चेन्नई - "जाति से समाज में विभाजन होता है, जाति से जाति के बीच ईर्ष्या और नफरत पैदा होती है। बिना भाईचारे के समानता और स्वतंत्रता महज सतही परत बनकर रह जाएगी" - डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के इन्हीं ऐतिहासिक शब्दों को याद करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने एक पिटीशन खारिज कर दिया जिसमें जाति आधारित मंदिर प्रशासन की मांग की गई थी।
न्यायमूर्ति डी. भरत चक्रवर्ती ने अपने फैसले में डॉ. अंबेडकर के 25 नवंबर 1949 के संविधान सभा के भाषण को उद्धृत करते हुए कहा कि जाति व्यवस्था राष्ट्र-विरोधी है। अदालत ने कहा कि संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज का एक वर्ग अभी भी जाति की इस अवांछित सोच को ढो रहा है।
मामला कोयंबटूर जिले के अरुलमिगु वरदराज पेरुमल और सेनराय पेरुमल मंदिरों का था, जहां एक विशेष जाति के लोगों को ही ट्रस्टी बनाने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता ए. राजेंद्रन ने 2015 में यह याचिका दायर की थी।
अदालत ने स्पष्ट किया कि मंदिर के ट्रस्टी की नियुक्ति केवल आध्यात्मिक चिंतन और धार्मिक आचरण के आधार पर होनी चाहिए, न कि जाति के आधार पर। स्वामी विवेकानंद के विचारों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि आत्मा का न तो कोई लिंग होता है, न जाति और न ही कोई अपूर्णता।
न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि जातिविहीन समाज ही हमारा संवैधानिक लक्ष्य है। जाति आधारित कोई भी मांग न केवल असंवैधानिक है बल्कि सार्वजनिक नीति के भी खिलाफ है। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि कोई भी श्रद्धालु अपनी भक्ति और धार्मिक आचरण के आधार पर ट्रस्टी बनने का दावा कर सकता है।
क्या है मामला?
मद्रास हाईकोर्ट में दायर ओ.ए. संख्या 20/2015 के अनुसार, अरुलमिगु वरदराजा पेरुमल और सेंराया पेरुमल मंदिर अवालपट्टी गांव (नेगमम, पोलाची तालुक, कोयंबटूर जिला) में स्थित हैं। दावा किया गया था कि ये मंदिर एक विशेष जाति से संबंधित हैं।
मूल आवेदन में मांग की गई थी कि मंदिर प्रशासन के लिए एक योजना तैयार की जाए, जिसमें एक विशेष जाति के उप-समूह से गैर-वंशानुगत ट्रस्टी नियुक्त किए जाएं। आमतौर पर, यदि किसी मंदिर के प्रशासन से जुड़ी कोई योजना बनाने की जरूरत होती है और मामला अदालत के समक्ष लंबित होता है, तो अदालत ऐसी योजना तैयार करने के निर्देश दे सकती है। लेकिन इस मामले में संपूर्ण याचिका केवल जाति के आधार पर आधारित थी।
याचिका के समर्थन में दाखिल हलफनामा भी इसी तर्क को समर्थित था। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जाति एक सामाजिक बुराई है और जातिविहीन समाज संविधान का लक्ष्य है। किसी भी प्रकार से जाति को बनाए रखने या उसे प्रोत्साहित करने वाले कदम को कानूनी स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इसका कारण स्पष्ट है—जाति का निर्धारण व्यक्ति के ज्ञान, कार्य या उपलब्धियों से नहीं, बल्कि जन्म से होता है। यह समाज के उस मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ है, जो कहता है कि सभी मनुष्य जन्म से समान होते हैं।
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि जाति समाज को विभाजित करती है, भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा देती है, और सामाजिक विकास के खिलाफ जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ के मामले में स्पष्ट रूप से कहा था कि संविधान जातिविहीन समाज की अवधारणा को खारिज नहीं करता। फैसले के पैराग्राफ 238 में यह स्पष्ट किया गया कि संविधान का अंतिम उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी व्यक्ति के साथ उसकी जाति के आधार पर भेदभाव न हो।
" मैं मानता हूं कि याचिकाकर्ता की मांग सार्वजनिक नीति और संवैधानिक लक्ष्यों के खिलाफ है। इसलिए यह अदालत, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ऐसी मांगों की कभी मदद नहीं कर सकती। इसलिए प्रतिवादी को 2015 की मूल याचिका संख्या 20 पर विचार करने की जरूरत नहीं है और इसे खारिज किया जाता है। तदनुसार, यह रिट याचिका निस्तारित की जाती है।"
"इस रिट याचिका के खारिज होने से किसी भी व्यक्ति को भक्त के रूप में ट्रस्टी बनने के दावे से नहीं रोका जाएगा। ट्रस्टी बनने के लिए जो जरूरी है वह है गहरी भक्ति और आस्था (आध्यात्मिक चिंतन) और अच्छा आचरण (धर्म चिंतन)। इसलिए जब भी मंदिर कोई योजना बनाए, ट्रस्टी के रूप में केवल इन गुणों वाले लोगों को ही नियुक्त किया जा सकता है और योजना भी इसी तरह बनाई जा सकती है, न कि जाति के आधार पर। इसलिए यह आदेश याचिकाकर्ता या अन्य किसी व्यक्ति को योग्य भक्त होने के आधार पर ट्रस्टी बनने का दावा करने से नहीं रोकेगा।"
हाईकोर्ट ने इस आधार पर याचिका को खारिज कर दिया और जाति-आधारित प्रशासनिक ढांचे को खतरनाक बताते हुए कहा कि यह न केवल समाज में असमानता को बढ़ावा देगा, बल्कि संवैधानिक मूल्यों के भी खिलाफ जाएगा।
यह फैसला जाति व्यवस्था के खिलाफ डॉ. अंबेडकर के विचारों और संवैधानिक मूल्यों की पुष्टि करता है, जो एक समतामूलक और न्यायसंगत समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है।