नई दिल्ली। "बचपन में जब स्कूल के बच्चे आपके साथ सिर्फ इसलिए टिफिन साझा न करें क्योंकि आप दलित हैं, तो वह टीस ताउम्र साथ चलती है," — यह शब्द हैं बिहार के समस्तीपुर की रहने वाली और पटना में रहकर मधुबनी पेंटिंग के ज़रिए अपनी पहचान गढ़ रहीं मालविका राज के। अपने हुनर से कला की दुनिया में नई इबारत लिख रहीं मालविका न केवल एक कलाकार हैं, बल्कि जातिवाद के ख़िलाफ़ खड़ी एक सशक्त आवाज़ भी हैं। ‘द मूकनायक’ से बातचीत में उन्होंने बताया की सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ रंगों और ब्रश को हथियार बनाने की राह दिखाई।
मालविका सिर्फ एक कलाकार नहीं हैं, वह उन आवाज़ों में से हैं जो कला के ज़रिए बहुजन नायकों के संघर्ष, इतिहास और आत्म-सम्मान को जीवित रख रही हैं। उन्होंने मधुबनी कला को सामाजिक न्याय के प्रतीक बना दिया है। आज वह 200 से अधिक पेंटिंग्स बना चुकी हैं, जो गौतम बुद्ध, महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले, और संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे महापुरुषों के विचारों और जीवन को रंगों में उतारती हैं।
संघर्ष से रंगों तक की यात्रा
मालविका राज के पिता रामचंद्र राम बिहार पुलिस में डीएसपी रैंक से रिटायर हुए हैं। वह कहती हैं, “मेरे पापा का संघर्ष, उनकी ईमानदारी और उनका समर्थन ही मेरी सबसे बड़ी ताकत रहे हैं। उन्हीं की बदौलत मैं आज यहां तक पहुंची हूं।”
मालविका चार भाई-बहनों में दूसरी संतान हैं। तीन बहनों और एक भाई वाले इस परिवार ने जातिगत भेदभाव के बीच भी शिक्षा और आत्मसम्मान की राह नहीं छोड़ी।
पटना के एक हिंदी माध्यम सरकारी स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्होंने जो भेदभाव झेला, उन्होंने कहा, “बचपन में जब बच्चे मेरे समाज को लेकर तिरस्कार करते थे, टिफिन साझा नहीं करते थे, और कहते थे कि ‘तुम SC/ST जैसी नहीं लगतीं’, उस बक्त ज्यादा कुछ समझ नहीं आता था, पर जैसे बड़ी हुई तो यह सब मुझे भीतर तक तोड़ता था, पर मैंने उसे अपनी ताकत बना लिया।”
निजी कंपनी में की नौकरी
चंडीगढ़ से फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने दिल्ली की एक डिजाइनिंग कंपनी में काम किया, लेकिन स्वास्थ्य समस्याओं के कारण उन्हें नौकरी छोड़कर पटना लौटना पड़ा। यहीं से उनकी कला यात्रा शुरू हुई। 2011 में उन्होंने मधुबनी पेंटिंग को अपनाया, लेकिन उनका नजरिया पारंपरिक कथाओं से हटकर था। अक्सर मधुवनी कला से कृष्ण, महाभारत, रामायण, शिवपुराण आदि का ही चित्रण हुआ करता रहा है।
गौतम बुद्ध की धरती पर क्यों नहीं हैं बुद्ध की पेंटिंग्स?
जब मालविका ने मधुबनी पेंटिंग्स को गहराई से जानना शुरू किया, तो उन्हें इस बात ने झकझोर दिया कि बिहार, जो बुद्ध की धरती मानी जाती है, वहां गौतम बुद्ध की कोई मधुबनी पेंटिंग देखने को नहीं मिलती। “अगर रामायण की कहानियाँ मधुबनी पेंटिंग में जीवित रह सकती हैं, तो बुद्ध, फुले और अंबेडकर जैसे महापुरुषों की विरासत क्यों नहीं?” — इस सवाल ने उनकी कला को दिशा दी।
मालविका ने तभी ठान लिया था कि वह ऐसी पेंटिंग्स बनाएंगी, जो न सिर्फ सुन्दर हों, बल्कि सामाजिक संदेश भी दें। उनकी हर कृति बहुजनों की अस्मिता, संघर्ष और विचारों को जीवंत करती है।
कला के ज़रिए प्रतिरोध और पहचान
मालविका की पेंटिंग्स सिर्फ तस्वीरें नहीं हैं, वे समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ एक मौन लेकिन ताक़तवर प्रतिरोध हैं। उन्होंने न केवल मधुबनी शैली को नया सामाजिक दृष्टिकोण दिया है, बल्कि इसे बहुजन इतिहास और आत्म-सम्मान के दस्तावेज़ में भी बदल दिया है।
उनकी बनाई गई पेंटिंग्स अब देशभर में प्रदर्शनियों में लगाई जाती हैं और कई विश्वविद्यालयों व सामाजिक आंदोलनों से जुड़े लोग उनकी कला को संग्रहित कर रहे हैं। उनकी कला में बुद्ध की करुणा, फुले का सामाजिक विवेक, सावित्रीबाई की शिक्षा की मशाल और अंबेडकर का संविधान बसता है।
अब भी भेदभाव जीवित है
मालविका कहती हैं कि आज भी बिहार जैसे राज्यों में जातिगत भेदभाव मौजूद है। “जब लोग मेरी जाति जानते हैं तो उनका व्यवहार बदल जाता है। मेरे कुछ दोस्त सिर्फ जाति जानकर मुझसे दूर हो गए।” उन्होंने यह भी बताया कि कई लोग उनके पहनावे और तौर-तरीकों को देखकर यह कह देते हैं, “तुम SC/ST जैसी नहीं दिखती,” जो एक तरह का तंज होता है। सवाल यह है कि वो लोग पिछड़े शोषित, वंचित समाज के लोगों को कैसे देखना चाहते हैं?
एक नई विरासत गढ़ती कलाकार
मालविका की यात्रा इस बात का प्रमाण है कि सामाजिक अवरोध चाहे जितने भी हों, अगर व्यक्ति में संकल्प और आत्मबल हो, तो वह इतिहास बदल सकता है। उन्होंने मधुबनी पेंटिंग को एक नए मुहाने पर खड़ा कर दिया है, जहां कला सिर्फ सजावट नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का माध्यम बन चुकी है।
उनकी कहानी सिर्फ प्रेरणा नहीं है, यह उस बहुजन समाज की एक जीवंत तस्वीर है जो हर दिन भेदभाव, उपेक्षा और संघर्ष के बीच भी अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है।
मधुबनी पेंटिंग क्या है?
मधुबनी पेंटिंग, जिसे 'मिथिला पेंटिंग' भी कहा जाता है, बिहार के मिथिला क्षेत्र की एक पारंपरिक लोकचित्र शैली है। यह कला प्राचीन काल से महिलाओं द्वारा घर की दीवारों, आंगन, और विशेष अवसरों जैसे विवाह, त्योहारों पर बनाई जाती रही है। इसकी शुरुआत की पौराणिक मान्यता यह है कि जब राजा जनक ने अपनी बेटी सीता के विवाह के समय नगर को सजाने का आदेश दिया, तब इस चित्रकला की परंपरा शुरू हुई। यह पेंटिंग मुख्यतः प्राकृतिक रंगों और उंगलियों, लकड़ी की कलम, या कपड़े की पोटली से बनाई जाती है। इसमें पेड़-पौधे, देवी-देवता, पशु-पक्षी, विवाह, मिथक और लोककथाओं को प्रतीकात्मक शैली में चित्रित किया जाता है।
1947 के आसपास नेपाल-बिहार सीमा पर आए एक भूकंप के बाद जब घरों की दीवारें टूटीं, तब इन चित्रों की खोज हुई और इस पारंपरिक कला को दुनिया के सामने लाया गया। इसके बाद 1960 के दशक में मधुबनी की महिलाओं को कागज़ पर पेंटिंग करना सिखाया गया, जिससे यह लोककला वैश्विक स्तर पर पहुंची। आज यह न सिर्फ एक सांस्कृतिक धरोहर है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों का माध्यम भी बन चुकी है।