सफेद सलवार और कुर्ता पहने, पत्रकार मीना कोटवाल समानता, उम्मीद और क्रांति की बात करती हैं। वह अपने पीछे एक बेहतर दुनिया छोड़कर जाने की उम्मीद करती हैं, एक ऐसी दुनिया जो उनकी 4 साल की बेटी के लिए क्रूर नहीं हो, ऐसी ही एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए वह संघर्ष कर रही हैं। उनकी आंखों में दृढ़ता है, आवाज में जोश; लेकिन कुछ पलों में, वह सारी ताकत डर में बदल जाती है।
"मैं इसी कॉलोनी में बड़ी हुई हूं... लेकिन कृपया इसका नाम मत लिखिए," वह नई दिल्ली के उस इलाके के बारे में कहती हैं जहां उनका ऑफिस है और जहां हम मिले हैं। "मैं अपना पता छपवाना नहीं चाहती।"
मीना की बेटी छोटी सी धरा उनकी गोद में बैठी है, अपने क्रेयॉन से उनकी डेस्क पर कुछ लिखने की कोशिश कर रही है। उनके पीछे द मूकनायक का पोस्टर लगा हुआ है, जो एक ऑनलाइन न्यूज़ चैनल और वेबसाइट है। यह प्लेटफॉर्म दलित समुदाय से जुड़ी समस्याओं को कवर करता है, जिन्हें अक्सर समाज में नीचा और "अशुद्ध" माना जाता है।
खुद एक दलित होने के नाते, कोटवाल ने 2021 में इस प्लेटफॉर्म की शुरुआत की थी। अब, वह कहती हैं, उन्हें अपनी बेटी की सुरक्षा की चिंता होती है।
वह कहती हैं, "यही वजह है कि मैंने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई। जो धमकियां मुझे मिलती हैं, मैं चाहती हूं कि वो मुझ तक ही सीमित रहें, मेरे परिवार तक न पहुंचे। लेकिन वो बार-बार मेरी बेटी को इसमें घसीटते रहते हैं "।

करीब तीन साल पहले, मीना कोटवाल ने नई दिल्ली के एक पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करवाई थी, जिसमें 20 अनजान व्यक्तियों के फोन नंबर शामिल थे जिन्होंने उन्हें फोन और वीडियो कॉल के जरिए धमकाया था। एक ने उन्हें "ऊँची जाति के व्यक्ति का पेशाब पीने" को कहा, दूसरे ने खुद को पुलिस अधिकारी बताते हुए उन्हें "वेश्या" और "हरामी" कहा। किसी ने उनके साथ अश्लील हरकतें कीं, तो किसी ने गालियों की बौछार कर दी।
"मैं एक पत्रकार हूं, और ज्यादातर समय घर के बाहर, फील्ड में काम करती हूं। मेरी डेढ़ साल की बेटी भी अधिकतर मौकों पर मेरे साथ रहती है। हमारी जान को खतरा है," कोटवाल ने अपनी शिकायत में लिखा। "इसलिए कृपया मेरी और मेरे परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करें — और जो लोग मुझे धमका रहे हैं, उन्हें जल्द से जल्द पकड़कर उचित कार्रवाई की जाए।"
यह शिकायत 5 जनवरी 2022 को दर्ज की गई थी। अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है, और कोटवाल का मानना है कि इसका कारण उनका दलित होना है।
हिंदू जाति व्यवस्था, जो लगभग 3,000 साल पुरानी है, हिंदुओं को जन्म के आधार पर श्रेणियों में बांटती है और उनके सामाजिक, पेशेवर और धार्मिक जीवन को नियंत्रित करती है। इस व्यवस्था में दलितों – जिन्हें कभी "अछूत" कहा जाता था – को समाज के सबसे निचले स्तर पर रखा गया है। भारत के संविधान ने 1950 में जाति आधारित भेदभाव को अवैध घोषित कर दिया था, लेकिन आज भी दलितों को मृत जानवरों को हटाने और हाथ से सीवर साफ करने जैसे काम करने पर मजबूर किया जाता है।
करीब 10 करोड़ दलित – जो कुल दलित आबादी का एक तिहाई हिस्सा हैं – अब भी वर्ल्ड बैंक द्वारा तय गरीबी रेखा, $2.15 प्रति दिन से नीचे जीवन यापन करते हैं। यह समुदाय अब भी भारी भेदभाव और हिंसा का शिकार है। हर दिन लगभग 10 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। मुख्यधारा के भारतीय मीडिया में भी दलितों की उपस्थिति बेहद कम है। हाल ही में ओक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, मुख्यधारा के भारतीय मीडिया न्यूज़ रूम में दलितों का नेतृत्व शून्य है।
अपने समुदाय को आवाज देने के लिए मीना कोटवाल ने द मूकनायक की स्थापना की। उन्होंने दलित, आदिवासी और महिला रिपोर्टर्स को काम पर रखा, और मिलकर वे हिंदी और अंग्रेजी में रिपोर्ट्स और वीडियो प्रकाशित कर रहे हैं। यह प्लेटफॉर्म न केवल व्यक्तिगत अन्याय की कहानियां कवर करता है, बल्कि भारतीय समाज के वंचित वर्गों से जुड़े नीति-विवादों पर भी ध्यान केंद्रित करता है।
"हम समानता के लिए लड़ रहे हैं," कोटवाल कहती हैं। "हम अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। हम चाहते हैं कि हमें भी वैसे ही नागरिक माना जाए जैसा आपको माना जाता है।"
पिछले कुछ वर्षों में, द मूकनायक को अपनी पत्रकारिता के लिए कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं, जिनमें 2022 में ह्यूमन राइट्स एंड रिलीजियस फ्रीडम जर्नलिज्म अवार्ड्स में बेस्ट मीडिया ऑर्गेनाइजेशन का पुरस्कार शामिल है। लेकिन इस प्लेटफॉर्म का सफर आसान नहीं रहा है। कोटवाल बताती हैं कि उन्हें लगातार ऑनलाइन गालियां दी जाती हैं। इस बदनामी अभियान के कारण, वह कहती हैं, प्लेटफॉर्म के मुख्य फंडिंग स्रोत – जनसहयोग से मिलने वाले दान – में भारी गिरावट आई है।
बीते कुछ महीनों में, कोटवाल को अपनी संपादकीय टीम 20 से घटाकर 6 करनी पड़ी है। अब, उन्हें न केवल अपनी बेटी की सुरक्षा की चिंता है, बल्कि द मूकनायक के भविष्य की भी चिंता है।
वह कहती हैं, "मुझे नहीं पता कि हम इस तरह कब तक चल पाएंगे।"
नई दिल्ली के शोर-शराबे से दूर, एक पतली गली मुझे पुष्पा भवन शॉपिंग कॉम्प्लेक्स तक ले जाती है, जो द मूकनायक के ऑफिस का ठिकाना है। यह परिसर भारत के विरोधाभासों को दर्शाता है – यहां पुराने, धूमिल होते भवन भी हैं और ताजगी से रंगे हुए नए भवन भी। कुछ गाड़ियां धूल से ढकी हैं, तो कुछ अभी-अभी धुली हुई। कपड़े अस्थायी कपड़े सुखाने की रस्सियों पर लटक रहे हैं, जिनके बीच निजी कंपनियों के ऑफिस भी हैं। खिड़कियों के पैनलों के साथ लिपटी बिजली की तारें, जिनमें से कुछ शीशे गायब हैं और कुछ टूटे हुए।
मैं परिसर में खड़ी होकर द मूकनायक के ऑफिस को खोज रही हूं, और तभी पेड़ों की छांव के बीच, ऊपर उसकी पहचान दिखती है। एक बोर्ड पर सफेद अक्षरों में लिखा है, “The Mooknayak,” और नीले बैकग्राउंड पर पेन की निब का चित्र बना है। इसके साथ हिंदी में लिखा है – "आवाज़ आपकी।" बोर्ड का एक सिरा अपनी जगह से निकल चुका है और यह केवल एक पेंच के सहारे लटका हुआ है।
मूकनायक, एक हिंदी शब्द, का अर्थ है "मूक लोगों का नेता।" कोटवाल ने अपने प्लेटफॉर्म का नाम इस शब्द के पीछे की ऐतिहासिक विरासत से प्रेरित होकर रखा। यह नाम एक सदी पुराने उसी नाम के प्रकाशन से लिया गया है, जिसे जनवरी 1920 में शुरू किया गया था। उस समय, इसका उद्देश्य भारत के "अछूत" समुदाय की समस्याओं को आवाज देना था। वह मूकनायक एक पखवाड़े में छपने वाला अखबार था, जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर ने शुरू किया था। अंबेडकर स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री, भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार और उपनिवेश काल के दौरान दलित अधिकारों और सामाजिक पहचान के लिए हुए इकलौते स्वतंत्र संघर्ष के नेता के रूप में जाने जाते हैं।
सन् 1869 से 1943 के बीच, दलितों ने 40 से अधिक पत्रिकाएं प्रकाशित कीं, जो जाति आधारित उत्पीड़न का विरोध करती थीं, दलितों की शिक्षा के लिए प्रोत्साहन देती थीं और सरकारी नौकरियों में दलितों के प्रतिनिधित्व की मांग करती थीं। जब भारत ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, तब इन प्रकाशनों ने राष्ट्रीय संवाद में दलितों की आवाज के लिए जगह बनाई।
भारत की स्वतंत्रता के बाद, 1947 में, कई छोटे साप्ताहिक अखबार, पुस्तिकाएं और अन्य मुद्रित माध्यम शुरू किए गए, जो दलित समुदाय के अधिकारों की वकालत करते थे। दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में सहायक प्रोफेसर हरीश वानखड़े के अनुसार, ऐसा इसलिए था क्योंकि मुख्यधारा की मीडिया वंचित सामाजिक समूहों की राजनीतिक और सामाजिक जरूरतों को नजरअंदाज करती थी। वानखड़े कहते हैं, "इन समूहों ने अपने अखबार प्रकाशित किए ताकि गरीब जनता को शिक्षित किया जा सके और शासक वर्ग के साथ एक जागरूक संवाद स्थापित किया जा सके।"
दलित दस्तक के संस्थापक और संपादक अशोक कुमार का कहना है पहले दलित पत्रिका के प्रकाशन को 150 से अधिक साल हो चुके हैं, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में दलितों का मजबूत प्रतिनिधित्व अब भी नहीं है. दलित दस्तक एक अन्य वेबसाइट और यूट्यूब चैनल है जो वंचित समुदायों, विशेष रूप से दलितों से जुड़े मुद्दों को कवर करता है। शायद इसी के जवाब में, पिछले 15 वर्षों में भारत में दलितों द्वारा और उनके लिए इंटरनेट आधारित पत्रकारिता की एक नई लहर उभरी है। कुछ प्रमुख समाचार वेबसाइटें उभरी हैं, जिनमें राउंड टेबल इंडिया, वेलिवाड़ा, और द दलित वॉइस शामिल हैं। इसके अलावा, यूट्यूब आधारित समाचार चैनल जैसे दलित कैमरा और द वॉइस मीडिया भी सक्रिय हो गए हैं।
नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम्स के समाजशास्त्री और प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं कि मुख्यधारा के प्रकाशनों के विपरीत, ये नए प्लेटफॉर्म दलित समुदाय के मुद्दों को उजागर करते हैं और दलितों को अपनी बात रखने का मौका देते हैं।
कुमार कहते हैं, "इन मीडिया प्लेटफॉर्म्स की उपस्थिति से मुख्यधारा की मीडिया पर दबाव बनता है। और जो चीज़ें दलित मीडिया में वायरल हो रही हैं, उन पर अब मुख्यधारा की मीडिया भी ध्यान देने के लिए मजबूर है।" इसका उदाहरण देते हुए वे 2016 में दलित शोध छात्र रोहित वेमुला के मामले का ज़िक्र करते हैं, जिन्होंने अपनी यूनिवर्सिटी में जाति आधारित दुर्व्यवहार का सामना करने के बाद आत्महत्या कर ली थी। उनकी मौत ने पूरे देश में विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया। "रोहित वेमुला का मामला सबसे पहले [दलित मीडिया] ने उठाया। इसके बाद यह एक बड़ा आंदोलन बन गया।"
दलित दस्तक के संपादक अशोक कुमार कहते हैं कि मुख्यधारा के भारतीय मीडिया में विविधता की कमी के कारण दलित मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जाता, क्योंकि ये मीडिया हाउस के मालिकों, संपादकों और पत्रकारों की प्राथमिकता नहीं होते। "क्योंकि उनकी पहचान अलग है। क्योंकि वे कभी वह दर्द और अपमान महसूस नहीं कर सकते, जो एक दलित और [आदिवासी] हर दिन महसूस करते हैं," अशोक कुमार कहते हैं। "दलित दस्तक इन मुद्दों पर बात करता है। क्योंकि यह हमारा मुद्दा है। यह हमारा दर्द है। यही कारण है कि हम दूसरों से अलग हैं। और यही कारण है कि हमारी ज़रूरत है।"
इंटरनेट आधारित दलित मीडिया, जिसमें द मूकनायक भी शामिल है, के बारे में वानखड़े कहते हैं कि ये अक्सर निडर होते हैं और वंचित समूहों के हितों को आगे बढ़ाते हैं। हालांकि, ये पारंपरिक मीडिया के सामने काफी पिछड़ जाते हैं। वानखड़े कहते हैं, "एक राष्ट्रीय समाचार चैनल चलाने के लिए भारी फंड, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, कुशल तकनीशियनों और प्रभावशाली लोगों के साथ नेटवर्क की आवश्यकता होती है। इन सभी मामलों में दलितों की स्थिति कमजोर है।"
इसकी झलक उसी दिन मिली, जब मैं कोटवाल से मिली। उनके पति राजा मुझे द मूकनायक के दूसरे मंजिल स्थित कार्यालय तक ले गए। सीढ़ियां मंद रोशनी में डूबी हुई थीं। राजा ने लोहे के शटर के नीचे लगा ताला खोला और उसे परदे की तरह ऊपर उठाया। वह काम का दिन था, और न्यूज़रूम में आधा दर्जन से अधिक कुर्सियां खाली पड़ी थीं, स्टाफ पत्रकारों का इंतजार करती हुईं। लेकिन कोई नहीं आने वाला था।
कोटवाल के कार्यालय की दीवारें पुरस्कारों और प्रशंसा के स्मृति-चिन्हों से सजी हुई हैं। मई 2022 का एक प्रमाणपत्र कहता है: "उत्तर अमेरिका का अम्बेडकर एसोसिएशन डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के दृष्टिकोण के अनुसार वंचितों के सामाजिक मुद्दों पर आवाज उठाने और जागरूकता फैलाने के आपके असाधारण कार्य के लिए आपको सम्मानित करता है।"
यह सम्मान उस समय मिला जब कोटवाल ने द मूकनायक के लिए अपनी सबसे महत्वपूर्ण रिपोर्टों में से एक को कवर किया। यह 2021 में एक बरसात के दिन की घटना थी, जब दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के पुराने नांगल गांव के श्मशान घाट में एक 9 वर्षीय दलित बच्ची रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाई गई। बच्ची ने अपने माता-पिता से कहा था कि वह श्मशान घाट में रखे कूलर से पानी लेने जा रही है। एक घंटे से भी कम समय में श्मशान घाट के पुजारी और कुछ अन्य लोगों ने बच्ची की मां को बुलाया और उसे उसकी बेटी के शव के पास ले गए। उन्होंने दावा किया कि बच्ची की मौत कूलर से पानी लेते समय करंट लगने से हुई है।
उन लोगों ने यह कहकर कि पुलिस शव परीक्षण करेगी और फिर उसके अंग चुरा कर बेच देगी, बच्ची का शव तुरंत जलाने पर जोर दिया। भीख मांगकर जीविकोपार्जन करने वाले इस परिवार ने , इस स्पष्टीकरण पर संदेह करते हुए विरोध किया। लगभग 150 गांववाले एकत्र हुए और चिता पर पानी डाल दिया, लेकिन वे केवल बच्ची की जली हुई टांगें ही निकाल पाए।
कोटवाल कहती हैं, "पहले दिन मैंने बच्ची की टांगें देखीं। वे इतनी छोटी थीं क्योंकि उन्होंने पूरे शरीर को जला दिया था, और जब लोग शव को बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे, तो टांगें बिखर गई थीं।" कोटवाल आगे कहती हैं, "और मैं उस तस्वीर को अपने दिमाग से हटा नहीं पाई। मैं भी एक मां हूँ । मेरी बेटी भी छोटी है।"
द मूकनायक ने इस घटना को कवर करने वाला पहला मीडिया संगठन होने का गौरव हासिल किया। कोटवाल ने गांव से लगातार पंद्रह दिनों तक रिपोर्टिंग की, हर दिन चार से छह वीडियो पोस्ट किए, लिखित रिपोर्ट तैयार की और दर्जनों सोशल मीडिया पोस्ट साझा किए। उनकी कवरेज ने हजारों लोगों का ध्यान आकर्षित किया। यह मामला मुख्यधारा के मीडिया तक पहुंचा, और विभिन्न मीडिया आउटलेट्स के पत्रकारों ने इस पर रिपोर्टिंग शुरू की। जैसे-जैसे मीडिया कवरेज बढ़ी, तत्कालीन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने गांव का दौरा किया। पुलिस ने बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और फिर उसे जिंदा जलाने के आरोप में श्मशान घाट के पुजारी और तीन अन्य कर्मचारियों को गिरफ्तार किया।
इस मामले की रिपोर्टिंग करते समय कोटवाल ने बच्ची की दलित पहचान पर विशेष जोर दिया। अपने एक वीडियो रिपोर्ट में, वे एक सामाजिक कार्यकर्ता से यह बहस करते हुए नजर आती हैं कि पीड़िता की जाति का उल्लेख क्यों महत्वपूर्ण है और यह कैसे अपराधियों को प्रेरित कर सकता है।
कोटवाल कहती हैं, "वह दलित थी, भिखारिन थी। बलात्कारियों के लिए उसका रेप करना आसान था। इस अपराध से पंद्रह दिन पहले पुजारी के घर में एक शादी थी। अगर शादी थी, तो वहां हर उम्र की महिलाएं रही होंगी। तब ऐसा क्यों नहीं हुआ? वह लड़की क्यों? क्योंकि उन्हें पता था कि वह नौ साल की बच्ची क्या थी। उन्हें पता था कि कोई उसकी बात पुलिस स्टेशन में नहीं सुनेगा, क्योंकि वह भिखारिन थी, दलित थी। हर महिला की एक जाति होती है — और जब आपके साथ ऐसा होता है, तो यह आपकी जाति की वजह से होता है।"
द मूकनायक ने 2021 में अपने आरंभ के बाद से दर्जनों ऐसी कहानियां प्रकाशित की हैं, जो भारत के हाशिए पर पड़े समुदायों की जिंदगी में बदलाव लाया। फरवरी 2022 में, उसने उत्तर प्रदेश के एक दलित बहुल इलाके पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जो अब तक बिजली से वंचित था। रिपोर्ट प्रकाशित होने के एक दिन बाद, संबंधित अधिकारियों ने इस पर ध्यान दिया और "प्राथमिकता के आधार पर" उस क्षेत्र का विद्युतीकरण करने की घोषणा की।
द मूकनायक का प्राथमिक उद्देश्य दर्शकों की संख्या बढ़ाना नहीं, बल्कि सामाजिक प्रभाव पैदा करना है। नवंबर 2022 में, इस ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के डिप्टी एडिटर अंकित पचौरी ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें मध्य प्रदेश सरकार द्वारा दलित युवाओं के लिए व्यवसाय शुरू करने हेतु दिए जाने वाले $4.5 मिलियन (लगभग ₹37 करोड़) के फंड को जारी न करने का मामला उजागर किया। इस फंड का उद्देश्य दलित समुदाय के युवाओं को आर्थिक सशक्तिकरण के लिए ऋण प्रदान करना था। पचौरी की रिपोर्टों की श्रृंखला ने सरकार को फंड जारी करने के लिए बाध्य किया।
मई 2024 में, द मूकनायक ने मध्य प्रदेश में हजारों आदिवासी खदान श्रमिकों की दुर्दशा पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जो फेफड़ों की बीमारियों का इलाज करवाने में असमर्थ थे। इस रिपोर्ट के बाद, कुछ राजनेताओं ने कहानी में उद्धृत एक श्रमिक को वित्तीय सहायता दी और अन्य प्रभावित श्रमिकों के लिए राज्य से मदद का वादा किया।
द मूकनायक व्यक्तिगत अन्याय की कहानियों को उजागर करने में भी सक्रिय रहा है। उदाहरण के लिए, जब उसने एक बेघर महिला की कहानी प्रकाशित की, जो आवश्यक दस्तावेजों के अभाव में सरकारी सहायता प्राप्त नहीं कर पा रही थी, तो अधिकारियों ने तुरंत उसकी स्थिति को ठीक किया। इसी तरह, एक 13 वर्षीय मुस्लिम लड़के की कहानी प्रकाशित होने के बाद, जिसे एक हिंदू मंदिर में प्रवेश करने के कारण पीटा गया था, एक क्राउडफंडिंग अभियान के माध्यम से उसके शिक्षा के लिए लगभग $6,000 जुटाए गए।
कोटवाल कहती हैं, “हम व्यूअरशिप के लिए काम नहीं कर रहे हैं, बल्कि असर के लिए काम कर रहे हैं। हमें पता है कि यह लंबी लड़ाई है।”
बचपन में दिल्ली के दलितों और मुसलमानों से आबाद एक मोहल्ले में पलने बढ़ने के दौरान, कोटवाल को यह समझ में नहीं आया कि वह एक बहिष्कृत समूह से ताल्लुक रखती हैं। उनके माता-पिता मजदूरों के रूप में काम करते थे, उनका स्कूल जर्जर था, और परिवार छुट्टियों में कभी नहीं जाता था, लेकिन पांच बच्चों को कभी दो वक्त का खाना नहीं मिलता था, और न ही उन्हें यह एहसास था कि वे सम्पन्न नहीं थे। अपने एक दोस्त के विपरीत, कोटवाल ने कभी अपनी दलित पहचान छिपाई नहीं, हालांकि उनके पिता ने उनका नाम स्कूल में सिर्फ "मीना" के रूप में पंजीकरण कराया था। उपनाम डालने से उनकी सामाजिक स्थिति का पता चल सकता था।
यशिका दत्त, जो न्यूयॉर्क में स्थित एक भारतीय पत्रकार और Coming Out as Dalit की लेखिका हैं, ने भारतीय समाचार पत्रों में काम करते हुए एक दशक तक अपनी दलित पहचान को छिपाए रखा। वे कहती हैं कि वे दलितों के उन समुदायों से हैं, जो मैन्युअल स्कैवेंजरिंग करते हैं, और यह समुदाय "अछूतों" के पिरामिड के सबसे नीचे आता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दलितों का 97 प्रतिशत हिस्सा मैन्युअल स्कैवेंजर हैं, जो मानव अपशिष्ट को साफ करते हैं, उठाते हैं और नष्ट करते हैं।
दत्त कहती हैं, "डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने इसे जाति व्यवस्था के भीतर एक गिरती हुई तिरस्कार की श्रेणी के रूप में बताया है। जितना नीचे जाएंगे, उतना अधिक तिरस्कार, उतनी अधिक घृणा, और उतना अधिक अछूतपन।" वे कहती हैं, "अगर हमें जाति आधारित श्रम के इस चक्र से बाहर निकलना था, तो इसे छिपाने का एकमात्र तरीका यही था।"
कोटवाल के माता-पिता कभी भी बच्चों को पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं करते थे, लेकिन कोटवाल बाकी भाई-बहनों से अलग एक समर्पित छात्रा थीं। उन्होंने दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से mass media में अपनी ग्रेजुएशन की, जहाँ उनकी मुलाकात उनके भावी पति राजा से हुई। 2014 में, उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान से रेडियो और टेलीविजन पत्रकारिता में पोस्ट-ग्रेजुएट डिप्लोमा किया।
ग्रेजुएशन के बाद, कोटवाल ने अशोक कुमार के नेशनल दस्तक नामक ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल में कुछ महीनों तक काम किया। उन्हें हमेशा मुख्यधारा के समाचार प्लेटफार्मों में काम करने का सपना था, और उन्होंने कई नौकरियों के लिए आवेदन किया, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि उनकी दलित पहचान एक रुकावट बन गई थी। जबकि कई संगठन विविधता और समावेशन का दावा करते हैं और जाति-विशेष पृष्ठभूमि से पत्रकारों को भर्ती करने के लिए कहते हैं, ऐसे आवेदकों को शायद ही कभी नौकरी दी जाती है।
2022 में ओक्सफैम द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत के हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों में दलितों और आदिवासियों द्वारा लिखी जाने वाली खबरें 5 प्रतिशत से भी कम हैं। वहीं, समाचार वेबसाइटों पर उच्च जाति के पत्रकारों द्वारा लिखे गए बाइलाइन लेखों की संख्या लगभग 72 प्रतिशत है।
मुख्यधारा के प्रेस में अपने सीमित अवसरों से निराश होकर, कोटवाल ने पत्रकारिता छोड़कर दर्शनशास्त्र में अपनी मास्टर डिग्री करने का निर्णय लिया। अपनी पढ़ाई के अंतिम चरण में, 2017 में, उन्हें BBC हिंदी में एक पोस्ट (ओपनिंग) की जानकारी मिली । उनके दोस्तों, जिसमें राजा भी शामिल थे, ने यह कहते हुए कि बीबीसी में जातिवादी भेदभाव नहीं होगा, उन्हें आवेदन करने के लिए प्रेरित किया। कोटवाल ने नौकरी के लिए आवेदन किया और यह जानकर हैरान रह गई कि उन्हें नौकरी मिल गई।
कोटवाल ने सितंबर 2017 में बीबीसी जॉइन किया, और शुरुआती प्रशिक्षण के बाद, वह मुख्य रूप से हिंदी और अंग्रेजी कहानियों का अनुवाद करने का काम करती रही। यह उनका मुख्य कार्य था और वह नौ महीने तक यही काम करती रहीं, जबकि अन्य लोग विभिन्न रिपोर्टिंग असाइनमेंट्स पर काम कर रहे थे। इस दौरान, एक सीनियर संपादक ने कथित तौर पर उनसे उनकी जाति के बारे में पूछा।
कोटवाल ने इस पर नेतृत्व से मौखिक शिकायतें की, लेकिन समाधान का वादा देने के अलावा कुछ भी नहीं बदला। धीरे-धीरे, वह बीमार होने लगीं, वजन घटने लगा, और डिप्रेशन का शिकार हो गईं। मार्च 2019 में, उन्हें बताया गया कि उनका अनुबंध तीन महीने में समाप्त हो जाएगा।
राजेश जोशी, जो पहले बीबीसी में थे और कोटवाल के मेंटर के रूप में नियुक्त किए गए थे, कहते हैं कि संगठन में उनके खिलाफ एक "फुसफुसाहट अभियान" चलाया गया था। वे कहते हैं कि उनके सहयोगी उनकी पत्रकारिता पर टिप्पणी यह कहते हुए करते थे कि मीना की अंग्रेजी और अनुवाद कौशल कमजोर था। जोशी कहते हैं, "वह किसी तरह से अलग-थलग महसूस कर रही थीं। और मुझे लगता है जाति ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जाहिर है, ये बातें सीधे तौर पर नहीं होतीं। कोई यह नहीं कहेगा कि [क्योंकि] तुम दलित जाति से हो, इसलिए तुम्हारे साथ भेदभाव हो रहा है। ऐसा नहीं होता। यह बहुत ही सूक्ष्म तरीके से होता है।"
कोटवाल ने बीबीसी में जातिवादी भेदभाव के खिलाफ एक आंतरिक शिकायत दायर की। उन्होंने कहा कि उन्हें बहुत सी खबरों पर काम करने की अनुमति नहीं दी गई क्योंकि उन्हें कहा गया था कि "वह इन खबरों को करने के लिए सक्षम नहीं हैं" । उन्होंने यह भी कहा कि उनके वरिष्ठों को उनके दलित पृष्ठभूमि के बारे में पता था; इस आरोप को सही ठहराने के लिए उन्होंने अपने एक संपादक से एक हिंदी में भेजे गए संदेश का उल्लेख किया। आंतरिक जांच ने कोटवाल के "जातिवादी भेदभाव के आरोपों को merit या substance के आधार पर शिकायत को नहीं माना।" बीबीसी के एक प्रवक्ता ने कहा कि कोटवाल एक निश्चित अवधि के अनुबंध पर थीं, जो समाप्त हो गया था। "बीबीसी एक विविध संगठन है और हम यह सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं कि हम सभी को अवसर प्रदान करें, चाहे उनका पृष्ठभूमि कुछ भी हो," प्रवक्ता ने एक ईमेल बयान में कहा।

यह घटना कोटवाल के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई, जिन्होंने अपनी अनुभवों के बारे में फेसबुक पर पोस्ट किया। उनकी पोस्ट्स के जवाबों में उन्हें पागल कहा गया और यह कहा गया कि वह विक्टिम कार्ड खेल रही हैं, जो बाद में उन्हें ऑनलाइन ट्रोल करने का कारण भी बना. मीना ने कहा कि उन्होंने कई मीडिया संगठनों से संपर्क किया, लेकिन "उन्होंने कहा, 'हमें परेशानी पैदा करने वालों से नफरत है।'
उस वर्ष अप्रैल में, मीना और राजा ने शादी की। उनकी शादी का भी विरोध हुआ। राजा कहते हैं, "मेरे परिवार ने शुरुआत में सहमति नहीं दी, न ही मीना के परिवार ने।" यह विरोध पितृसत्ता और जातिवाद दोनों में निहित था — पितृसत्ता क्योंकि एक महिला अपनी पसंद के पुरुष से शादी कर रही थी, और यह उसके माता-पिता द्वारा तय नहीं किया गया था; जातिवाद क्योंकि राजा उच्च जाति से थे, जबकि मीना दलित थीं। राजा कहते हैं, "उन्होंने कहा, 'तुम कैसे एक नीच जाति से शादी कर सकते हो?' लेकिन हम दृढ़ थे कि अगर हम शादी करेंगे, तो केवल एक-दूसरे से ही करेंगे।"
शादी के बाद, जबकि राजा एक प्रमुख न्यूज चैनल में कार्यरत थे, कोटवाल एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम करने लगीं, वे बिहार में अपने ससुराल से रिपोर्टिंग करती थीं। यहां, उन्हें अपना भोजन या आवास का खर्च नहीं उठाना पड़ता था, और वह विभिन्न मीडिया आउटलेट्स को मुफ्त में स्टोरीज देती थीं।
कोटवाल कहती हैं- "मुझे खुद को साबित करना था. "बीबीसी पर मेरी फेसबुक सीरीज़ पढ़ने के बाद, लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मैं दलित कार्ड, महिला कार्ड, पीड़िता कार्ड खेल रही हूं। मैं यह साबित करना चाहती थी कि मुझे अपना काम आता है। इसलिए, मैंने कई लोगों के साथ बिना पारिश्रमिक काम किया।"
उस समय, कोटवाल ने बिहार में दलितों के डोम समुदाय के खिलाफ जातिवादी भेदभाव की कई कहानियां कवर कीं। उन्होंने रिपोर्ट किया कि कैसे इस समुदाय के बच्चों को स्कूल में अलग से बैठने के लिए मजबूर किया जाता था, उन्हें पानी के पात्र को छूने की अनुमति नहीं थी क्योंकि यह मानते थे कि वे इसे अपवित्र कर देंगे, और कुछ बच्चे स्कूल छोड़ने तक को मजबूर हो जाते थे क्योंकि उन्हें डांट और भेदभाव का सामना करना पड़ता था, जिससे उनके भविष्य को खतरा था। उन्होंने इन मुद्दों पर अपनी गर्भावस्था के दौरान और मई 2020 में अपनी बेटी धरा के जन्म के बाद भी रिपोर्टिंग जारी रखी.
करीब दो साल के दौरान, जैसे-जैसे कोटवाल ने सोशल मीडिया पर एक फॉलोइंग बनाई, उन्हें जाति और लिंग पर केंद्रितअपना खुद का प्लेटफॉर्म शुरू करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने यह तय किया कि वह उन लोगों की कहानियां कवर करेंगी जो हाशिए पर हैं, चाहे वे दलित, आदिवासी, मुस्लिम हों या कोई और जो सिस्टम से परेशान हो, इसमें ऊंची जातियां भी शामिल हैं। जनवरी 2021 में, उन्होंने अपनी सारी बचत — लगभग 1,782 डॉलर — का निवेश किया और "द मूकनायक" की शुरुआत की।
कुछ ही हफ्तों में, कोटवाल ने एक रिपोर्टर और एक संपादक को नियुक्त किया, प्लेटफॉर्म, हालांकि ऑनलाइन फॉलोइंग बना रहा था, लेकिन किसी आय स्रोत से वंचित था। इसका यूट्यूब चैनल मोनेटाइज नहीं हो सका, लेकिन इसकी पत्रकारिता भारतभर में लोगों के लिए मूल्यवान साबित हो रही थी। जब इस आउटलेट ने दक्षिण पश्चिम दिल्ली में 9 वर्षीय दलित लड़की के कथित बलात्कार और हत्या पर रिपोर्ट की, तो दलित समुदाय के कई लोग यह पूछने लगे कि वे "द मूकनायक" को कैसे समर्थन दे सकते हैं। कोटवाल ने वेबसाइट पर एक “हमारी मदद करें” पेज बनाया, और समुदाय के भीतर से रिक्शा चालक, स्ट्रीट वेंडर्स, और मजदूरों सहित लोगों से डोनेशन आना शुरू हो गया।
राजा कहते हैं कि एक पति और पत्नी, जो दोनों दिहाड़ी मजदूर थे, ने एक वीडियो भेजा, जिसमें उन्होंने बताया कि वे "द मूकनायक" को तीन दिनों की अपनी मजदूरी — लगभग 36 डॉलर — क्यों दान कर रहे थे: "क्योंकि आपने हमारे मुद्दे उठाए हैं, कोई और ऐसा नहीं करता।" राजा कहते हैं, दान देने वाले लोग अक्सर भारतीय समाज के सबसे गरीब वर्गों से होते हैं, जो कभी-कभी दस रूपये तक दान करते हैं ।
नवंबर 2021 से अक्टूबर 2022 के बीच, इस प्लेटफॉर्म ने पूरे देश से सैकड़ों लोगों से ऑनलाइन दान के जरिए 12,500 डॉलर से अधिक जुटाए — यह राशि कोटवाल को विभिन्न राज्यों और संवेदनशील समूहों से रिपोर्टर नियुक्त करने में सक्षम बनाती थी। उनकी प्रारंभिक टीम, जिसमें खुद कोटवाल भी शामिल थीं, धीरे-धीरे बढ़कर 20 हो गई। शुरुआत में, उनके सभी दानकर्ता दलित थे। हालांकि, जैसे-जैसे उनकी कवरेज बढ़ी, मुस्लिम और आदिवासी समुदायों जैसे अन्य हाशिए पर रहने वाले समूहों ने भी प्लेटफार्म को डोनेशन देना शुरू किया।
2021 से "द मूकनायक" के साथ काम कर रहे डिप्टी एडिटर पचौरी कहते हैं, "द मूकनायक" विज्ञापन नहीं बेचता और राजनीतिक पार्टियों से पैसा नहीं लेता, ताकि अपनी संपादकीय स्वतंत्रता बनाए रख सके। सब कुछ क्राउडफंडिंग और चैरिटी के आधार पर काम करता है, हम उन लोगों पर निर्भर हैं जो मानते हैं कि दलितों और आदिवासियों के मुद्दों को उठाया जाना चाहिए।"
कोटवाल के दफ्तर से लगभग 500 मील दूर उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में, 20 बच्चों का एक समूह एक गुलाबी पोस्टर लिए खड़ा था। उस पर लिखा था, "धन्यवाद द मूकनायक," और शब्दों के पास एक मुस्कुराता हुआ चेहरा था।

इन बच्चों का आभार राजन चौधरी के लिए था, जो "द मूकनायक" के पत्रकार हैं, जिन्होंने यह पाया कि उनके सरकारी स्कूल में दो महीने से जरूरतमंद बच्चों को मिड-डे मील नहीं दिए गए थे, जबकि भारतीय सरकार के तहत यह कार्यक्रम अनिवार्य है। एक कुक ने "द मूकनायक" को बताया कि उसे बच्चों को दिए जाने वाले दूध को "पतला" करने के लिए मजबूर किया गया था। यह जांच, जो सितंबर 2022 में प्रकाशित हुई, वायरल हो गई।
चौधरी कहते हैं, "लोगों ने स्कूल प्रशासन पर सवाल उठाना शुरू किया। उन्होंने सरकार से भी सवाल किया।"
गरीब बच्चों की शिक्षा पर केंद्रित एक गैर-लाभकारी संगठन "मोमा फॉर डॉटर्स" की संस्थापक गरिमा चौधरी से राजन चौधरी को इस गड़बड़ी के बारे में पता चला. उन्होंने इस मुद्दे के बारे में अपने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था, और वह कहती हैं कि स्कूल प्रशासन उन्हें वीडियो हटाने का दबाव बना रहा था। वह इस कहानी के साथ राजन चौधरी के पास पहुंची, और "रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद, न केवल उस स्कूल में, बल्कि इस क्षेत्र के सभी स्कूलों में बच्चों को उचित भोजन दिया जाने लगा" (इस क्षेत्र में लगभग 16 स्कूल हैं)।
"द मूकनायक" और उसके रिपोर्टर्स ने अपनी रिपोर्टिंग के लिए कई पुरस्कार जीते हैं, जिसमें लाडली मीडिया अवार्ड फॉर जेंडर सेंसिटिविटी और सामाजिक समानता पर काम करने वाले दो संगठनों द्वारा "डायवर्सिटी वुमन ऑफ द ईयर" अवार्ड शामिल हैं। 2022 में, "द मूकनायक" ने मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता पत्रकारिता पुरस्कार (HRRFJ) में बेस्ट मीडिया ऑर्गनाइजेशन का अवार्ड भी जीता। यह आउटलेट अन्य प्रमुख भारतीय समाचार प्लेटफार्मों जैसे Scroll और Newslaundry के साथ शॉर्टलिस्ट हुआ था, और यह पुरस्कार Article 14 के साथ संयुक्त रूप से जीता।
कोटवाल अपनी डेस्क पर HRRFJ पुरस्कार को दिखाते हुए कहती हैं , "राजा और मैं बेहद खुश थे जब हमें यह अवार्ड मिला क्योंकि इसके लिए कई प्रमुख मीडिया संगठनों ने आवेदन किया था। हम इतने खुश थे कि चिल्ला रहे थे। ऐसा लगा जैसे हम आखिरकार दौड़ में आ गए हैं, अब हम मुख्यधारा की प्रकाशन संस्थाओं के बराबर हो गए हैं।"
हालांकि, कोटवाल को यह एहसास नहीं था कि वह एक बड़े झटके का सामना करने वाली थीं – जैसा कि "द मूकनायक" की लोकप्रियता बढ़ी, वैसे ही द्वेष, ईर्ष्या और फिर आर्थिक समस्याएं भी बढ़ने लगीं।
हमसे मिलने के तीन दिन पहले, कोटवाल ने एक अदालत की सुनवाई में भाग लिया, जो उन्होंने अक्टूबर 2021 में एक X उपयोगकर्ता के खिलाफ दायर की थी। इस व्यक्ति ने कोटवाल और उनके परिवार के खिलाफ X पर जातिवादी टिप्पणी की थी और फिर प्रत्यक्ष संदेशों के माध्यम से धमकी दी थी कि यदि उन्होंने पुलिस में शिकायत की तो वह आत्महत्या कर लेंगे। एक और ट्वीट में लिखा था: "यह मूर्ख लोग दिन भर ब्राह्मणों की गालियां देते रहते हैं; क्या ये टॉयलेट साफ करने वाले लोग, अब इतने ताकतवर हो गए हैं? हिंदू एकता भाड़ में जाए, इन्हें तुरंत मार डालो।"
पुलिस ने जातिवाद आधारित अपमान के खिलाफ 1989 कानून के तहत मामला दर्ज किया था; हालांकि, कोटवाल के शिकायत दायर किए तीन साल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। पुलिस द्वारा आरोपी को ढूंढने में असमर्थता का हवाला देते हुए, जज ने कथित तौर पर कोटवाल से कहा कि वह अपनी शिकायत वापस ले लें। "मैं इस मामले को वापस नहीं लूंगी," वह कहती हैं। "अगर यह किसी वीआईपी का मामला होता, तो आरोपी को तुरंत ढूंढ लिया जाता।"
इसी तरह, कोटवाल की दूसरी पुलिस शिकायत में भी कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है, जो उन्होंने 20 अज्ञात पुरुषों से प्राप्त फोन और वीडियो धमकियों के बारे में की थी, जब उन्होंने "मनुस्मृति" के एक पन्ने को जलाया था. मनुस्मृति एक प्राचीन हिंदू ग्रंथ है, जो महिलाओं और दलितों को समाज के सबसे निचले स्तर पर रखता है। संयुक्त राष्ट्र ने भारतीय सरकार से इस मामले पर जवाब मांगा था। यू.एन. ने नोट किया था कि यह "कोटवाल की जीवन और शारीरिक अखंडता के खिलाफ की गई धमकियों को लेकर गहरी चिंता" का कारण है। इसमें यह भी कहा गया था कि ये धमकियां "कोटवाल के अपने विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने के प्रतिशोध में हैं" और इसने "महिला पत्रकारों, मानवाधिकार रक्षकों, राजनेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए ऑनलाइन माहौल को गंभीर रूप से चिंताजनक" बताया। हालांकि, धमकियां और उत्पीड़न लगातार जारी रहे।
पिछले साल अप्रैल में, कोटवाल अमेरिका यात्रा पर गई थीं, जहां हार्वर्ड और कोलंबिया जैसी विश्वविद्यालयों से उन्हें निमंत्रण मिला था। उत्साहित मीना ने 4 अप्रैल 2023 को अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर पोस्ट किया, “एक दलित मजदूर की बेटी कोलंबिया विश्वविद्यालय में मीडिया और विविधता पर अपना भाषण देने आई है।” इसके बाद, जैसा कि राजा बताते हैं, एक ट्रोलिंग और ऑनलाइन उत्पीड़न का अभियान शुरू हो गया, जिसमें कोटवाल की दलित पहचान पर सवाल उठाए गए, यह पूछा गया कि उन्होंने एक उच्च जाति के व्यक्ति से विवाह क्यों किया, और कैसे वह अपनी प्रकाशन संस्था का नाम "द मूकनायक" रख सकती हैं, जबकि यह नाम आंबेडकर के पत्रिका का था।
"जैसे ही हम अमेरिका से लौटे, उन्होंने ट्रोलिंग शुरू कर दी," राजा कहते हैं। "और धीरे-धीरे, हमारा क्राउडफंडिंग पूरी तरह से बंद हो गया।"
इस ट्रोलिंग के पीछे दलित समुदाय के एक प्रमुख उपसमूह के सदस्य थे, जिन्होंने कोटवाल की जाति स्थिति पर संदेह पैदा कर दिया, जिससे द मूकनायक के दाताओं को यह विश्वास हो गया कि वह अपनी जाति के बारे में झूठ बोल रही हैं। मई 2023 में कोटवाल ने अपनी जाति प्रमाणपत्र ऑनलाइन साझा कर इन आरोपों को नकारा, लेकिन फिर भी फंडिंग में गिरावट आई।
पिछले साल के दौरान, द मूकनायक को अपनी वित्तीय स्थिति को संभालने में संघर्ष करना पड़ा। क्राउडफंडिंग ही इसका मुख्य वित्तीय स्रोत था, और राजा के अनुसार, ऑनलाइन उत्पीड़न ने इसके वित्तीय आधार को भारी झटका दिया। अब, संगठन नए दाताओं की तलाश में है।
दलित पत्रकार सुदीप्तो मंडल कहते हैं- द मूकनायक का संघर्ष भारत में दलित पत्रकारिता की स्थिति का प्रतीक है कुछ नए मीडिया आउटलेट्स उभरे हैं, जिनमें द मूकनायक भी है। लेकिन जिस तरीके से ये अस्तित्व में हैं, यह इनके हाशिए पर होने का प्रमाण है क्योंकि ये पूरी तरह से संघर्ष कर रहे हैं।"
कई मायनों में, कोटवाल के लिए जीवन एक चक्र पूरा कर चुका है। हालांकि वह अब एक पुरस्कार विजेता समाचार प्लेटफॉर्म का नेतृत्व करती हैं, उनका जातिवाद के खिलाफ संघर्ष लगभग उतना ही एकांकी है जितना कि जब उन्होंने द मूकनायक की शुरुआत की थी। लेकिन हजारों दलित, आदिवासी, महिलाएं और अन्य हाशिए पर रहने वाले लोग हैं, जिन्होंने उनके प्रकाशन के जरिए अपनी समस्याओं का समाधान पाया है।

एक उदाहरण मध्य प्रदेश की दलित महिला सुनीता आर्य का है, जिन्होंने बिना विवाह के एक बेटी को जन्म दिया, जिसके बाद गाँववालों ने उनके परिवार को बहिष्कृत कर दिया। जब उनकी बेटी छह साल की हुई, तो आर्य ने अपनी बेटी को उनके गाँव के पास एक निजी स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कथित तौर पर कहा गया, "हम आपकी बेटी जैसे बच्चों को दाखिला देकर, अपनी छवि को बिगाड़ना नहीं चाहते है।" आर्य ने अन्य स्कूलों, कई सरकारी अधिकारियों और छह या सात मीडिया संस्थानों से मदद मांगी, लेकिन कहीं भी मदद नहीं मिली। लेकिन पचौरी ने इस कहानी की अहमियत को पहचाना और इसे द मूकनायक के लिए उठाया, जिसके बाद जाति-आधारित अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने वाली सरकारी संस्था ने दखल दिया और आर्य की बेटी का दाखिला सुनिश्चित किया।
पचौरी, जो पिछले दशक में कई मुख्यधारा के प्रकाशनों के साथ काम कर चुके हैं, मानते हैं कि अन्य प्लेटफार्मों पर आर्य की कहानी को कवर करने की अनुमति नहीं मिलती। वह कहते हैं कि उन्हें पता है कि द मूकनायक फंड के लिए संघर्ष कर रहा है, लेकिन वह प्लेटफार्म से प्रतिबद्ध हैं।
वह द मूकनायक के समाचार कक्ष में छह पत्रकारों में से एक हैं, जिसमें कोटवाल और राजा भी शामिल हैं। अंकित भी टीम के अन्य सदस्यों की तरह देश के विभिन्न हिस्सों से रिपोर्टिंग करते हैं, और अपने ऑफिस का मासिक किराया बचाने के लिए कोटवाल भी यह विचार कर रही हैं कि वह अपना कार्यालय छोड़ दें।
हालांकि, कोटवाल पिछले डेढ़ साल की घटनाओं से अप्रभावित नजर आती हैं। वह कहती हैं कि धमकियाँ और घृणा ने उनके अंदर का डर खत्म कर दिया है और उन्हें मजबूत बना दिया है। कोटवाल कहती हैं कि वह आगे बढ़ने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं, "भले ही मुझे अकेले ही यह करना पड़े।"
Story Translated by Geetha Sunil Pillai