरक चार्जशीट में आरोपित किया गया, जो एक एसएसडी कार्ड से प्राप्त सामग्री के आधार पर थी। इस कार्ड को प्रथम आरोपी प्रशांत बोस और अन्य के पास से जब्त किया गया था। अभियोजन पक्ष का दावा है कि रूपेश कुमार सिंह सीपीआई (माओवादी) के सक्रिय सदस्य थे और उन्हें संगठन में 'रमन' के रूप में जाना जाता था।
आरोप लगाया गया कि रूपेश को सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेताओं के ठिकानों की जानकारी थी और उन्होंने संगठन के लिए सदस्यों की भर्ती में मदद की। यह भी कहा गया कि उन्होंने संगठन द्वारा एकत्रित धन का व्यक्तिगत और व्यावसायिक लाभ के लिए उपयोग किया। आरोपों में कहा गया कि उन्होंने सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेताओं के साथ पत्राचार किया और संगठन के विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लिया। पूरक चार्जशीट में यह भी आरोप लगाया गया कि उनके और उनके परिवार के पास कोई स्वतंत्र आय का स्रोत नहीं था और उन्होंने माओवादी संगठन द्वारा एकत्र किए गए धन से संपत्तियां अर्जित कीं।
याचिका में ये गिनाए बेल के आधार:
रूपेश कुमार सिंह ने इन सभी आरोपों को खारिज किया है और कहा है कि उन्हें उनके स्वतंत्र पत्रकारिता कार्य के कारण प्रतिशोध स्वरूप झूठे मामले में फंसाया गया है।
मूल एफआईआर में उनका नाम नहीं था, और पूरक चार्जशीट में उन्हें मात्र एसएसडी कार्ड से प्राप्त सामग्री के आधार पर आरोपी बनाया गया।
इस एसएसडी कार्ड से प्राप्त तस्वीरें और वीडियो धुंधले हैं और उनमें किसी व्यक्ति की पहचान स्पष्ट नहीं होती।
अभियोजन का पूरा मामला इस दावे पर आधारित है कि 'रमन' नामक व्यक्ति वास्तव में रूपेश कुमार सिंह हैं, लेकिन इस दावे को साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं दिया गया है।
अभियोजन पक्ष का यह आरोप कि उनके पास कोई वैध आय का स्रोत नहीं था, झूठा है। रूपेश कई समाचार संगठनों से जुड़े रहे हैं और उनके काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता प्राप्त है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार रैपोर्टियर का समर्थन भी शामिल है।
उच्च न्यायालय ने अभियोजन पक्ष की दलीलों को बिना किसी विश्लेषण के स्वीकार कर लिया और सबूतों की सतही जांच भी नहीं की।
राज्य द्वारा की गई जांच में कई प्रक्रियात्मक अनियमितताएँ थीं, जिनमें पुलिस अधिकारियों को स्वतंत्र गवाह के रूप में पेश किया जाना शामिल है।
पुलिस की कार्रवाई में सत्ता का दुरुपयोग और अवैधता स्पष्ट रूप से दिखती है, क्योंकि पहले भी इसी तरह के आरोपों वाले मामलों में अभियोजन कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाया था।
यह मामला राज्य द्वारा सत्ता के दुरुपयोग और असहमति को दबाने का एक प्रयास है, जो रूपेश कुमार सिंह के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।