भारत में आने वाले महीनों में जाति जनगणना की प्रक्रिया तेज होगी, ऐसे समय में डॉ. बी.आर. आंबेडकर, के 1931 की जनगणना पर लेखन आज भी गहरी प्रासंगिकता रखते हैं। उनकी रचनाएँ ब्रिटिश शासन के तहत अछूतों की गणना की प्रक्रिया पर प्रकाश डालती हैं, विशेष रूप से 1911 की जनगणना में अपनाए गए दस सूत्रों पर, जिन्होंने अछूतों (untouchables) को छुआछूत करने वाले हिंदुओं (touchables) से अलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शायद कम ही लोग यह जानते हो कि अछूतों की हिंदुओं से अलग गिनती मुस्लिम समुदाय की मांग पर हुई थी जो एक जटिल प्रक्रिया थी। अछूत कौन हैं? किस आधार पर अछूतों और हिंदुओं के बीच फर्क किया जाए, ये तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य था।
Dr. Baba Sahab Ambedkar : Writings and Speeches , Volume 5- Chapter 2 Untouchables- Their Numbers में बाबा साहब ने 1931 की जनगणना को लेकर विस्तृत जानकारी दी है।
बाबा साहब ने अपने लेखन में लिखा - 1881 की पहली सामान्य जनगणना में बिना उच्च, निम्न, या छुआछूत/अछूत श्रेणियों में वर्गीकृत किए केवल जातियों और संप्रदायों की सूची बनाई गई। 1891 की जनगणना में जाति और नस्ल के आधार पर वर्गीकरण का प्रारंभिक प्रयास हुआ, लेकिन यह अपूर्ण था। 1901 की जनगणना ने “स्थानीय जनमत द्वारा मान्यता प्राप्त सामाजिक प्राथमिकता” के आधार पर वर्गीकरण शुरू किया, जिसका उच्च जाति के हिंदुओं ने विरोध किया, क्योंकि वे इसे अपनी सामाजिक सत्ता के लिए खतरा मानते थे।
आंबेडकर ने उल्लेख किया कि 27 जनवरी 1910 को मुस्लिम समुदाय ने सरकार को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें मांग की गई कि उनकी राजनीतिक प्रतिनिधित्व की गणना केवल छुआछूत करने वाले हिंदुओं की आबादी के आधार पर हो, न कि समग्र हिंदू आबादी के। उनका तर्क था कि अछूत हिंदू नहीं हैं, और इसलिए उन्हें हिंदू आबादी में शामिल नहीं करना चाहिए। इस मांग ने अछूतों की अलग पहचान को और बल दिया, जिसने 1911 और बाद की जनगणनाओं में उनकी गणना को प्रभावित किया।
1911 की जनगणना ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया, जिसमें अछूतों को छुआछूत करने वाले हिंदुओं से अलग करने के लिए दस सूत्र निर्धारित किए गए। ये सूत्र थे:
ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को नकारना।
ब्राह्मण या अन्य मान्यता प्राप्त हिंदू गुरु से मंत्र न लेना।
वेदों के अधिकार को नकारना।
प्रमुख हिंदू देवताओं की पूजा न करना।
अच्छे ब्राह्मणों द्वारा सेवा न किया जाना।
ब्राह्मण पुजारी न होना।
सामान्य हिंदू मंदिर के आंतरिक भाग में प्रवेश न होना।
प्रदूषण का कारण बनना।
मृतकों को दफनाना।
गोमांस खाना और गाय का सम्मान न करना।
1921 और 1931 की जनगणना में भी यही सूत्र अपनाए गए और अछूतों की अलग गिनती हुई जिससे देश में अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या सामने आई.
1931 की जनगणना: कार्यप्रणाली और निष्पादन
1931 की जनगणना, जे.एच. हटन के नेतृत्व में, ब्रिटिश भारत की लगभग 27.1 करोड़ आबादी को कवर करती थी। इसमें 1911 के दस सूत्रों का उपयोग करके अछूतों की गणना की गई। आंबेडकर ने बताया कि इस जनगणना ने अछूतों की आबादी को लगभग 4.45 करोड़ अनुमानित किया, जिसे 1930 में साइमन कमीशन ने भी स्वीकार किया। हालांकि, आंबेडकर ने दो प्रमुख कमियों को रेखांकित किया:
सटीक सूत्रों का अभाव: अछूतों की पहचान के लिए सूत्रों का एकसमान उपयोग नहीं हुआ, जिससे असंगतियां आईं।
श्रेणियों का मिश्रण: आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े लेकिन सामाजिक रूप से अछूत न होने वाले समूहों को अछूतों के साथ मिला दिया गया, जिससे आंकड़े गलत हुए।
1931 की जनगणना एक दशकीय प्रक्रिया थी, जिसकी तैयारी 1920 के दशक के अंत में शुरू हुई। मुख्य गणना 26 फरवरी 1931 को हुई, जब पूरे ब्रिटिश भारत में एक साथ गणना की गई। आंकड़ा संग्रह, संकलन और विश्लेषण में लगभग दो वर्ष लगे, और अंतिम रिपोर्ट 1933 में जे.एच. हटन द्वारा प्रकाशित की गई। राजनीतिक आंदोलनों के कारण कुछ क्षेत्रों में डेटा सत्यापन और प्रसंस्करण में अधिक समय लगा।
परिणाम और महत्व
जाति आंकड़े: जनगणना में 4,147 जातियां दर्ज की गईं जो 1901 की 1,646 जातियों से कहीं अधिक थीं, जो भारत की सामाजिक संरचना की जटिलता को दर्शाती है। इसमें 68 जातियों को "अछूत" (1931 में "बाहरी वर्ग" कहा गया) के रूप में चिह्नित किया गया और इन्हें भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत विशेष दर्जा दिया गया।
राजनीतिक प्रभाव: जाति आंकड़ों ने संवैधानिक बदलावों को आकार दिया, जैसे कि भारत सरकार अधिनियम 1935। इसने सामाजिक गतिशीलता आंदोलनों को बढ़ावा दिया, जैसे पंजाब में आदि धर्मी समुदाय ने हिंदू, सिख या मुस्लिम के रूप में वर्गीकरण से बचने के लिए अलग पहचान की घोषणा की।
जाति के अलावा, जनगणना में धर्म, आयु, व्यवसाय, साक्षरता और भाषाई प्रोफाइल की जानकारी एकत्र की गई। साक्षरता को किसी भी भाषा में पत्र लिखने और उसका जवाब पढ़ने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया गया, जो पांच वर्ष और उससे अधिक उम्र के लोगों के लिए गणना की गई।
राष्ट्रीय साक्षरता दर 9.5% थी, जिसमें ब्राह्मणों की साक्षरता लगभग 27% (पुरुषों के लिए 43.7%, महिलाओं के लिए 9.6%) थी। त्रावणकोर और कोचिन (आधुनिक केरल) जैसे रियासतों में साक्षरता अधिक थी।
जनगणना ने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 52% आबादी के रूप में अनुमानित किया, जिसे बाद में मंडल आयोग (1980) ने 27% OBC आरक्षण की सिफारिश के लिए आधार बनाया।
आलोचना: हटन ने पहले की वर्ण-आधारित प्रणाली की आलोचना की और इसे प्रशासन के लिए अव्यवहारिक बताया। 1931 की व्यवसाय-आधारित प्रणाली को अधिक व्यावहारिक माना गया, लेकिन जाति की तरलता और क्षेत्रीय भिन्नताओं ने इसे जटिल बनाया।
बाबा साहब ने 1931 की जनगणना की कई चुनौतियों को रेखांकित किया:
उच्च जाति का विरोध: उच्च जाति के हिंदुओं ने जाति गणना का विरोध किया, क्योंकि वे डरते थे कि अछूतों की पहचान से उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी कम होगी। 1932 में लोथियन समिति की मताधिकार जांच के दौरान, कुछ हिंदुओं ने अछूतों के अस्तित्व को ही नकार दिया।
मुस्लिम मांग: 1910 के ज्ञापन ने अछूतों को हिंदुओं से अलग करने की बहस को और जटिल किया।
राजनीतिक आंदोलन: गांधी का नमक सत्याग्रह और कांग्रेस का 11 जनवरी 1931 को “जनगणना बहिष्कार रविवार” कुछ क्षेत्रों में आंकड़ा संग्रह को बाधित किया।
जाति पहचान की तरलता: कई निम्न जाति के लोग उच्च जाति की पहचान बताते थे, जिससे सटीक गणना कठिन हुई।
क्षेत्रीय भिन्नताएँ: जाति नामकरण में एकरूपता की कमी ने डेटा संकलन को जटिल बनाया।
बाबा साहब के मुताबिक 1931 की जनगणना ने अछूतों की आबादी को स्पष्ट करने में मदद की, जिसके आधार पर साइमन कमीशन ने उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी की पैरवी की। इस जनगणना ने भारत सरकार अधिनियम 1935 को प्रभावित किया, जिसने “बाहरी वर्गों” (अछूतों) के लिए विधायिकाओं में आरक्षित सीटें सुनिश्चित कीं। इसके अलावा, इसने सामाजिक गतिशीलता आंदोलनों को प्रेरित किया, जैसे पंजाब में आदि धर्मी समुदाय ने हिंदू, सिख या मुस्लिम वर्गीकरण से बचने के लिए अलग पहचान बनाई।
हालांकि,उच्च जाति के हिंदुओं का विरोध 1932 तक तीव्र हो गया क्योंकि उन्हें अछूतों की आबादी को स्वीकार करने से अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी में कमी का डर था। यह स्वतंत्र भारत में जाति-आधारित नीतियों पर बहस का आधार बना।
अब जब देश नई जाति जनगणना की ओर बढ़ रहा है, आंबेडकर का 1911 के दस सूत्रों और मुस्लिम मांग पर विश्लेषण आज भी प्रासंगिक है। जातियों की सटीक गणना और जातिगत भेदभाव आदि को ख़त्म करने की मांग वर्तमान में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के लिए डेटा की आवश्यकता को दर्शाती है। बाबा साहब द्वारा उजागर की गई चुनौतियाँ, प्रमुख समूहों का विरोध, असंगत कार्यप्रणाली, और सामाजिक-राजनीतिक जटिलताएँ—आज भी प्रासंगिक हैं।